रवींद्र रंजन।
वर्ष 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एजेंडें में वर्ष 1915 तक किसान और किसान का मुद्दा आंशिक तौर पर भी शामिल नहीं था। कांग्रेस ने अपने स्थापना वर्ष से भारत की आजादी तक न जाने कितने आंदोलन किये मगर किसानों के लिए आंदोलन की संख्या का आंकड़ा मुश्किल से गिनती के तीन-चार हैं। महात्मा गांधी का दक्षिण अफ्रीका से घर वापसी के बाद निश्चित तौर पर एक के बाद एक चम्पारण, खेड़ा और बारदेली कांग्रेस प्रायोजित तीन बड़े किसानों के लिए आंदोलन हुए लेकिन ये तीनों आंदोलन भी जमींदारी प्रथा का सीधा विरोध की बजाय किसानों के लिए अंग्रेजों से कुछ रियायत और कर में कुछ कमी करने के लिए था।
कांग्रेस पर जमींदारों का प्रभाव
यह कड़वा मगर स्याह सच है कि अंग्रेजकालीन भारत में सबका नुमाइंदगी करने का दावा करने वाली कांग्रेस पर उम्मीदों के विपरीत जमींदारों का व्यापक प्रभाव रहा। जबकि किसानों को सही नुमाईंदगी और जमींदारी उन्मूलन से मुक्ति दिलाने का कार्य अखिल भारतीय किसान महासभा और बिहार प्रांतीय किसान सभा के आंदोलन ने किया, जिसके नायक थे धर्म का दण्ड धारण करने वाले दण्डीस्वामी सहजानन्द सरस्वती (22 फरवरी 1889 – 26 जून 1950)। पहले तो आम किसानों की तरह सहजानन्द को भी कांग्रेस से काफी उम्मीदें थी। बाकायदा 5 दिसंबर 1920 को पटना में मजहरुल हक़ के निवास पर ठहरे महात्मा गांधी से वार्ता कर सहजानन्द कांग्रेस की राजनीति में शामिल हुए मगर जल्द ही इस अनुभव के साथ कांग्रेस से अलग हो गए कि इस दल में किसानों का हित सुरक्षित नहीं है। कांग्रेस से अलग और महात्मा गांधी से मतभेद के बाद होने के बाद छोटे-मोटे संगठनों से किसानों की रहनुमाई कर रहे सहजानन्द ने वर्ष 1929 में सोनपुर मेला में बिहार प्रांतीय किसान सभा का गठन कर जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ बड़ी और सीधी लड़ाई का एलान किया।
हालांकि सहजानन्द के लिये यह लड़ाई आसान नहीं थी। एक तरफ अंग्रेज और दूसरी ऒर जमींदारों का जुल्म। किसान आंदोलन का पूर्व का ट्रैक रिकॉर्ड भी सहजानन्द के किसान आंदोलन की उम्मीदों को कमजोर करने वाला ही था। कर्नवालिस की नीतियों के खिलाफ टुकड़ों-टुकड़ों में खेरवार आंदोलन, संथाल विद्रोह, बिरसा आंदोलन, नीलविद्रोह, पबाना विद्रोह, मोपला आंदोलन में किसानों ने भीषण विरोध किया था, लेकिन किसानों का राष्ट्रीय संगठन नहीं होने की वजह से समय-समय पर आक्रमक तरीके से इन आंदोलनों का दमन अंग्रेजों ने सफलतापूर्वक किया था।
क्रांतिकारी आह्वान
सहजानन्द ने इन तमाम बाधाओं के बीच क्रांतिकारी आह्वान किया- “लट्ठ हमारा जिंदाबाद”, जिससे किसान आंदोलित हुए। वे किसानों के सर्वव्यापी नेता बन गए। किसानों का मुद्दा राष्ट्रीय बन गया। 1935 में इस सभा की सदस्यता अनुमानित 80,000 थी जो संख्या एक साल में बढ़कर 2,50,000 हो गई, जिससे यह भारत का सबसे बड़ा प्रांतीय निकाय बन गया.11 अप्रैल 1936 को लखनऊ में अखिल भारतीय किसान महासभा के गठन का एलान सहजानन्द ने किया तो सभा में कई प्रतिष्ठित नेता शामिल थे, जैसे एन.जी। रंगा, ई.एम.एस। नंबूदरीपाद, पंडित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुनाकारजी, पंडित यदुनंदन शर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पी। सुंदरय्या, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव और बंकिम मुखर्जी। अगस्त 1936 में किसान मैनिफेस्टो के माध्यम से जमींदारी कर नहीं देने यानी अंग्रेजों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी का प्रस्ताव हुआ तो इन नेताओं समेत सुभाषचंद्र बोस ने भी समर्थन किया।
जबकि किसानों का मुद्दा राष्ट्रीय घटनाक्रम हो जाने के बाद भी कांग्रेस की ओर से जमींदारी उन्मूलन या किसानों के मुद्दे पर कुछ नहीं कहा गया, न ही कुछ किया गया। आजादी के बाद भी कांग्रेस जमींदारी उन्मूलन करती इस पर शक है। वो तो भला कि सहजानंद आजादी के बाद भी कुछ वर्षों तक जिन्दा रहे और बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाला पहला राज्य बना। बिहार के बाद जमीन्दारी का उन्मूलन पूरे देश में हुआ और किसान अपने खेतो का मालिक बहाल हो गए।
स्वतंत्रता आंदोलन में भी निर्णायक भूमिका
गौरतलब है कि सहजानन्द के किसान आंदोलन की भूमिका सिर्फ किसान आंदोलन तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इस आंदोलन ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी निर्णायक भूमिका अदा की। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका की वजह से धार्मिक व्यक्तित्व होने के बाद भी उन्हें कई जेलयात्राएं करनी पड़ी। वर्ष 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन के बाद पहली बार उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें दूसरी बारवर्ष 1930 में नमक कानून भंग करने के कारण गिरफतार किया गया और छः महीने कारावास की सजा हुई। वर्ष 1940 में रामगढ़ समझौता विरोधी सम्मेलन के बाद उन्हें तीन साल की सजा हुई।
किसान आंदोलन के सबसे बड़े नायक
इतिहासकारों ने माना है कि कांग्रेस समेत स्वतंत्रता आंदोलन की तीन बड़ी धारा में किसान आंदोलन भी एक था। इतिहासकारों ने यह भी माना कि किसानों के बीच आज़ादी की दीवानगी परवान चढ़ने के बाद ही स्वतंत्रता आंदोलन तीव्र और तीखा हुआ। 1939 के रामगढ कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ ‘भारत छोडो’ का नारा देने वाले सहजानन्द ने किसान संगठन को तबके कांग्रेस के मुकाबले खड़ा किया था। अमेरिकी विद्वान वाल्टर हाउजर ने किसान आंदोलन पर अपने शोध कार्य में सहजानन्द की दो अप्रकाशित पुस्तकों झारखंड के किसान और खेत मजदूर का उल्लेख करते हुए भारतीय राष्ट्रीय किसान आंदोलन का सबसे बडा नायक माना है। इतिहासकार विलियम पिंच ने अपने शोध ग्रंथ में कहा है ग्रामीण क्षेत्र में संत एवं किसानों का पारस्परिक संबंध बड़ा मधुर था और निश्चित रुप से अपनी संत छवि के कारण सहजानन्द ग्रामीण क्षेत्रों में सहज स्वीकार्य किए गए और उनके क्रांतिकारी कार्यों का जोरदार समर्थन किसान वर्ग ने किया। इसी कारण तबके 80 प्रतिशत ग्रामीण भारतीयों के बीच आज़ादी के आंदोलन की ज्योति जलाने में सहजानन्द कामयाब रहे।
जमींदारी उन्मूलन का क्रांतिकारी सूत्र
सहजानन्द के विचारों में जमींदारी उन्मूलन का क्रांतिकारी व आंदोलनकारी सूत्र होने के साथ किसानों के वर्तमान और भविष्य को लेकर रचनात्मक दृष्टिकोण भी था। उन्होंने भारत के किसानों की उत्पदान क्षमता और आने वाले संभावित खाद्य संकट के मद्देनज़र जमींदारी उन्मूलन के अलावा कुछ और भी समस्यायों के निदान की मांग की थी। वे मानते थे कि किसानों को पूरी तरह बाजार की यांत्रिकी पर छोड़कर लागत के साथ थोड़ी गारंटी मुहैया कराई जाये। उत्पादन लागत का मूल्यांकन करते समय जमीन की कीमत और इस पर आनेवाले ब्याज की रकम को भी उत्पादन का अंश माना जाये। कृषि उत्पाद मूल्य के निर्धारण नीति के बारे में उनका मत था कि कारखानों से उत्पादित वस्तुओं की तरह तमाम छोटे-बड़े खर्चों और उनके लिए मुनासिब सूद के अलावा उचित मुनाफा को शामिल करके मूल्यों का निर्धारण करना चाहिए।
सहजानन्द का यह कहना कि किसी भी प्रकार के आर्थिक ढांचे का आधार सर्वदा किसान थे, किसान हैं और किसान ही रहेंगे भारत के आर्थिक ढांचे का शाश्वत सत्य है।