अर्थव्यवस्था-संकट और गहराया, ऊपर से अराजकता।
प्रमोद जोशी।
श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के इस्तीफे की घोषणा के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि उसे देश के राजनीतिक संकट के समाधान की उम्मीद है। राजनीतिक स्थिरता के बाद बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत फिर से शुरू हो सकती है। श्रीलंका के वर्तमान संकट का हल आईएमएफ की मदद से ही हो सकता है। देश में 92 दिन से चले आ रहे जनांदोलन के बाद शनिवार को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि देश में शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए वे 13 जुलाई को इस्तीफ़ा दे देंगे।
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री का ये हाल
शनिवार को बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति के सरकारी आवास के अंदर घुस गए थे। उन्होंने प्रधानमंत्री के निजी आवास में भी आग लगा दी थी। उस समय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही अपने आवासों पर मौजूद नहीं थे। श्रीलंका में खराब आर्थिक हालात के चलते लंबे समय से विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। प्रदर्शनकारी लगातार राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की मांग करते रहे हैं। राष्ट्रपति के साथ-साथ प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने भी इस्तीफ़ा देने की घोषणा की है। सरकारी सूत्रों के अनुसार एक सुरक्षित स्थान पर सेना राष्ट्रपति की रक्षा कर रही है। कुछ सूत्रों का कहना है कि उनके आवास पर भीड़ के आने के पहले नौसेना ने उन्हें बाहर निकाल लिया था।
शनिवार की शाम संसद के अध्यक्ष ने राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई जिसमें प्रधानमंत्री विक्रमासिंघे ने अपने इस्तीफे की घोषणा की ताकि एक सर्वदलीय सरकार बनाई जा सके। उनके प्रवक्ता ने कहा कि जैसे ही नई सरकार बनेगी वे इस्तीफा दे देंगे। राष्ट्रपति के हट जाने के बाद संसद के अध्यक्ष 30 दिन तक गोटाबाया के स्थान पर काम कर सकते हैं। इस दौरान संसद को एक राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है।
बेदम विपक्ष
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बाद नई सर्वदलीय सरकार का गठन आसान नहीं होगा। देश का विपक्ष काफी बिखरा हुआ है। उनके पास संसद में बहुमत भी नहीं है। सत्तारूढ़ दल के समर्थन से विरोधी दलों की सरकार बन भी गई, तब भी देश की अर्थव्यवस्था को संभाल पाना काफी मुश्किल होगा। सरकार बदलने से आर्थिक-समस्याओं का समाधान नहीं हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष भी सहायता करने के पहले देश की राजनीतिक स्थिरता को समझना चाहेगा।
सारी उम्मीदें आईएमएफ पर
भारत तथा दूसरे अन्य देश, जिन्होंने हाल के वर्षों में श्रीलंका की सहायता की है, फौरन सहायता के लिए आगे नहीं आएंगे। श्रीलंका पर करीब 50 अरब डॉलर का विदेशी कर्जा है। इस साल अप्रेल के महीने में उसने घोषणा की कि हम कर्जा चुकाने में असमर्थ हैं। अब सारी उम्मीदें आईएमएफ पर हैं, ताकि उसे नया कर्ज मिल सके।
आगे क्या?
यह सही है कि देश को फिलहाल राजपक्षा परिवार के शासन से मुक्ति मिल गई है। यह काम विरोधी दल नहीं कर पा रहे थे। यह काम जनता के सीधे हस्तक्षेप से सम्भव हो गया है, पर इसके आगे क्या? अराजकता से तो समस्याओं के समाधान नहीं होते।
एक सुझाव यह है कि फौरन चुनाव हों और देश के संविधान में बुनियादी बदलाव किए जाएं। देश की अध्यक्षात्मक व्यवस्था को संसदीय प्रणाली में बदला जाए। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि अब जो अस्थायी सरकार बनेगी, वह समस्याओं का समाधान कर देगी। हाल के वर्षों में इटली, यूनान, अर्जेंटाइना, लेबनॉन और ज़ाम्बिया में ऐसा ही संकट आया था। इसका मतलब है कि श्रीलंका में भी अस्थिरता जारी रहेगी।
अमेरिका की अपील
अमेरिका ने रविवार को श्रीलंका के नेताओं से संकट के दीर्घकालीन हल के लिए जल्द कदम उठाने की अपील की है। अमेरिका का संदेश श्रीलंका में शनिवार को हुए घटनाक्रम के बाद आया है। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन इस समय थाईलैंड के दौरे पर हैं। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा, किसी राजनीतिक दल के बजाय श्रीलंका की संसद को देश की बेहतरी के लिए कदम उठाने चाहिए। हम इस सरकार या संवैधानिक रूप से चुनी गई किसी नई सरकार से तेज़ी से काम करने की अपील करते हैं ताकि संकट का हल तलाशा जा सके। इससे श्रीलंका में आर्थिक स्थिरता आएगी और लोगों का जो असंतोष है, उसका हल निकाला जा सकेगा।
देश दिवालिया हो चुका
इसके पहले देश के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने पिछले सप्ताह कहा था कि देश दिवालिया हो चुका है। देश में पेट्रोल और डीजल लगभग खत्म हो चुका है। गाड़ियों में पेट्रोल भरवाने के लिए मीलों लम्बी लाइनें लग रही हैं। परिवहन तकरीबन ठप हो गया है। शहरों तक भोजन सामग्री नहीं पहुँचाई जा सकती है। दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। अस्पतालों में सर्जरी बंद कर दी गई हैं। विदेश से चीजें मंगवाने के लिए पैसा नहीं है। अच्छे खासे घरों में फाके शुरू हो गए हैं। स्कूल बंद हैं। सरकारी दफ्तरों में शुक्रवार को भी छुट्टी शुरू कर दी गई। निजी क्षेत्र काम ही नहीं कर रहा है।
(लेखक ‘डिफेंस मॉनिटर’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)