#pradepsinghप्रदीप सिंह।
राष्ट्रपति पद के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी हार होने जा रही है। हालाँकि हार तो उनके उम्मीदवार बनने के पहले दिन से तय थी। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव अभियान आगे बढ़ता गया- उनके और पूरे विपक्ष के लिए मुश्किल यह हुई कि उनका समर्थन लगातार घटता गया। फिर एक स्थिति ऐसी आ गई कि जिन लोगों ने उनका नाम आगे बढ़ाया था, वही पीछे हटने लगे। जिन लोगों ने उनके नाम का प्रस्ताव किया था उनमें से कई लोग अलग हो गए। उपराष्ट्रपति पद के लिए भारतीय जनता पार्टी ने जगदीप धनखड़ का नाम प्रस्तावित किया। विपक्ष की ओर से मार्गरेट अल्वा का नाम आया। उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी मार्गरेट अल्वा की हार तय है। सवाल यह है कि हार का अंतर मार्गेट अल्वा का बड़ा होगा या यशवंत सिन्हा का।

बीजेपी ने विपक्षी खेमे में दरार डाल दी

NDA's presidential candidate Draupadi Murmu meets PM Modi - Oneindia News

यहां मैं जो बात कह रहा हूं वह हार और जीत से अलग है। सत्तारूढ़ दल का बहुमत है तो उसकी जीत होनी ही है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। अभी हम राष्ट्रपति चुनाव की बात करते हैं जिसके लिए सोमवार को मतदान चल रहा है। इसमें खास बात यह होगी कि पोलिंग में कितने विधायक और सांसद क्रॉस वोटिंग करते हैं। खबरें आ रही हैं कि अलग-अलग पार्टियों में क्रॉस वोटिंग हो रही है। इस समय तात्कालिक रूप से अगर कहें तो द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर बीजेपी ने बड़ा काम यह किया है कि विपक्षी खेमे में दरार डाल दी है। विपक्ष में जिस तरह का बिखराव है वह साफ़ दिख रहा है। दरअसल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के इस चुनाव में मुख्य कहानी उम्मीदवारों के जीतने और हारने की है ही नहीं। यह विपक्ष के बिखराव की कहानी है कि वह न तो कोई अच्छा उम्मीदवार दे पाया- और ये जो यशवंत सिन्हा और उनके साथी कह रहे हैं कि यह विचारधारा की लड़ाई है- तो वे इस चुनाव को विचारधारा की लड़ाई भी नहीं बना पाए। वे कोई ऐसा मुद्दा नहीं उठा पाए जिससे मालूम पड़े कि विपक्ष के उम्मीदवारों या विपक्ष का फोकस इस बात पर है- वे इस मुद्दे के लिए लड़ रहे हैं। एनडीए और सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ भी वे कोई मुद्दा नहीं बना पाए। बल्कि स्थिति यह हो गई है कि यशवंत सिन्हा का समर्थन कर रहे विपक्षी दलों में कुछ तो रक्षात्मक या डिफेंसिव मोड पर हैं। द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ बोलने से कतरा रहे हैं। उनको मालूम है कि देश के दस करोड़ चौबीस लाख आदिवासियों पर उसका क्या असर पड़ेगा।

सामाजिक ध्रुवीकरण का तिलिस्म तोड़ने में विपक्ष नाकाम

आदिवासी वोट हर पार्टी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। खासतौर से यशवंत सिन्हा की सबसे खास प्रस्तावक और समर्थक टीएमसी प्रमुख व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बात करें तो उनको मालूम है कि उनके प्रदेश में आदिवासी आबादी का 80 फ़ीसदी संथाल समाज से आता है- और द्रौपदी मुर्मू संथाल हैं। मामला यह है कि जिस तरह का ध्रुवीकरण बीजेपी ने किया है वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं है… जिस तरह का सामाजिक ध्रुवीकरण बीजेपी ने किया है उसको तोड़ने, कमजोर करने या उससे लड़ने में विपक्ष नाकाम रहा है। आज विपक्ष चुनावी नतीजे आने से पहले ही हारा हुआ नजर आ रहा है। मैं वोटों की संख्या के आधार पर विपक्ष को हारा हुआ नहीं कह रहा हूं- बल्कि आईडियोलॉजी/विचारधारा और संगठन के आधार पर, मुद्दे बनाने तथा विमर्श खड़ा करने- के आधार पर कह रहा हूं।

उपराष्ट्रपति का पद छोटा पर भूमिका बड़ी

यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं

अगर सत्तारूढ़ दल का बहुमत हो तो इस प्रकार के चुनाव प्रतीकात्मक होते हैं। विपक्ष अपना उम्मीदवार खड़ा करता है- और लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसे खड़ा करना भी चाहिए- वह एक प्रतीकात्मक लड़ाई होती है। लेकिन उस प्रतीकात्मक लड़ाई के पीछे कोई मुद्दा या केंद्र बिंदु होना चाहिए कि हम इस मुद्दे पर लड़ रहे हैं। विपक्ष में इस मामले पर भी कोई एका नजर नहीं आ रहा। सोमवार से ही संसद का मानसून सत्र भी शुरू हो गया है और विपक्ष में किसी भी मुद्दे पर एकता का अभाव है। तो 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी खेमे में दरार या फूट पैदा कर दी है। इसका लाभ निश्चित रूप से 2024 में बीजेपी और एनडीए को मिलेगा। मगर… बात सिर्फ यहीं तक की नहीं है 2024 में क्या होगा- यह तो डेढ़- पौने दो साल बाद की बात है। विपक्ष पिछले आठ साल से कोई राष्ट्रीय वैकल्पिक विमर्श खड़ा करने में नाकाम हो रहा है- यह भारत के लोकतंत्र के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है। लेकिन जो वास्तविकता है उससे आप न भाग सकते हैं और न इनकार कर सकते हैं। विपक्ष की स्थिति इस समय यह है कि वह लड़ाई लड़ने से पहले ही हार जा रहा है। किसी भी स्पर्धा में, चुनाव में या युद्ध में- हार जीत तो होती है। एक खेमा जीतेगा, एक हारेगा। यह आम बात है। लेकिन अगर एक पक्ष में लड़ने का माद्दा ही ना रह जाए तो फिर चिंता होती है। भारत में विपक्ष की स्थिति आज यही है कि उसमें लड़ने का माद्दा ही नहीं रह गया है। जीते या हारे वह अलग बात है- लेकिन लड़ने के लिए जो क्षमता, योग्यता या ललक होनी चाहिए- वह भी दिखाई नहीं देती। सामने मंजर यह है कि विपक्ष एक हारी हुई लड़ाई बेमन से लड़ रहा है। उसमें कोई एका या सामंजस्य नहीं है। बीजेपी को घेरने की, सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा बनाने की- ऐसी कोई कोशिश उसमें नजर नहीं आ रही है।

भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़

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राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का यह चुनाव भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ लेकर आएगा। नतीजे आने के बाद आपको दिखाई देगा कि किस तरह से बीजेपी सामाजिक समीकरण साध रही है। यह केवल आदिवासियों तक ही नहीं है। जगदीप धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर बीजेपी ने अपनी कमजोर कड़ी- जाट मतदाता- को एक बड़ा संदेश दिया है। जाट मतदाता भाजपा के साथ कभी आता था कभी चला जाता था- कभी नाराज हो जाता था कभी खुश हो जाता था। चौधरी चरण सिंह, चौधरी देवी लाल के बाद इतना बड़ा पद भारतीय जनता पार्टी ने जाट समुदाय के किसी नेता को दिया है। इसका कोई राजनीतिक असर नहीं होगा- यह मैं मानने को तैयार नहीं हूं। हां. कितना होगा- यह आने वाला समय बताएगा।