रणवीर सिंह का निर्वस्त्र चित्रावली-सत्र

#satyadevtripathiसत्यदेव त्रिपाठी।
सबको पता है कि रणवीर सिंह ने किसी पत्रिका के लिए एक निर्वस्त्र चित्रावली का सत्र (फोटोशूट) कराया है। यहाँ ‘निर्वस्त्र’ जैसे शालीन शब्द का प्रयोग करना नंगा होने जैसे नंगे काम के लिएकरना उचित नहीं, वरन इस शब्द का अपमान है, लेकिन नंगा शब्द ‘नंगा-लुच्चा’ जैसे प्रयोगों में जब गाली जैसा हो गया है और अंग्रेज़ी का ‘न्यूड’ गाली नहीं है, तो उसके सम्मान में‘निर्वस्त्र’ ही ठीक लगा।

रनवीर ने किसी बतकही कार्यक्रम (टॉक शो) में डंके की चोट कहा कि उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि दुनिया क्या कहती है। दावा किया कि हज़ारों के सामने वे बिना कपड़ों के आ सकते हैं। मुझे इस पर अपने गाँव की कहावत याद आयी – ‘नंगा नाचे भूत भागे’, तो ऐसे के सामने आदमी और समाज क्या चीज़ है! सभ्यता की शुरुआत में आदमी जंगली था या आदिमानव की बात कह लीजिए… नंगा ही था। जंगल में जो कुछ होता था, पशु की ही तरह वही खाके रहता था –पशुवत् ही था। आज भी सभ्यता-संस्कृति के सारे विकास के बाद कहावत तो है ही ‘मैन इज अ सोशल एनीमल’ तो जैसे क्रोध-कामुकता… आदि के आवेशी क्षणों में जब कोई किसी का क़त्ल या बलात्कार कर देता है, तो उस क्षण वह एनीमल ही होता है। इसी प्रकार उन दिनों जंगल में कौन पुरुष किस स्त्री से सम्बंध बनाता है, किसी को पता नहीं होता था कि बच्चा किसका है– जैसे पशुओं का आज भी होता है। वैसे ही पैसे पाने के चरम लोभ या अपनी मनमानी करने की चरम स्वच्छंदताकी रौ में नंगे फ़ोटो खिंचाने का यह कृत्य पशुवत् ही तो है – कोई भी कर सकता है। पागल भी और कुछ नहीं कर सकता, तो सड़क पर नंगा घूम लेता है। तो कोई भी बेशर्मी पर, नंगई पर उतर आये, तो अपने कपड़े उतार कर खुद को उघाड़ (एक्सपोज़ कर) सकता है। तो इस अर्थ में रनवीर ने अपने कपड़े खुद ही उतारे हैं, खुद को नंगा ही तो किया है – वरना कपड़ा उतारना कौन सा पुरुषार्थ है, कौन सी कला है?

लेकिन अब इसको माध्यम बनाकर भाई लोग अपनी-अपनी ढपली बजा रहे हैं, अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। अबू आज़मी ने अपना राग अलापते हुए साबित किया कि दुनिया में कुछ भी हो, उन्हें अपना जमाती मुद्दा भर याद आता है। उनका कहना है कि ‘रणवीर का नंगा नाच चल सकता है, लेकिन लड़कियाँ हिजाब पहनकर परीक्षाएँ देने नहीं जा सकतीं’ (महानगर, 24 जुलाई, 2022 पृष्ठ 6)। इतनी बेसिर-पैर की सोच वाला आदमी एक पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष है। राजनीतिक सोच कितने बेतुके हो गये हैं कि हिजाब हटाने और चड्ढी खोलने में याने मुँह खोलने और नंगे होने में कोई फ़र्क़ नहीं है– धूमिल के शब्दों में ‘रामनामी बेचकर या रंडी की दलाली करके ज़िंदगी जीने में कोई फ़र्क़ नहीं है’।

आज़मी साहब का मामला तो फिर भीअपनी जमात के एक सूत्री कार्यक्रम का है, जो उनकी राजनीतिक रोज़ी-रोटी है, लेकिन सोच-विचार की रोटी खाने के लिए जाने जाने वाले पत्रकार (प्रशांत जैन, टाइम्स समूह) की ढपली सुनिए –‘शर्ट उतारी, तो सीटियाँ और पैंट उतारी, तो गालियाँ क्यों? (नभाटा, २४ जुलाई, २०२२ पृष्ठ १०)। ज़ाहिर है कि उनके ख़्याल में सलमान खान होंगे, जिनके शर्ट उतारे बिना उनकी कोई फ़िल्म अब पूरी नहीं होती। लेकिन प्रशांतजी की संकल्पना में पैंट के नीचे चड्ढी शायद नहीं होती, इसलिए पैंट उतारकर ही नंगा हो जाया जाता है। ख़ैर, इनकी सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति एवं विकास की अवधारणा भीउनके शब्दों में यूँ कि वे पैंट उतार कर नंगे होने की तुलना लंगोट पहनकर कुश्ती लड़ने से करते हैं और ‘सुल्तान’ व ‘दंगल’ जैसी फ़िल्मों का उदाहरण देकर पूछते हैं कि वहाँ कोई एतराज क्यों नहीं करता? यदि वहाँ नहीं करता, तो फिर यहाँ क्यों कर रहा है? मतलब प्रशांतजी वस्त्र-मुक्ति के ऐसे हिमायती हैं कि कोई कपड़े में रहे या बे-कपड़े रहे, उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि ऐसी मुक्ति सिर्फ़ सितारों के लिए ही है या उनकी यह परिधान-स्वतंत्रता हर आम-ओ-ख़ास के लिए है। आलेख में उन्होंने उदाहरण सिर्फ़ सितारों के ही दिये हैं। और बताया है कि फ़िल्म ‘बेफ़िक्रे’ में रणवीर पहले भी निर्वस्त्र दृश्य कर चुके हैं। होने को तो रणवीर कपूर भी अपनी आरम्भिक फ़िल्म ‘साँवरिया’ में तौलिए की आड़ में नंगे हो चुके हैं। समलैंगिक (‘गे’) की भूमिका में जॉन अब्राहम भी हो चुके हैं। और भी बहुत मिल जायेंगे।

अब जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है। खबर है कि रणवीर की परिणीता पत्नी दीपिका पादुकोण को इस कारनामे का शुरू से ही पता तो क्या, खुला समर्थन था – बल्कि निर्वस्त्र तस्वीरें भी सरेआम होने के पहले ही उन्होंने देख ली थीं। मैडम पादुकोण ने अपने पति के जन्म-पहनावे (बर्थ ड्रेस) में जाने क्या सबसे अलग या प्रदर्शनीय देखा कि उन्हें लगा – वह नुमाइश करने लायक़ है – सो, उनकी जानी सारी दुनिया इसे देखे। स्त्रियों के बदन-दिखाऊ दृश्य तो फ़िल्म के बिकने की ग़ैरंटी होते थे। इसमें नारी-शोषण व पुरुष की कामुक वृत्ति के ढेरों-ढेर विवेचन हुए, पर वह दिखाना कम न हुआ – बढ़ता गया। आजकल तमाम तारिकाएँ फ़ैशन शोज़ करते हुए खुद ही अधिकतम देह-प्रदर्शन की होड़ में लगी हैं। कई बार तो ऐसी ढीली गाँठ वाले कपड़े पहनती हैं कि उसके अचानक खुल जाने से छाती व कमर पर एक पतली सतर की तरह थोड़ा कुछ ढँका रह गया भाग भी नुमायाँ हो जाता है – इसके लिए बड़ा पोशीदा-सा जुमला ईजाद हुआ है –‘ऊप्स मोमेंट का शिकार हो गयीं’।

याद कीजिए मशहूर संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ पर गिरीश कर्नाड निर्देशित फ़िल्म ‘उत्सव’। उसमें नायिका वसंतसेना बनी रेखा जैसी सुते चंपई बदन वाली तारिका को प्रेमी चारुदत्त (शेखर सुमन) के सामने निर्वस्त्र करना था। संस्कृत में नीवींबंध पारिभाषिक जैसा शब्द है – वह गाँठ, जिसे खोल देने पर स्त्री नग्न हो जाती है। उसे पति या प्रेमी ही खोलता है। वर्णन तो यह तक है कि बक़ौल कवि अमरुक की नायिका अपनी सखी से –‘नीवीं प्रति प्रणहिते तु करे प्रियेण, सख्य: शपामि यदि किंचिदपि स्मरामि’–यानेनीवीं बंध पर प्रेमी का हाथ आते ही नायिका अपना सबकुछ भूल जाती है। सो, इसी की अनुहारि स्वरूप ‘उत्सव’ में चारुदत्त का हाथ वहाँ लगते ही पूरी पोशाक ‘झम्म’ से नीचे… और रेखा नदारद – दिखते है सिर्फ़ नीचे पड़े कपड़े-गहने।


इसे कला कहते थे – बिना दिखाये सब कुछ दिखा दिया या सब कुछ दिखा दिया, कुछ दिखा भी नहीं। तो नग्नता में नहीं, सौंदर्य उसकी लालसा में है। उस लालसा को लोग आज कुत्ते की लपलपाती जीभ बना दे रहे हैं। आजकल होड़ लगी है कि कौन-सा निर्देशक किस फ़िल्म में किस नायिका का ज्यादा से ज्यादा बदन दिखा सकता है। यह होड़ नायिकाओं में भी है। एक का नग्न होना दूसरी के लिए उससे अधिक होने की प्रेरणा है। रणवीर के बाद अब तो यह होड़ नायकों में भी होगी। जब सलमान की कमर के ऊपर की देह पर जनता इतनी फ़िदा है कि उसकी क़ीमत करोड़ों में है, तो कमर के नीचे का क्या हाल होगा – क्या क़ीमत होगी! दिखाने का सबसे उम्दा मामला स्नान दृश्यों का होता है। झरने-पहाड़ों में बारिश, नदी-समुद्र व तरण ताल (स्वीमिंग पूल) व घरों के बड़े स्नानघरों व उनमें बने स्नान-कुंडों (बाथ टब्स) … आदि में पानी के अंदर भी ये हॉट दृश्य खूब हिट हुए। इनका दोहन यथाशक्ति खूब हुआ। अभी की ‘गहराइयाँ’ देख लीजिए। फ़िल्में चलीं, कमाइयाँ भी हुईं– होती जा रही हैं।

लेकिन श्रिंगार के अलावा यथार्थ दृश्य में भी निर्वस्त्र होने के दृश्य बने। एटनबरो की ‘गांधी’ में उस स्त्री के पास एक ही सारी है। नदी के दूर सुनसान हिस्से में वह सारी किनारे पर रख के नहा रही है। अब निकल कर पहनना है कि गांधीजी उस किनारे मुँह धोते प्रकट हो जाते हैं। अब वह पानी में ही गड़ी रह जाती है कि वे जायें, तब वो बाहर निकल के सारी पहने। यह मर्म गांधीजीबने बेन किंगस्ले को समझवा दिया जाता है और वे अपनी पगड़ी उसकी तरफ़ बहा देते हैं, जिसे स्त्री हाथ भर दूर से ही झपट लेती है। ‘गांधी’ में बिना कुछ दिखाये यथार्थ जीवन बखूबी पहुँचा। आजकल सुबह भ्रमण पर जाते हुए अमिताभ बच्चन के ‘जलसा’ के आगे बायें मुड़ने पर पेट्रोलपंप के ठीक सामने एक पेड़ के नीचे कोई अंधेड़ महिला एक बाल्टी में पानी लिए बिलकुल निर्वस्त्र होकर, लेकिन सिकोड़े घुटने व लटके सिर में यथाशक्ति यथासंभव बदन को छिपाने का प्रयत्न करते हुए नहाती दिखती है। न वह किसी की तरफ़ देखती, न कोई उसकी तरफ़ देखता। कोई गमछा-साफ़ा फेंकने का भी अवसर-स्थल नहीं।


1981 में आयी रवींद्र धर्मराज निर्देशित फ़िल्म ‘चक्र’ में स्मिता पाटिल को झोंपड़े के दरवाज़े पर बैठ के नहाते बाक़ायदा दिखाया ही नहीं गया, लोगों को उसे निहारते हुए भी दिखाया गया, तो दृश्य व दृष्टि दोनो दिखी, पर अश्लीलता न आयी। इस युग में जिस गोले पर कोई कपड़ा पहनता ही नहीं, उस किरदार को निभाने के लिए भी ‘पीके’ में आमिर को रेडियो से गुप्तांग छिपाने का आइडिया निकालना पड़ा राजकुमार हीरानी को।

#nude amir khan

 

फ़िल्म में तो इसके लिए सेंसर बोर्ड है। ढाई-तीन दशक पहले विज्ञापन फ़िल्म में निर्वस्त्र होने वाले मिलिंद सोमन को तो उन दिनों के हिसाब से काफ़ी झेलना पड़ा था। रणवीर का यह चित्र-सत्र यदि कहीं दिखाया गया, तो सेंसर काम करे शायद। वैसे वेब सीरीज़ में माँ-बहन की गालियाँ धड़ल्ले से दी जा रही हैं और वह शायद सेंसर मुक्त है। इनमे काम करने वाले रानावि से प्रशिक्षित लोग भी हैं, जिन्हें कोई आपत्ति नहीं। हैरत है वहाँ की शिक्षा-प्रणाली पर और इनकी चेतनता (सेंसिबिलिटी) पर! लेकिन सड़क पर नंगे घूमने पर तो पुलिस ही कुछ कर सकती है और चित्र-सत्र तो सड़क पर घूमना भी नहीं है – तो पुलिस भी कुछ नहीं कर सकती है। लेकिन आज समाज माध्यम (सोशल मीडिया) है। उस पर प्रसारित किये बिना प्रचार हो पाता नहीं। तो वहाँ की गरमागरम चर्चाओँ से कुछ प्राथमिकियाँ (एफ आई आर) दर्ज़ हुई हैं। कुछ कार्रवाई हो भी सकती है। लेकिन पहले का समय होता, तो जैसे पागल को बच्चे ढेला-पत्थर मारते हैं, रणवीर को भी मारते, यदि शूट पर कुछ दर्शकों की सभ्य भीड़ होती। वह असभ्य समाज ही था, उसके बाद ताज़िंदगी बदनामी सहता रहा, ताने सुनता रहा, जो द्रौपदी के कपड़े उतरते हुए चुप रहा। लेकिन सेलीब्रेटी को नंगा देखना तो फ़िल्म का हिट होना है। रणवीर की तरह जितने लोभ व जितनी बेशर्मी इस सभ्य समाज में चल रही है, उसके लिए हमारे गाँव में एक और कहावत है – ‘सर पे चढ़ के मूतना’। लेकिन आज के इन सबका कारण व परिणाम लोकप्रियता है, जिसके अनुपात में ही धन आता है। और धन की चाहत तो अकूत है। उसके लिए क्या-क्या नहीं बिकता –‘बाबूजी, तुम क्या-क्या ख़रीदोगे, यहाँ हर चीज़ बिकती है’… !
तो हर अंग के बिकने का एक चित्र प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की एक कहानी से, जिसका नाम भी ‘न्यूड का बच्चा’ ही है। उसकी नायिका वीनू जानती है–‘उसके बालों पर किसी हेयरडाई बनाने वाली कम्पनी का नाम लिखा है। उसके दाँतों पर टूथपेस्ट की ट्यूबें जगमगा रही हैं। बिन्दी-काजल-पाउडर-कुंडल-चूड़ी... सब जगह खडी कम्पनियां इठला रही हैं। उसकी कमनीय त्वचा पर क्रीम बनाने वाली कम्पनियों का युद्ध छिडा है। उसके बालों पर किसी हेयरडाई बनाने वाली कम्पनी का नाम लिखा है। और वह प्रस्ताव स्वीकार लेती है’।
तो बनियान-चड्ढी के नीचे के प्रस्ताव क्यों ठुकराए जायें– बल्कि उनके बिन पूछे-कहे उन्हें सहर्ष बुला लिया जाये- रनवीरजी की तरह।
आख़िर सारा खेल तो इसी नंगेपन का ही है हुज़ूर!
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)