प्रदीप सिंह।
आजादी के बाद एक ऐसी घटना घटी जिसने सनातन संस्कृति को 100 साल पीछे पहुंचा दिया। वह घटना सनातन संस्कृति पर इतना बड़ा आघात है जिससे अभी तक हम पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं। अभी भी उससे उबरने की कोशिश की जा रही है। उस घटना को सही संदर्भ में देखा नहीं गया और देखने भी नहीं दिया गया। उस घटना का लाभ उठाया सनातन संस्कृति के विरोधियों ने। सनातन संस्कृति यानी हिंदू धर्म को दबाने का, इसे एक विद्रूप रूप में पेश करने का काम हुआ और लगातार चला। वह घटना थी 30 जनवरी,1949 की जब महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या की थी। नाथूराम गोडसे को आज भी बहुत से लोग जो खुद को हिंदुत्ववादी कहते हैं उसे एक तरह से नायक के रूप में दिखाने की कोशिश करते हैं। मैं आपको बता रहा हूं कि क्यों ऐसा नहीं होना चाहिए।
‘एकमात्र उपाय’- जो नहीं किया
नाथूराम गोडसे ने अपने इस कुकृत्य से इतना बड़ा नुकसान किया सनातन धर्म का जितना आजाद भारत में किसी और ने नहीं किया। इसे समझने के लिए आप पहले यह समझ लें कि उस समय देश का माहौल क्या था। आजादी से थोड़ा पहले से देखिए, आजादी से पहले का माहौल यह था कि धर्म के आधार पर देश का बंटवारा तय हो गया था। मुसलमानों का कहना था कि हम हिंदुओं के साथ रहना नहीं चाहते हैं, हमको अपना अलग देश चाहिए। इसके लिए ब्रिटिश सरकार पहले से तैयार बैठी थी और कांग्रेस पार्टी भी इस पर मान गई। कांग्रेस को लगा कि और कोई चारा नहीं है, नहीं तो आजादी की तारीख और टलती जाएगी। उस समय बहुत से लोगों को लगा कि इससे सांप्रदायिकता की समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। मगर ऐसा न तो होना था- और न हुआ। इसके लिए बहुत से लोगों की बहुत सी बातें हैं मैं उन सबमें नहीं जाऊंगा, सिर्फ एक व्यक्ति की बात करूंगा, इस देश के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर की। जब पाकिस्तान बन रहा था और यह तय हो गया था कि उसे बनने से रोका नहीं जा सकता है तो उन्होंने जो बात कही थी वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था कि अल्पसंख्यक समस्या का एकमात्र समाधान है आबादी की अदला-बदली। जब तक यह नहीं होगा तब तक अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की समस्या भारत में बनी रहेगी। सांप्रदायिक शांति के लिए एकमात्र उपाय है सभी मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना। यह किसी छोटे-मोटे व्यक्ति का, सांप्रदायिक नेता का या किसी हिंदूवादी संगठन का बयान नहीं है, यह देश के जाने-माने संविधान विशेषज्ञ जिन्होंने इस देश का संविधान बनाया, लिखा उनका है। उनकी इस बात को नहीं माना गया। उनके इस इस विचार के समर्थक सरदार पटेल सहित कांग्रेस के अन्य बहुत सारे नेता भी थे।
सेक्युलरिज्म की राह बना दी आसान
दरअसल, कांग्रेस पार्टी आजादी के आंदोलन के दौरान कोई राजनीतिक दल नहीं थी। वह एक मंच था जिस पर सभी विचारधारा के लोगों के लिए जगह थी। सभी विचारधारा के लोग उससे जुड़े हुए थे। वह किसी एक राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी बल्कि विभिन्न वैचारिक समूहों का प्रतिनिधित्व करती थी जो मिलकर देश को आजाद कराना चाहते थे। उसमें मध्यमार्गी भी थे, दक्षिणपंथी भी थे, वामपंथी भी थे और दूसरी विचारधाराओं के लोग भी थे। वह सबका मिला-जुला समूह था। आजादी के बाद जब वह राजनीतिक दल बना तब उसके सामने बड़ी समस्या थी। बंटवारे के बाद जिस तरह से दंगे में लाखों लोग मारे गए थेउससे देश का माहौल पूरी तरह से सनातन धर्म के समर्थन में था। ताजा-ताजा देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। देश को औपचारिक रूप से हिंदू राष्ट्र घोषित करने की जरूरत नहीं थी। बिना घोषित किए भी हिंदू राष्ट्र था। आबादी की अदला-बदली के बगैर भी तब जो स्थिति थी वही आज भी होती अगर नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या नहीं की होती। इसने नेहरूवाद को, नेहरू के सेक्युलरिज्म का रास्ता आसान कर दिया। जैसे ही गांधीजी की हत्या हुई सबसे पहला काम यह हुआ कि पुणे और मुंबई (तब बंबई) में चितपावन ब्राह्मणों के ऊपर हमला होने लगा। एक अनुमान है कि महाराष्ट्र में तबछह से आठ हजार ब्राह्मण मारे गए। हिंसा का यह तांडव एक हफ्ते तक चला। वोटर लिस्ट लेकर खोज-खोज कर मारा गया। पहले गोडसे उपनाम वालों को, फिर जो चितपावन ब्राह्मण थे उनको और फिर दूसरे ब्राह्मण समुदाय के लोग थे उनको मारा गया। उस घटना को दबा दिया गया और कहीं खबरें भी छपने नहीं दी गई। अब 75 साल बाद उस पर शोध होने जा रहा है। विक्रम संपत सहित कई लोग उस पर शोध करने जा रहे हैं। उसकी जो खबरें हैं उनको निकाल कर लोगों के सामने लाने की कोशिश हो रही है।
“मोदी विरोध” से राष्ट्रवाद विरोधी खेमे में खड़ी होती कांग्रेस
हत्यारी ठहरा दी गई सनातन संस्कृति
दूसरा हमला हुआ हिंदू महासभा पर, इस नाम पर कि गोडसे का संबंध हिंदू महासभा और आरएसएसदोनों से था। दोनों को उससे जोड़ा गया और दोनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दोनों के दफ्तर सील कर दिए गए, उनके साहित्य नष्ट कर दिए गएऔर उनके पदाधिकारियों को जेलों में ठूंस दिया गया। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि प्रतिबंध हट नहीं गया। उसके बाद हिंदू महासभा उबर नहीं पाई जबकि यह हिंदुओं के सामाजिक सुधार का बहुत बड़ा संगठन था। हिंदू महासभा जिसको खत्म कर दिया गया आजादी के कुछ सालों बाद क्योंकि सेक्युलरिज्म की राजनीति को आगे बढ़ाना था, उसका मार्ग निष्कंटक करना था। आरएसएस इसलिए उबर पाया क्योंकि उसे समझ में आ गया कि गैर-राजनीतिक संगठन रह कर उबरानहीं जा सकता, उसे एक राजनीतिक दल की जरूरत है। आरएसएस ने 1951 में जनसंघ नाम से राजनीतिक दल बनाया और इस आरोप के साथ आज भी काम कर रहा है कि संघीको सांप्रदायिकता का प्रमाण बता दिया गया। संघी को हिंदुत्व का पर्यायवाची बना दिया गया। यदि आप संघी हैं तो आप हिंदुत्ववादी हैं, हिंदुत्ववादी हैं तो आप सांप्रदायिक हैं, सांप्रदायिक हैं तो आप सेक्युलरिज्म की राजनीति के खिलाफ हैं, सेक्युलरिज्म के सिद्धांत के खिलाफ हैं तो आप देश के खिलाफ हैं। इस तरह का नैरेटिव बनाया गया और इसको स्थापित कर दिया गया। संघी होना एक तरह से गाली बना दिया गया। हिंदूवादी होने का मतलब हो गया कि आप आरएसएस के समर्थक हैं, हिंदू महासभा के समर्थक हैं। हजारों साल पुरानी सभ्यता-संस्कृति को जिम्मेदार ठहरा दिया गया कि यह हत्यारी संस्कृति है। कहा गया कि हिंदू विचारधारा के कारण ही गांधीजी की हत्या हुई। पीछे मुड़कर देखें तो अब मुझे लगता है कि यह काम उन्होंने संघ को खत्म करने के लिए किया, हिंदुत्व को कुचलने के लिए किया।
गोडसे की वजह से सबकुछ बदल गया
आज आरएसएस एक ताकत के रूप में सामने है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने हिंदुत्ववादी होने का कोई प्रमाण नहीं देना है, उसे कुछ स्थापित नहीं करना है। उसकी यह पहचान उसके विरोधियों ने बना दी और उसको असली हिंदुत्ववादी बना दिया। यह वह नकली हिंदुत्ववादी नहीं है जो हिंदू तब बनते हैं जब हिंदुत्व को गाली देना होता है। जो लोग दिन-रात यह कहते नहीं थकते हैं कि अपराधी और आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है उन्होंने गोडसे में अपराध और आतंकवाद की जाति भी खोज ली क्योंकि एजेंडा दूसरा था। उस एजेंडे पर चलना था कि हिंदुत्व की राजनीति, हिंदुत्व की मानसिकता, सनातन धर्म, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसकी जो अवधारणा है उसे देश में स्थापित नहीं होने देना है और एक आयातित विचारधारा सेक्युलरिज्म की स्थापना करनी है क्योंकि नेहरू उसी स्थिति में पले-बढ़े थे। उन्होंने कांग्रेस को भी उसी में ढाल दिया। सरदार पटेल की मौत के बाद उनको समझ में आ गया कि उनको चुनौती देने वाला अब कोई नहीं बचा। जो थोड़े बहुत लोग थे उनको किनारे लगा दिया गया, कुछ लोग छोड़ कर चले गए। कुल मिलाकर नेहरू बिना चुनौती वाले नेता बन गए। अब उन्हें अपनी विचारधारा देश पर थोपने से कोई रोक नहीं सकता था और रोक भी नहीं पाया। तो गोडसे ने सिर्फ यही नुकसान नहीं किया बल्कि गोडसे के कुकृत्य की वजह से सब कुछ बदल गया। धर्म के आधार पर देश का बंटवारा होने के बावजूद बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों दोनों को बराबरी का दर्जा मिल गया। यह शुरुआत थी। इसमें आगे क्या होने वाला है यह उस समय बहुत से लोग नहीं देख पाए। उसके बाद शुरू हुआ मुस्लिम तुष्टिकरण का कि उनको समान अधिकार तो मिलना चाहिए, विशेष दर्जा भी मिलना चाहिए क्योंकिवे हिंदुओं से डरे हुए हैं।
दोयम दर्जे के बन गए बहुसंख्यक
सवाल यह है कि कांग्रेस को वोट कौन देता था? क्या केवल मुसलमानों के वोट से कांग्रेस जीतती थी? दो तरह के लोग थे, एक जो सेक्युलरवाद को मानते हैं, हिंदू धर्म को गाली देते हैं और कांग्रेस का समर्थन करते हैं। दूसरे वे जो सेक्युलरवाद को नहीं मानते हैं, हिंदू धर्म को गाली देने के लिए तैयार नहीं हैं वे सांप्रदायिक हैं, देश को तोड़ने वाले हैं, समाज में जहर फैलाने वाले हैं, यह अवधारणा धीरे-धीरे लोगों के मन में घर कर गई। इतना हो गया कि हिंदू अपने प्रति ही एकतरह से अपराध बोध से ग्रसित हो गया कि हममेंही कुछ कमी है, हम गलत हैं। यह सिलसिला 1947 के बाद से शुरू हुआ, यह घर करता गया और यह राजनीति फलने-फूलने लगी। जैसे बिना किसी घोषणा के 1947 में यह हिंदू राष्ट्र था वैसे ही बिना किसी घोषणा के हिंदू भारत में बहुसंख्यक होते हुए भी एक तरह से दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गयाऔर हिंदुओं ने कुछ नहीं किया। कुछ ने खुशी-खुशी स्वीकार किया तो कुछ ने चुप रह कर स्वीकार किया,मगर स्वीकार सबने कर लिया। अगर ऐसा नहीं किया होता तो कांग्रेस50-60साल तक राज नहीं कर पाती। कांग्रेस का इतना लंबा जो सत्ता का दौर रहा वह इसी सोच के कारण था। कांग्रेस पार्टी, खासतौर से नेहरू जी के नेतृत्व में और उसके बाद जिसे भी कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व मिला उनमें यह स्थापित मान्यता हो गई कि हिंदुओं में राष्ट्रवाद उभरने नहीं देना है। कांग्रेस जानती थी कि जिस दिन हिंदू राष्ट्रवाद का उभार हुआ, जिस दिन उसका वर्चस्व स्थापित हुआ, उस दिन उसके जाने का समय आ जाएगा। नरेंद्र मोदी वास्तव में यही कर रहे हैं, हिंदू राष्ट्रवाद को उभारनेऔर उसको स्थापित करने का काम। ये जो हीन भावना हमारे मन में भर गई थी उसको निकालने का काम कर रहे हैं।
लकीर बड़ा करने की हो रही कोशिश
यहां कोई हिंदू-मुसलमान के झगड़े का मामला नहीं है। हजारों साल पुरानी संस्कृति के गौरव की पुनर्स्थापना का यह मामला है। यह पहले से खींची लकीर को छोटा करने की कोशिश नहीं है, उसको मिटाने की कोशिश नहीं है बल्कि लकीर को बड़ा करने की कोशिश है। पिछले 8 साल से जो हो रहा है और उसका नतीजा दिखाई दे रहा है। जैसे-जैसे यह लकीर बढ़ रही है वैसे-वैसे कांग्रेस का पतन हो रहा है। इनमें सीधा संबंध है। यह लकीर जैसे-जैसे बढ़ेगी कांग्रेस का पतन होता रहेगा और हो भी रहा है। कांग्रेस और कांग्रेसियों को यह पता था कि जिस दिन हिंदुत्व का उभार होगा वह समय उनकी विदाई का समय होगा। इसलिए आप कांग्रेस की पूरी राजनीति और कांग्रेस का समर्थन करने वालेया जो भी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करते हैं उन सबको देखिए,उनसबकी कोशिश थी कि हिंदुओं की कोई राजनीतिक पहचान न बनने पाए। इसको तोड़ने के लिए जाति को लेकर आए। हिंदुत्व बुरा है और जातिवाद अच्छा है क्योंकि यह हिंदुत्व को कमजोर करता है। कांग्रेस के बाद जितने भी क्षेत्रीय दल बने सबका आधार जातिवाद है, परिवारवाद तो उसके बाद आया। पहले जातिवाद से शुरू हुआ। जाति में सेक्युलर और हिंदुत्व में कम्युनलिज्म है यह समझाया गया। जिन्होंने जाति की राजनीति की उनको नायक बताया गया और जिन्होंने हिंदुत्व की राजनीति की उनको खलनायक बताया गया। यह खेल 75 साल से चल रहा था, मोदी ने आकर इस खेल को बिगाड़ दिया। मोदी ने कहा कि हम दोनों पाले में खेलेंगे। उन्होंने जाति को तोड़ने की बजाय जाति को जोड़ा और एक नया बहुजन समाज बना दिया जिसमें सबके लिए अस्तित्व की गुंजाइश है, कोई झगड़ा नहीं है। यहां सवर्ण भी है, पिछड़ा भी है, दलित और जनजाति भी है। सबके लिए गुंजाइश है बढ़ने की विकसित होने की और उसके साथ-साथ हिंदुत्व की।
वास्तविकता बाहर आ रही
मैंने पहले भी कहा था कि मोदी को यह समझ में आ गया कि हिंदुत्व में कुछ और जोड़ने से ही बात बनेगी, अकेले हिंदुत्व से बात नहीं बनेगी। दूसरी बात जो मैंने कही थी कि खालिस हिंदुत्व हो, नकली हिंदुत्व नहीं चलेगा। कांग्रेस को हमेशा डर रहा कि यह राजनीतिक पहचान न बना पाए इसीलिए भगवा आतंकवाद का सवाल आया, इसीलिए दंगों को लेकर एक विधेयक लाने की कोशिश हुई मनमोहन सिंह की सरकार में। आजादी के बाद से ही तरह-तरह की कोशिश हुई। गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा, उसके बाद दोबारा और लगाया गया। जितनी बार प्रतिबंध लगा आरएसएसपहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरा। जिस विचारधारा को कांग्रेस पार्टी ने 60-65 साल तक कोशिश की कि इसको देश के लोग नकार दें उसे देश के लोगों ने सिर माथे पर बिठा लिया। यह इस बात का प्रमाण है कि आप वास्तविकता को बहुत देर तक छुपा कर नहीं रख सकते। जो प्राकृतिक है वह उभर कर आएगा ही। अगर बीज जमीन के अंदर है तो धरती को फाड़ कर निकलेगा ही। हिंदुत्व का जो बीज जमीन में दबा हुआ था वह धरती को फाड़ कर निकल रहा है। उससे बहुत से लोगों को समस्या हो रही है। आने वाले दिनों में और ज्यादा समस्या होगी। समस्या इसलिए नहीं होगी कि हिंदू बहुत आक्रामक होने जा रहा है या लोगों को दबा कर रखने वाला है, ऐसा कुछ होने नहीं जा रहा है। समस्या इसलिए हो रही है कि उन्होंने जो झूठ का साम्राज्य खड़ा किया था वह रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर रहा है। उसको बचाने का उनके पास कोई रास्ता नहीं है। अब तो उनके पास अपने बचने का रास्ता नहीं है। अपने बचने से मेरा मतलब राजनीतिक और वैचारिक रूप से है। उनके अस्तित्व का सवाल आ गया है। कोई उनके खिलाफ कुछ नहीं कर रहा है केवल अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश हो रही है जो स्वाभाविक है। उसी को स्थापित करने की कोशिश हो रही है। भारत का जो मूल स्वभाव है उसकी स्थापना की कोशिश हो रही है। उससे ही उन्हें परेशानी हो रही है।
बदलाव को सही संदर्भ में देखिए
एक बार फिर सोचिएगा कि अगर आप गोडसे का समर्थन करते हैं तो आप कितनी बड़ी भूल कर रहे हैं। गोडसे की एक गलती से सनातन धर्म का जितना बड़ा नुकसान हुआ उतना और किसी चीज से नहीं हुआ। कम से कम पिछले 75 साल में तो नहीं हुआ। इस मुद्दे पर एक बार विचार करके जरूर देखिएगा। जो बदलाव हो रहा है उसे सही संदर्भ में देखिएगा। ये जो राजनीति की बात है न कि बीजेपी को कितनी सीटें मिलेंगी, कितने प्रतिशत वोट मिलेंगे, मेरी नजर में ये सब अस्थाई हैं। ये हो या न हो लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर जो बदलाव हो रहा है वह स्थायी है और देश के साथ रहेगा। आज बीजेपी है, कल कोई और पार्टी आ सकती है, परसों कोई और। यह क्षणभंगुर है लेकिन अपना समाज, अपना देश, अपनी संस्कृति यह स्थायी है, चिरंजीवी है। इसलिए इस संदर्भ में फिर से एक बार सोचिएगा।