सत्यदेव त्रिपाठी।
इधर 5 व 6 अगस्त को भारत बनाम वेस्टइंडीज एंडीज की टी-20 क्रिकेट प्रतियोगिता-श्रृंखला की अंतिम दो याने चौथी एवं पाँचवीं स्पर्द्धाएँ अमेरिका में हुईं। इसकी बड़ी चर्चा है कि क्रिकेट अमेरिका में पहुँच गया। सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि इसकी सफलता व लोकप्रियता से प्रभावित होकर अब क्रिकेट के आयोजन वहाँ और भी होंगे। इस तरह इस खेल को एक और बड़ा क्षेत्र मिलेगा, एक और बड़ा बाज़ार मिलेगा… तो और अधिक धन-वर्षा होगी… और अधिक अमीर बढ़ेंगे, तो अमीरी बढ़ेगी। फिर और अधिकाधिक लोग नहाएँ-निचोड़ेंगे।
लेकिन वहाँ एक बात और हुई, जिसका कोई नाम नहीं ले रहा… शायद नाम लेकर ‘पिछड़ा’ हो जाने का आतंक समाया हो। ऐसे में ‘पिछड़ा’ होने का जोखिम उठाते हुए मैं उसकी चर्चा करने चला हूँ। बात यह है कि 6 तारीख़ वाली अंतिम स्पर्द्धा में ‘सर्वोत्तम खिलाड़ी’ (मैन ऑफ द मैच) का सम्मान लेते हुए अक्षर पटेल ने हिंदी में बात की।
‘चर्चा’ का विषय
विडम्बना ही है कि हिंदुस्तानी खिलाड़ी का हिंदी में बोलना ‘खबर’ या चर्चा का विषय बन रहा। हाँ, कोई विदेशी खिलाड़ी हिंदी में बोलता, और यहाँ चर्चा होती, तो कुछ बात होती। और यदि कभी किसी वजह से भारतीय खिलाड़ी किसी विदेशी भाषा में बोले, तो खबर बने। जबकि हो रहा है उलटा। भारतीय खिलाड़ी का भारतीय भाषा में बोलना तो सहज व सनातन भाव से एवं अनिवार्य रूप से होना चाहिए। मुझे याद है कि कपिल देव जब विश्वकप जीत के आये थे, तो मुम्बई में कोई समारोह हो रहा था। उसमें उनका मराठी में एक वाक्य ‘माला मराठी एत नाहीं’ से शुरू करना भी उस वक्त खबर बना था।
पहले अंग्रेजों- अब अंग्रेजियत के ग़ुलाम
लेकिन यहाँ तो अंग्रेज़ी बोलने की झक (क्रेज़) है, फ़िदाई है। आधुनिक और सभ्य होने का प्रमाण है। पहले अंग्रेजों के ग़ुलाम थे, अब अंग्रेजियत के ग़ुलाम हैं। कभी हाल यह रहा कि वीरेंद्र सहवाग और हरभजन सिंह आदि लोग दूरदर्शन के कार्यक्रमों में अपने अंग्रेज़ी के अज्ञान के क़िस्से लतीफ़े की तरह सुना-सुना के भी तारीफ़ लूट ले गये- भुना भी ले गये याने पैसे कमा गये। किस-किस तरह वे लोग विदेशों में सबसे बचते रहे कि किसी ने कुछ पूछ लिया, तो समझेंगे कैसे, जवाब कैसे देंगे… होटलों वग़ैरह में कुछ मंगाते हुए किस तरह बुद्धू बने…आदि-आदि। कुल मिलाकर अंग्रेज़ी न जानना उनके लिए शर्म की बात थी। हिंदी या भारत की कोई भी भाषा बोलना गर्व की बात कभी नहीं हुई! इतनी हिम्मत कभी न हुई कि शान से कहें -मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती। कृपया, दुभाषिया लेकर आयें। इन जैसे कइयों ने, जिसमें कपिलदेव भी शामिल हैं, सरनाम क्रिकेटर होने के बाद विदेशों में सम्मान्य होने के लिए अंग्रेज़ी सीखी या फिर प्रशिक्षक रख के बोलने में सुधार-परिष्कार किये।
बेपरवाह व बेबाक़ अक्षर
ऐसे में अक्षर पटेल बिना किसी शर्म-संकोच के बड़े इत्मीनान से खड़े थे। अंग्रेज़ी न जानने का कोई संकोच या हीनभाव न था उनमें, जो मुझे बहुत सही व सराहनीय लगा, क्योंकि अक्सर सबमें होता है। और इसीलिए लिख भी रहा हूँ। और मूलतः गुजराती-भाषी होने के बावजूद अच्छी हिंदी बोल रहे थे, जो पुन: सादर उल्लेख्य है। भाषा-संवाद के सेतु बने थे उस दिन के भारतीय कप्तान हार्दिक पण्ड्या। ऐसे में अक्षर यदि गुजराती में जवाब देते, तो भी हार्दिक अनुवाद करके बता सकते थे। तब और बात बनती- मातृ भाषा का सर ऊँचा होता। हिंदी में बोलने से राष्ट्र भाषा न सही, राष्ट्रीय भाषा याने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली, सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली-समझी जाने वाली भाषा का सर ऊँचा हुआ। अक्षर के जवाब बिलकुल सीधे-सीधे वाजिब होते, संक्षिप्त व क्रमवार होते तथा अंदाज में बेपरवाह व बेबाक़ रहे। तब ख़्याल आया कि सारे हमारे तथाकथित अंग्रेजीदाँ जब बोलते हैं, तो अटकते ज़रूर हैं- भटकते भी हैं। तो ‘यू सी’, ‘आइ मीन’… जैसे तकियाकलाम में पनाह लेते हैं। निश्चित ही वे वह नही कह पाते, जो जिस तरह कहना चाहते हैं। पर अंग्रेज़ी में निभा पाने की मुग्धता लिये गर्व से लौटते हैं।
‘हृदयँ न हरख बिसाद कछु’, ‘बोले पण्ड्या वीर’
उधर अक्षर के लिए संवाद-सेतु की भूमिका में हार्दिक पण्ड्या इसे आसान व हल्का-सा (कैजुअल) काम दिखा रहे थे, जो उनके अंग्रेज़ी ज्ञान का ही वट्ट होना चाहिए। उनके चेहरे व हाव-भाव में यदि अक्षर के प्रति अवहेलना का भाव न था, तो गर्व व सम्मान का भी न था। बस, ‘हृदयँ न हरख बिसाद कछु’, ‘बोले पण्ड्या वीर’ भर था। अक्षर अंग्रेज़ी समझ रहे थे, बस- बोल नहीं पा रहे थे। अत: तर्जुमा सिर्फ़ अक्षर के उत्तरों का हुआ। हो सकता है कि उक्त उद्धृत सहवाग-हरभजन की तरह अक्षर भी आगे चलके अंग्रेज़ी सीख लें। यह बोलना सिर्फ़ ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ ही हो और होकर रह जाये। लेकिन इसी बहाने अंग्रेज़ी के हुज़ूर में अपनी भारतीय भाषाओं की बावत कुछ कहने की बात मन में आयी।
शायद अक्षर का यह कोई पहली बार नहीं हुआ हो- पहले शायद और भी बार ऐसा हुआ हो-शायद मैंने सुना भी हो… लेकिन यह बात आज ही कहने का मन हुआ या कहने की बात सूझी। शायद इसका कारण यह हो कि आज के समय में राष्ट्रीय भावों-विरासतों एवं सनातन धर्म व संस्कृति के पुनर्स्मरण एवं परिष्कार की एक सहज लहर चल रही है। इसलिए इसमें अपनी राष्ट्रीय भाषाओं की भी चेतना जुड़ जाये, तो क्या बात है…!
राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अस्मिता
जमाना गवाह है कि अंग्रेज़ी जानने वालों के सामने या उनके देश में अपनी भाषा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करने व उसे गौरव दिलाने एवं ऐसा करके खुद भी गौरवान्वित होने की बात युवा क्रिकेटरों में और तमाम क्षेत्रों के प्रतिनिधियों में नहीं आ रही है। क्रिकेट अंग्रेजों की देन है। तभी से सब कुछ अंग्रेज़ी में चल रहा है। आज़ाद होकर 75 साल हो रहे हैं, लेकिन आज भी सभी अंग्रेज़ी से दबे-सहमे हैं। अंग्रेज़ी बोलकर अपने को प्रगत (ऐडवाँस) व शिक्षित समझने के मुग़ालते में भरमाये पड़े हैं। तो क्या ऐसा विधान नहीं बन सकता कि विदेशों में जाकर लोग विदेशी भाषा न बोलकर अपनी राष्ट्रीय भाषाओं में बोलें, जिससे देश का सर ऊँचा हो और अपनी भाषाओँ को भी उनका अपेक्षित दर्जा मिले।
ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है कि हम जब से आज़ाद हुए, बिना किसी वैधानिक दबाव के मनुष्यता-नैतिकता का या अपनी राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अस्मिता को स्थापित करने का कोई भी काम नहीं करते- बल्कि विधान बन जाने पर भी उसे तोड़कर मनमानी व निजी फ़ायदे के काम में लग जाते हैं। ऐसे में क्या आज की सरकार इस बात पर ध्यान देगी?
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)