सत्यदेव त्रिपाठी।
लगभग 15 दिनों बाद एक बार फिर रणवीर सिंह के कपड़ा-उतारू कारनामे के प्रकरण पर बात करने की वजह सिर्फ़ यह नहीं है कि पिछली बार जिस प्राथमिकी (एफ.आइ.आर.) का उल्लेख हुआ था, उस पुलिस ने उन्हें थाने में हाज़िर होने का बुलावा (सम्मन) भेजा है, बल्कि उस नंगे होने के बाद इसके कुछ और पहलू भी खुले हैं, जिन पर बात करनी थी – बस, बुलावे की खबर इसे आज ही लिखवा दे रही है। तो पहले इसी की बात…!
26 जुलाई की प्राथमिकी पर 12 अगस्त को चेम्बूर की पुलिस जब सूचना लेकर रणवीर सिंह के घर गयी, तो पता लगा कि वे बाहर गये हैं और 16 अगस्त को आयेंगे। तब फिर पुलिस आकर आज्ञापत्र (सम्मन) देगी। 22 अगस्त को थाने जाकर रणवीर अपना लिखित बयान दर्ज कराएँगे, ऐसा तय हुआ है। अब ये बड़े-रसूख़ वाले लोग कब जायंगे, कितना आगे-पीछे कर-करा लेंगे, जाने पर वहाँ के पुलिस वाले इनकी सितारे वाली छवि से प्रभावित होकर कितना नियम-पालन करेंगे, कितनी रियायत करेंगे…या कोई इनका ख़ास दीवाना ही मिल जाये, तो बरी ही कर दे…. आदि-आदि तो इस व्यवस्था व पद्धति के अनकहे राज़ हैं… और ‘सुबइ-समय अनुकूल’ होते रहेंगे। लेकिन यह कार्रवाई ऐसे कामों के विकास-ह्रास यानी इस तरह के चलन के चलने-रुकने के बड़े निर्णायक कारण बनेंगे। अब अपनी बात पर आयें…!
कितना भी ग़लत हो, सिर्फ़ पक्ष में बोलना है
पिछली बार रणवीर सिंह के कपड़ा-उतारू कारनामे को अंग्रेज़ी के ‘न्यूड’ के समानांतर ‘निर्वस्त्र’ कहकर इस मसले को शालीन बनाये रखने की कोशिश की गयी थी, लेकिन फ़िल्म-जगत ने अपने सलूकों से इस दौरान यह सिद्ध किया है कि उन्हें नंगे होने में कोई एतराज नहीं, क्योंकि फ़िल्म जगत -बल्कि फ़िल्म उद्योग- से किसी भी बंदे ने इस कृत्य की आलोचना नहीं की है, एतराज नहीं जताया है– विरोध करने की तो बात ही क्या! इसे ‘मौनं सम्मति लक्षणम्’ मान लिया जाये, तो रणवीर के (नंगेपन) के साथ उनकी सहमति है। और आलिया भट्ट, आमिर खान व अर्जुन कपूर…आदि जिन लोगों ने इस मसले पर ज़ुबान खोली है, सबने रणवीर के पक्ष में बात की है – यानी वे ऐसे कार्य को ग़लत नहीं मानते – बल्कि सही मानते हैं। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि उन्हें इससे अरुचि नहीं… तो फिर रुचि हो भी सकती है। यानी मौक़ा मिला, तो वे भी कर सकते हैं। यानी नंगे होने को तैयार हैं। तो फिर नंगे को नंगा कहने में गुरेज़ क्यों किया जाये…? फ़िल्म वालों के ऐसे दुस्साहस या ऐसी मानसिकता को इस तरह नहीं जानता था मैं, इसलिए पिछली बार ‘निर्वस्त्र’ जैसा शालीन शब्द लिखा, पर अब यही कहना होगा कि ऐसों के लिए ‘निर्वस्त्र’ जैसे शब्द का अवमूल्यन क्यों किया जाये!
नंगे होने की रुचि व पसंद के साथ एक गहरी बात और – फ़िल्म वालों को अपने पेशे या क्षेत्र वालों के बारे में कभी नकारात्मक बोलते नहीं सुना जाता। यानी अलिखित चलन सा है कि एक दूसरे के लिए सिर्फ़ पक्ष में बोलना है – चाहे वह काम कितना भी ग़लत हो! यह एक जातीय क़िस्म की मानसिकता है, जो हिंदुस्तान का इतिहास बनाती-बिगाड़ती है। सारे राजनीतिक दल इसी जातीय वृत्ति के समीकरणसे बनते-चलते हैं। अपवाद स्वरूप इधर 8 सालों से वर्तमान शासक दल, जो स्वयं बड़ी जातियों व हिंदू जमात का पक्षधर माना जाता है, सत्ता में आने के बाद उससे मिले अधिकारों के बल इस समीकरण को तोड़ने-बदलने का कार्य बुनियादी तौर पर कर रहा है, लेकिन यह मानसिकता संस्कार बनकर सबके अंतस् में पैठ चुकी है। टूट नहीं रही है। बल्कि ऐसे प्रयत्नों को जी-जान से तोड़ रही है…।
हमारी सांस्कृतिक ऊंचाइयों को दिखाती है ‘सम्राट पृथ्वीराज’ -अमित शाह
पत्थर बोल सकता है, अमिताभ नहीं
यही मानसिकता अलग-अलग क्षेत्रों में भी जड़ जमाये है। फ़िल्म क्षेत्र इस वृत्ति के अंध-अनुयायी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। यही वह कारण है, जो किसी को रणवीर के कुकृत्य के ख़िलाफ़ बोलने नहीं देगा। अमिताभ बच्चन जैसे शीर्ष कलाकर, जो बपौती के बल सांस्कृतिक क्षेत्र के प्रतिनिधि भी माने जाते हैं, इस वृत्ति के सबसे बड़े अनुयायी हैं – पत्थर बोल सकता है, अमिताभ बच्चन नहीं। ऐसा ही नाटक के क्षेत्र में है, जिसका आजकल नियंता है ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’। वहाँ से निकले लोगों का आज नाटक के साथ फ़िल्म क्षेत्र में भी ख़ासा दख़ल है। उनका हाल भी यही है कि एक रानावि वाला दूसरे रानावि वाले का समर्थन ही करेगा – बोलकर या चुप रहकर – वही ‘मौनं सम्मति लक्षणम’। इसी तर्ज़ पर रणवीर का नंगा होना माफ़ ही नहीं, अनुकरणीय हो जाता है। इसी तरह बड़े ही वस्तुगत सोच का दम भरने वाले वामपंथी संगठन तो इस वृत्ति में नाक तक डूबे पड़े हैं। उनसे तो बात भी करने जाइए, तो पहले आपका दस्तावेज देखेंगे कि आप उनके दल के पंजीकृत सदस्य हैं या नहीं। पंजीकृत हैं तो सात खून माफ़। नहीं हैं, तो अवसरानुकूल देश का हर खून आपके नाम।
वामपंथ के प्रसंग पर समाज-विकास की बावत अति संक्षेप में कहें, तो प्राणियों के लिए ‘भूतानि’ शब्द हमारी मनीषा में चिर काल से मौजूद था –‘अन्नाद्भवंति भूतानि’ (भगवद्गीता)। इसी भूतानि से बना ‘भौतिकवाद’ नाम्ना उनका एक बीज शब्द आया, जो वैचारिकी का नेतृत्व करते-करते उस सम्प्रदाय के आधुनिक नेताओं की वृत्ति बन गया। पूँजी की अहमियत हमारे मूल चिंतन के चार स्तंभों में शुमार थी– ‘अर्थ’ बनकर, लेकिन वह बाक़ी घटकों के साथ समान अनुपात में नियंत्रित कर दी गयी थी –‘धर्मार्थ कामं सममेव सेव्यं य: एक सेवी, स नरो जघन्य:’। अर्थात् इन चारों को समान भाव से जीवन में उतारना नियत था…जो किसी एक को ही जीवन में उतारेगा, वह जघन्य होगा। जैसे जितना अर्थ, उतना ही धर्म भी। इसके अनुसार सुख की प्राप्ति को धन में नहीं, धन से किये धर्म में माना गया था –‘धनात् धर्म:, तत: सुखम्’। धर्म के अंतर्गत दान-परोपकार आदि के ज़रिए मानवीय वृत्तियों को संस्कारित-परिष्कृत किया गया था और यह क़रीने से जन सामान्य तक पहुँच गया था – जीवन में उतर गया था। लेकिन इस बाम-चितन ने धर्म के घटक को पाखंड (जो हर पद्धति व सिद्धांत में आ ही जाता है) कह कर त्याज्य सिद्ध कर दिया। बच गये- अर्थ और काम – दोनो भोगी वृत्तियाँ। और प्राणि मात्र की जैविक वृत्ति भोग की है, यह मूलभूत सच सबको पता था – अब तो प्राणि-विज्ञान ने विधिवत समझा दिया है। धर्म के निकष से परखकर अर्थ-काम के भोग-त्याग का संतुलन, जो समाज-निर्माण की धुरी था, को ख़त्म करना इन नये विमर्शकारों का अज्ञान था या फिर षड्यंत्र व पाखंड था– उनकी मूल वैचारिकी का हिस्सा नहीं।
‘सब कुछ बेचो और मौज करो’
इस तरह उस महान सिद्धांत को प्रदूषित करके आसान व सस्ता ‘ईट-ड्रिंक-बी मेरी’ का एक तूफ़ान खड़ा कर दिया गया, जिसमें उड़कर सारा समाज-प्रवाह आज गर्दो-ग़ुबार के इस मुक़ाम पर पहुँचा है कि शरीर-सुख की दौड़ (रेस) में ‘सब कुछ बेचो और मौज करो’ का ज़लज़ला आज के समाज को ग्रस चुका है। भोग के सुख में आकंठ गर्क है और इसका पता भी नहीं है कि वह क्या बेच रहा है। और आज के युग में इसका शीर्ष है– प्रतीक व प्रमाण है- फ़िल्म जगत। व्यवसाय जगत भी इसी का प्रमाण है, लेकिन अपने प्रदर्शन व्यापार (‘शो बिज़नेस’) की नियति के चलते फ़िल्म वाले ही लोगों तक पहुँचते हैं। इसी भौतिक सुख की ईहा और प्रदर्शन की प्रकृति से ही बावस्ता है रणवीर का नंगा होना, जो पहुँच रहा है। नंगे होने के प्रदर्शन में उतना सुख नहीं, जितना उसकी प्राप्ति से मिले साधन-सम्पन्नता में है। फिर एक होड़ है – बिकने की क़ीमत। वही उनके इयत्ता का मानक बन गया है। उनके आर्ट से ज़्यादा उनका रेट उन्हें बड़ा बनाता है– कौन कितने करोड़ पाता है। इस रेट का जन्मदाता–जनरेटर है– बाज़ार।
इस ‘शोर’ का यही मर्म
तो जो सारे के सारे फ़िल्म वाले रणवीर को सही ठहरा रहे हैं, वे ऐसा करके बाज़ार के बनियों (प्रोड्यूसर) को निमंत्रण का संकेत दे रहे हैं– आओ, ख़रीदो। हम बिकने को तैयार हैं। कभी बिकना बेइज्जती था– ‘मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिखे, आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ’। यह शायर की मरणान्तक पीड़ा थी, आज वही जीवन का परम आह्लाद है।
तो इस सब ‘शोर’ का यही मर्म है– सब कुछ को ‘गुल’ कर लेना। पुलिस और क़ानून इसे सुधार नहीं सकता– बस, सजा दे सकता है।
ख़ुदा इन्हें समझाए कि ये जो कर रहे हैं, उसके अंजाम से वाक़िफ़ नहीं हैं।
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)