अकु श्रीवास्तव।

धर्म और जाति की राजनीति भारत में कितनी पुरानी है, यह सही-सही बता पाना बेहद मुश्किल है। दक्षिण एशिया के इस हिस्से में ईसा से भी सैकड़ों साल पहले जब जातियां बनीं, तभी से उनमें वर्चस्व बनाए रखने की राजनीति शुरू हुई। यह बताने की जरूरत नहीं कि उस राजनीति में कौन जीता और कौन हाशिए पर चला गया। जब इस क्षेत्र में अन्य धर्मों की दस्तक हुई तो धर्म के नाम पर लोगों और समुदायों को संगठित करने की राजनीति भी शुरू हुई। राजाओं ने राजनीतिक वर्चस्व कायम रखने के लिए समय-समय पर खास धर्म अपनाए और बेहिचक बदले। मगर यह सब इस पुस्तक का विषय नहीं है। हम यहां बात करते हैं देश में आजादी के बाद जाति और धर्म की राजनीति पर और इससे पनपे राजनीतिक दलों पर।

15 अगस्त, 1947 को जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में पहली कार्यवाहक सरकार बनी तो उसमें सभी विचारधाराओं और धर्मों का प्रतिनिधित्व रखने की कोशिश की गई। हालांकि इससे पहले ही मोहम्मद अली जिन्ना की धर्म की राजनीति या धर्म और कौम आधारित राष्ट्रवाद देश का विभाजन करा चुका था। विभाजन की बड़ी त्रासदी का सबक जल्द ही भुला दिया गया और देश में धर्म तथा जाति राजनीति तेजी से जड़ें जमाने लगी। विश्लेषक यह मानते हैं कि हम भारतीयों का एक बड़ा वर्ग अपने समुदाय या जाति को वोट देने में ज्यादा रुचि रखता है। इसके कारण कई हो सकते हैं, पर इनको लगता है कि अपने समुदाय का नेता उनका ज्यादा हित कर सकता है। 1951-52 में जब पहले लोकसभा चुनाव हुए तो चुनावी अखाड़े में ऐसी कई पार्टियां थीं, जो किसी खास जाति या धर्म के अधिकारों की बात करते हुए देश या क्षेत्र विशेष की राजनीति में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही थीं। इनमें भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद, हिंदू महासभा खुद को हिंदू नेशनलिस्ट पार्टी बता रहे थे और हिंदू अधिकारों की बात कर रहे थे। इसी तरह इंडियन मुसलिम लीग मुसलमानों तथा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल सिख अधिकारों की राजनीति कर रहा था। तमिलनाडु में वनियार जाति के वोटों पर तमिलनाडु टोयलर्स पार्टी की नजर थी। दलितों को एकजुट और संगठित करने के लिए बी.आर। आंबेडकर की शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन भी चुनाव मैदान में थी। दक्षिण में जस्टिस पार्टी द्रविड़ों को लुभाने की कोशिश कर रही थी। इसी तरह पंजाब में डिप्रेस्ड क्लास लीग बन गई थी। पूर्वोत्तर में खासी और जेंतिया जनजातीय समुदाय को लुभाने के लिए खासी-जेंतिया दरबार के रूप में एक अलग राजनीतिक पार्टी शक्ल ले चुकी थी। कुकी समुदाय के लिए कुकी नेशनल एसोसिएशन नामक पार्टी मैदान में थी।

एक तरफ कांग्रेस पर शुरू में ही यह आरोप लगा कि वह मुसलिम तुष्टीकरण को बढ़ावा दे रही है तो दूसरी तरफ हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली पार्टियों को शुरू में कोई खास सफलता नहीं मिली। शायद उसकी एक वजह यह भी थी कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी खुद नेहरू मंत्रिपरिषद को सुशोभित कर रहे थे। इसलिए उन्हें सफलता के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। विभाजन के दर्द से उबर रही पीढ़ी को मरहम पर ज्यादा यकीन था। इसी तरह मुसलिम अधिकारों की बात करने वाली मुसलिम लीग भी राष्ट्रीय राजनीति में कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई। हां, आजादी से पहले ही गठित हो जाने वाला शिरोमणि अकाली दल पंजाब में सत्ता तक 1967 में ही पहुंच गया।

मगर जातीय राजनीति करने वाले दल तेजी से सफल हुए। सफलता की सीढ़ी चढ़ने वालों में दक्षिण में द्रविड़ राजनीति करने वालों ने पहले बाजी मारी। इसके पीछे ई पेरियार जैसे महानुभावों द्वारा समाज में पिछड़े माने जाने वाले तबकों में पैदा की गई जागृति मुख्य कारण थी। निकोलस ड्रिक्स की पुस्तक ‘कास्ट्स ऑफ माइंड: कॉलोनियलिज्म एंड द मेकिंग मॉडर्न इंडिया’ के अनुसार द्रविड़ समुदाय में चेतना भरने के लिए पेरियार ने 1944 में ‘द्रविडार कड़गम’ बनाकर आत्मसम्मान आंदोलन या यों कहें कि स्वाभिमान आंदोलन शुरू किया था। यह सिर्फ एक सामाजिक आंदोलन था, न कि कोई राजनीतिक पार्टी। इसी तरह गेल ओमवेद्त अपनी पुस्तक ‘दलित विजन्स: द एंटी कास्ट मूवमेंट एंड द कंस्ट्रक्शन ऑन एन इंडियन आइडेंटिटी’ में लिखते हैं कि इंडियन नेशनल कांग्रेस से जुड़े तमिल सुधारक ई.वी। रामासामी नायक्कर ने 1919 में सबसे पहले कांग्रेस के ब्राह्मणवादी नेतृत्व का खुला विरोध किया था। पेरियार भी तमिलनाडु में द्रविड़ों को निचले दर्जे पर रखने और ब्राह्मण वर्चस्व के विरोधी थे।

मार्गरेट रोस बर्नेट की पुस्तक ‘प्रीहिस्टरी एंड हिस्टरी ऑफ द डी.एम.के.’, जिसकी विस्तृत समीक्षा 1977 में पत्रकार एन। राम ने की थी, में द्रमुक के गठन की वजह पेरियार की दूसरी शादी बताई गई है। 1949 में 72 वर्षीय पेरियार ने अपनी ही पार्टी की नेता 31 वर्षीय मणियामयी से शादी कर ली। पहले यह समझा जा रहा था कि उनके भतीजे ई.वी.के। संपथ पेरियार की विरासत के हकदार हैं, मगर शादी कर पेरियार ने अपनी विरासत मणियामयी को सौंप दी। इससे नाराज होकर उनके अनेक अनुयायियों ने द्रविडार कड़गम छोड़कर सी.एन। अन्नादुरई के नेतृत्व में द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (डी.एम.के.) नाम से अलग पार्टी बना ली। पार्टी ने राज्य में हिंदी विरोधी आंदोलन कर तमिलनाडु के लोगों पर पकड़ बनाई। इसका नतीजा यह हुआ कि 1967 में मद्रास प्रोविंस में द्रमुक की सरकार बन गई। अन्नादुरई के बाद एम। करुणानिधि के नेतृत्व में पार्टी लगातार मजबूत होती गई। प्रसिद्ध अभिनेता एम.जी। रामचंद्रन भी पार्टी से जुड़ गए, मगर 1972 में करुणानिधि से टकराव के बाद एम.जी.आर। ने ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (अन्नाद्रमुक) नाम से अलग पार्टी बना ली। उसके बाद राज्य की सत्ता इन दोनों दलों के बीच ही उलट-पलट होती रही।

कांग्रेस के बाद अकाली दल देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी है। इसका गठन 14 दिसंबर, 1920 में हुआ था। इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य सिखों को एक राजनीतिक आवाज के रूप में बुलंद कर पंथक राजनीति करना था। आजादी के बाद 1950 में पार्टी ने संत फतेह सिंह के नेतृत्व में ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’ शुरू कि5या। पार्टी की मांग थी कि पंजाबी बोलने वालों के लिए अलग राज्य होना चाहिए। 1 नवंबर, 1966 को पंजाबी भाषी बाहुल्य अलग राज्य पंजाब बना दिया गया। इसके बाद 1967 में हुए विधानसभा चुनाव में ही अकाली दल सत्ता में आ गया। हालांकि पार्टी के बड़े नेताओं में सत्ता पर कब्जे को लेकर झगड़ा शुरू हो गया और पार्टी दो हिस्सों में टूट गई। सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। बाद में अकाली दल की विरासत को प्रकाश सिंह बादल ने शिरोमणि अकाली दल बनाकर आगे बढ़ाया।

कहने को कुछ भी कहें, धर्मनिरपेक्षता के तमगे के साथ सही, राष्ट्रीय स्तर पर धर्म की राजनीति का सबसे सफल उदाहरण भारतीय जनता पार्टी है। इसके लिए उसने जनसंघ की स्थापना से लेकर जनता पार्टी से होते हुए भारतीय जनता पार्टी बनने तक लंबा सफर तय किया है। चूंकि पुस्तक क्षेत्रीय दलों की भूमिका पर केंद्रित है, इसलिए हम इसके बहुत विस्तार में नहीं जा रहे। क्षेत्रीय दलों में धर्म की राजनीति में सफल रहने वाली पार्टियों में शिवसेना का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। बाल ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना महाराष्ट्र में एक बड़ी ताकत बनकर उभरी। पार्टी ने हिंदू अधिकारों को मुद्दा बनाकर अपना राजनीतिक आधार मजबूत किया।

इसी तरह ए.आई.एम.आई.एम। के असदुद्दीन ओवैसी मुसलिम समाज की राजनीति का एक सफल होता चेहरा बनकर उभरे। वैसे तो ए.आई.एम.आई.एम। यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन की जड़ें काफी पुरानी हैं। 1927 में मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन (एम.आई.एम.) की स्थापना हैदराबाद स्टेट के किलेदार नवाब महमूद नवाज खान ने हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान की सलाह पर की थी। 12 नवंबर, 1927 को पार्टी की पहली बैठक हुई थी। पार्टी ने हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध किया और 1948 में एम.आई.एम। को प्रतिबंधित कर दिया गया। पार्टी नेता कासिम रिजवी ने हैदराबाद के विलय के विरोध में करीब डेढ़ लाख रजाकार यानी लड़ाके इकट्ठे कर लिये थे। कासिम रिजवी को गिरफ्तार कर 1948 में जेल में डाल दिया गया और 1957 में उसे इस शर्त पर छोड़ा गया कि वह पाकिस्तान चला जाएगा। पाकिस्तान ने उसे राजनीतिक शरण दे दी थी। रिजवी ने पाकिस्तान जाने से पहले एम.आई.एम। की जिम्मेदारी एक वकील अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंप दी। अब्दुल वाहिद ओवैसी ने इसका नाम बदलकर ए.आई.एम.आई.एम। यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन कर दिया। अब्दुल वाहिआद के बाद 1975 में उनके बेटे सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने ए.आई.एम.आई.एम। की कमान संभाली। उन्हें विधानसभा चुनाव में पत्थर घाटी और चारमीनार में सफलता मिली, बाद में याकूतपुरा से जीते। 1984 से 2004 तक वे हैदराबाद सीट से लगातार जीतते रहे। वर्ष 2008 में सुल्तान सलाहुद्दीन के बेटे असदुद्दीन ओवैसी ने पार्टी की कमान संभाली। उसके बाद पार्टी ने आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में भी अपना जनाधार बढ़ाया। बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी उम्मीदवार उतारे। बिहार में उसे समुचित सफलता भी मिली। 21वीं सदी के दूसरे दशक में पार्टी मुसलिमों के बीच तेजी से अपना जनाधार बढ़ा रही है।

दूसरी ओर हिंदू महासभा, करपात्री महाराज की अखिल भारतीय रामराज्य परिषद, बाबा जयगुरुदेव की दूरदर्शी पार्टी, हिंदू स्वराज संगठन, आजाद हिंदू फौज (राजकीय), अखिल भारतीय हिंदू शक्ति दल, जय मां काली निकगरानी समिति, सतयुग पार्टी, मध्य प्रदेश की सर्वधर्म पार्टी, हिंदू प्रजा पार्टी जैसी कई पार्टियां धर्म के नाम पर मैदान में कूदीं, मगर सफल नहीं हुईं।

मुसलिम अधिकारों की राजनीति की बात करने वाली इंडियन मुसलिम लीग भी भारत में सफल नहीं हुई। माफियाओं ने भी खुद को राजनीतिक ताकत बनाने के लिए धर्म की आड़ लेकर राजनीतिक पार्टियां खड़ी कीं। इनमें मुंबई के डॉन कहे जाते माफिया सरगना हाजी मस्तान का नाम लिया जा सकता है। हाजी मस्तान ने 1983 में मुसलिम अधिकारों की बात करते हुए ‘भारतीय माइनॉरिटीज सुरक्षा महासंघ’ बनाया। 1994 में अपनी मौत तक हाजी मस्तान ही पार्टी अध्यक्ष रहा। हालांकि इस पार्टी को कोई सफलता नहीं मिली।

दूसरी ओर जाति और समुदाय की राजनीति करने वाली पार्टियों में कई सफल उदाहरण हैं। जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं तो इसने पिछड़ा वर्ग मानी गई जातियों में बड़ा ध्रुवीकरण किया और कई राजनीतिक दल सामने आए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव यादवों के बड़े नेता बनकर उभरे। नीतीश कुमार कुर्मियों के नेता बने। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड की सफलता की गाथा किसी से छुपी नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में चौधरी चरण सिंह और देवीलाल, जो किसान राजनीति करते रहे, वह असल में जाट समुदाय की ही राजनीति थी। लोकदल के नेता के रूप में चौधरी चरण सिंह इस देश के प्रधानमंत्री बने और बाद में देवीलाल भी उप-प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे। कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी पूरे उत्तर भारत में दलित राजनीति का एक प्रमुख चेहरा बनी। दक्षिण में सिर्फ द्रमुक और अन्नाद्रमुक ही नहीं, एस। रामदौस की पट्टली मक्कल काची (एस। रामदास) की राजनीतिक जमीन भी दक्षिण के पिछड़ा वर्ग समझे जानेवाले वनियार समुदाय को जोड़कर तैयार की गई।

तमिलनाडु में वनियार समुदाय की आबादी करीब 10 फीसद मानी जाती है। इनमें चिंगलपट, उत्तरी अरकोट, दक्षिण अरकोट और सलेम जिलों में तो इनकी आबादी 25 फीसद तक है। परंपरागत तौर पर अधिकांश वनियार खेतिहर मजदूर थे, मगर राजनीतिक चेतना बढ़ने के बाद करीब आधी जमीन के मालिक बन चुके हैं। वनियार समुदाय में राजनीतिक जागृति लाने वालों में एस.एस। रामासामी पदायची और एस। रामदोस का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

1951 में रामासामी पदायची ने दक्षिण अरकोट और सलेम के वनियारों को एकजुट कर ‘तमिलनाडु टोइलर्स पार्टी’ बनाई। उसी समय उत्तरी अरकोट और चेंगलपट्टू के वनियार समुदाय को अपने साथ जोड़कर वकील एम.ए। मनिकवेलु नैकर ने ‘कॉमन वेल पार्टी’ बनाई। 1952 में पहले ही लोकसभा चुनाव में टोइलर्स पार्टी ने चार सीटें जीतीं। सत्तर के दशक के अंत में एस। रामदोस ने ‘वनियार संगम’ बनाया और 1987 में इस संगम ने वनियार आरक्षण की मांग को लेकर तमिलनाडु में प्रदर्शन किया। इसमें दलितों के 1400 से ज्यादा घर जला दिए गए। इसके बाद 1989 में मुख्यमंत्री बने द्रमुक के.एम। करुणानिधि ने अति पिछड़े समुदाय को 20 फीसद आरक्षण देने का प्रावधान किया। इस सफलता से उत्साहित एस। रामदोस ने 16 जुलाई, 1989 को ‘पट्टली मक्कल काची’ नाम से नई पार्टी बना ली।

तमिलनाडु के वनियार की तरह ही कर्नाटक में वोक्कालिगा समुदाय को बड़ी राजनीतिक ताकत माना जाता है। कांग्रेस हो या भाजपा, सत्ता की सीढ़ी इसी समुदाय के समर्थन से होकर जाती है। एच.डी। देवगौड़ा, येदियुरप्पा अपनी सामुदायिक राजनीतिक ताकत के दम पर ही राज्य के मुख्यमंत्री बने। देवगौड़ा तो प्रधानमंत्री भी रहे।

जातीय राजनीति का रूप पंजाब में भी उतना ही मजबूत दिखता है। जहां जट सिख का राजनीति पर पूरी तरह दबदबा है। सरकार चाहे कांग्रेस की रहे या अकाली दल की, अधिकांश मुख्यमंत्री जट सिख समुदाय से ही रहा है। इसी तरह हरियाणा में यह कहावत बहुत मशहूर है कि मुख्यमंत्री तो जाट ही होगा। हरियाणा की राजनीति में तीन लाल मशहूर हुए और इनमें दो देवीलाल और बंसीलाल जाट समुदाय से थे, जबकि भजन लाल, बिश्नोई या यों कहें कि गैर-जाट। यह बात दूसरी है कि पिछले दो कार्यकाल से मनोहर लाल खट्टर ने सत्ता पर अपनी खाट बिछा रखी है।

राज्यों की राजनीति में धर्म और जाति की राजनीति का इधर बोलबाला बढ़ा है, खासतौर से उत्तर बिहार में। उत्तर प्रदेश, जहां पहले मुसलमानों को लेकर ही ज्यादा पार्टियां बनने का दौर रहा, वहां अब छोटी-छोटी जातियों के भी नेताओं ने अपने दलों की घोषणा करने में कोई कोताही नहीं की। अल्पसंख्यकों के लिए पीस पार्टी जैसे दल बने तो निषादों के लिए निषाद पार्टी और राजभरों के लिए ओ.पी। राजभर ने अलग पार्टी बना ली। राजभरों के लिए तो यू.पी। में दो दल बन गए। कुर्मी और भूमिहारों के लिए अलग कोशिशें हुईं। उत्तर प्रदेश के चुनावों में अकेले भले ही इनकी भूमिका ज्यादा नजर नहीं आती, पर प्रमुख दलों के साथ गठजोड़ की स्थिति इनकी बेहतर ही है।

दलित राजनीति भी देश में खूब हुई। असम में ‘यूनाइटेड माइनॉरिटीज फ्रंट असम’ बना। अनेक छोटे दल भी बने। इनमें शोषित समाज दल, भरिपा बहुजन महासंघ जैसी पार्टियां शामिल हैं, मगर ये अपनी कोई छाप छोड़ने में विफल रहीं। आने वाले दिनों की राजनीति का आकलन करने वालों का मानना रहा है कि लगभग हर राज्य में विभिन्न जातियों और धर्मों के छोटे-छोटे समूह अपना दबाव बढ़ाएंगे और जरूरत पड़ी तो नए दल भी उभरकर अपनी मांग को और तेज करेंगे।

(लेखक चार दशकों से अधिक से समय से सक्रिय पत्रकार हैं। आलेख प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक “सेंसेक्स क्षेत्रीय दलों का: भारतीय राजनीति की दिशा बदलने वाली रीजनल पार्टियों का लेखा-जोखा” से साभार)


 

यह मेरा पूरा नाम नहीं…

अकु श्रीवास्तव, देखने में पूरा पर यह पूरा नाम नहीं। मां- बाप ने  अवधेश कुमार श्रीवास्तव नाम दिया लेकिन दोस्तों ने अकु कर दिया। किशोरावस्था से ही मन को छू जाने वाले प्रसंगों या मनोभावों ने जब-जब कुरेदा, उसकी अभिव्यक्ति कविता, लघु कथा और कहानी इत्यादि में करते-करते रुझान अखबार की तरफ मुड़ा। बिना किसी तयशुदा पत्रकारिता डिप्लोमा या डिग्री लिए। औपचारिक डिग्री लेते-लेते 1979 से ही अखबार में नौकरी शुरू हो गई। अखबारी जूनून इतना कि किसी और क्षेत्र में कहीं और कभी भी आवेदन नहीं भरा। डेस्क और रिपोर्टिंग पर लगातार काम करने के दौरान जब अपना शहर (लखनऊ) छोडऩे के हालात हुए तो संस्थानों के बदलने के सिलसिले भी शुरू हुए। देश के नामी- गिरामी अखबार समूहों टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, हिंदुस्तान टाइम्स और दैनिक जागरण समूहों मे काम करते सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ते-बढ़ते ढ़ाई दशकों से अधिक समय से संपादक के रूप में काम कर रहे हैं। कादम्बिनी का भी कुछ समय तक सम्पादन किया। उत्तर, पूर्व और पश्चिम के कई राज्यों के सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य को गहरे तक देखने, जानने समझने का इस अरसे में मौका मिला। प्रिंट मीडिया के अतिरिक्त विभिन्न इलैक्ट्रोनिक चैनलों मे बतौर विशेषज्ञ एक जाना पहचाना चेहरा। संतुलित तरीके से तटस्थ भाव से अपना पक्ष रखना ही ध्येय। संप्रति: उत्तर भारत के प्रमुख अखबार समूह पंजाब केसरी (जांलधर ) के साथ दिल्ली में 2013 से लगातार। नवोदय टाइम्स में कार्यकारी संपादक। कर्तव्य पालन की चुनौतियों और अखबारी व्यस्तताओं के बावजूद कुछ समाज को वापस करने की दिशा में छोटी- मोटी पहल भी।