गिद्धों को पुनर्जीवन देगी सरकार

#shivcharanchauhanशिवचरण चौहान।

लगभग विलुप्त हो चुके गिद्ध पक्षियों को बचाने के लिए सरकार ने फिर प्रयास शुरू किए हैं। गिद्धों में जटायु गिद्धों के संरक्षण और संवर्धन के लिए केंद्र सरकार ने एक करोड़ 86 लाख रूपये का बजट आवंटित किया है। उत्तर प्रदेश सरकार महाराजगंज जिले में भरीवैसी में जटायु संरक्षण और संवर्धन केंद्र खोलेगी। मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी और उत्तर प्रदेश सरकार के सहयोग से गिद्धों की एक प्रजाति रेड हेडेड वल्चर (राजगिद्ध) जिसे जटायु कहां जाता है को पुनर्जीवन दिया जाएगा। 5 हेक्टेयर वन क्षेत्र में राजगिद्ध के चालीस जोड़े छोड़े जाएंगे जिससे गिद्धों के वंश में विकास होगा। 15 साल तक चलने वाली इस योजना की निगरानी वैज्ञानिक करेंगे। केंद्र सरकार राजस्थान में केवलादेव घना, हरियाणा में हिसार सहित 9 प्रदेशों में पर्यावरण हितैषी पक्षी गिद्धों के पुनर्जीवन के लिए अभियान चला रही है।

वैज्ञानिकों की चेतावनी

प्रकृति के सफाई कर्मी कहे जाने वाले गिद्ध भारत में 1990 के पहले से ही लुप्त पक्षियों की श्रेणी में आ गए थे। तब वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि यदि गिद्ध नहीं बचे तो मनुष्य का जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा। भारत सरकार ने हरियाणा महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश सहित नौ प्रदेशों में गिद्धों की नस्ल को बचाने के लिए योजनाएं शुरू की थी। तब भी मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी और सरकार के बीच समझौता हुआ था। महाराष्ट्र, हरियाणा में गिद्ध संवर्धन केंद्र कॉलेज खोले गए थे। उत्तर प्रदेश सरकार ने चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय कानपुर और लखनऊ क्षेत्र के गोमती के कुकरैल नाले के जंगलों में गिद्धों के विकास के लिए प्रयोगशालायें  शुरू की गई थीं। तब जीव वैज्ञानिकों ने कहा था कि वह परखनली से गिद्धों के अंडे विकसित करेंगे और इस तरह भारत भर में एक बार फिर गिद्ध पर्याप्त मात्रा में आ जाएंगे। लगभग 25 साल के बाद कोई परिणाम नहीं आया और सारा सरकारी धन डूब गया। परखनली विधि से गिद्धों का ना तो संरक्षण हो पाया और ना गिद्धों के वंश में वृद्धि हुई। कृत्रिम वंश वृद्धि की सारी योजनाएं फेल हो जाने के बाद सरकार ने 2022 में अब फिर जटायु गिद्ध संरक्षण और संवर्धन योजना शुरू की है। अभी तक भारत भर में करीब 700 गिद्ध देखे गए हैं।

रामायण सर्किट से जुड़ेगा जटायु सर्किट

रामायण में जटायु गिद्ध की महत्ता को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार रामायण सर्किट के साथ जटायु सर्किट को भी जोड़ना चाहती है इसीलिए जटायु संरक्षण और संवर्धन केंद्र खोला जा रहा है। ताकि लोग जान सके कि जटायु गिद्ध कैसे होते हैं!

बिगड़ी जलवायु को बचाने के लिए गिद्ध पक्षी की बहुत आवश्यकता है इसलिए सरकार ने वन विभाग और जीव वैज्ञानिकों के साथ मिलकर गिद्धों के पुनर्जीवन के प्रयास प्रारंभ किए हैं।

गिद्धों का विलुप्त होना आज भी रहस्य

गिद्ध पक्षी क्यों विलुप्त हुए यह आज भी रहस्य है? पर्यावरण संरक्षण में गिद्धों की प्रमुख भूमिका रही है। गांव और शहरों के आसपास बस्तियों में मृत जानवरों की लाश को, गंदगी को खाकर गिद्ध अपना पेट पालते हैं और इस तरह हो मनुष्यों को गंभीर बीमारियों से बचा लेते हैं। दुनिया भर में गिद्धों की अठारह जातियां, प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें नौ प्रकार की जातियों के गिद्ध भारत में पाए जाते थे, जिनमें अधिकांश विलुप्त हो चुके हैं।

जब गिद्ध विलुप्त होने लगे और गांवों में जानवरों के शव सड़कर सड़ांध फैलाने लगे तो गांव वालों को चिंता हुई कि आखिर कुछ ही मिनटों में जानवर के शव के पास गिद्धों के जो झुंड आ जाते थे, वे अब क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? एक गांव से दूसरे गांव- गांव से शहर- शहर से प्रांत- और प्रांत से पूरे देश में गिद्धों के बारे में चर्चा होने लगी कि आखिर घोंसले खाली छोड़कर गिद्ध कहां चले गए? मीडिया व सरकार ने गिद्धों के बारे में उठी चर्चा को गंभीरता से नहीं लिया, किंतु वैज्ञानिकों व कृषि वैज्ञानिकों ने इस पर अध्ययन किया और चेतावनी दी कि अगर दुनिया से गिद्ध गायब हो गए, तो पृथ्वी का पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ जाएगा। यह चिंता तब और बढ़ गई, जब 18 से 20 सितंबर 2000 तक दिल्ली में विश्व के कई देशों के प्रमुख वैज्ञानिक एकत्र हुए और उन्होंने विश्व में गिद्धों की गिरती हुई संख्या पर चिंता प्रकट की। भारत की ही तरह अन्य देशों के वैज्ञानिक भी आज तक यह नहीं जान सके थे कि गिद्ध मरे या गायब हुए तो क्यों? कुछ वैज्ञानिकों की राय थी कि जब से खेतों में किसानों ने कीड़ों को मारने के लिए कीटनाशक दवाओं का प्रयोग बढ़ाया है, कीटनाशक ने दवाएं फसलों में मिलकर पशुओं के शरीर में गई हैं। जब ये पशु मरे और उनके मांस को गिद्धों ने खाया तो सड़ा-गला मांस हजम कर जाने वाले गिद्ध इन कीटनाशक दवाओं को न पचा सके और अकाल मौत मर गए। भैंस और गाय का दूध निकालने के लिए लगाया जाने वाला इंजेक्शनआक्सीटोसिन बहुत खतरनाक है और इसी कारण इन जानवरों का मांस खाकर गिद्ध असमय मर गए।

कुछ वैज्ञानिकों ने आशंका प्रकट की कि गिद्ध ऊंचे आसमान में उड़ने वाला पक्षी है। यह तीस हजार फुट की ऊंचाई तक उड़ सकता है। गिद्धों के टकराने से ही विमान दुर्घटनाएं ज्यादा होती हैं, इसलिए कुछ वायुयान कंपनियों ने आसमान में ऐसी गैसें छोड़ीं, जिन्होंने गिद्धों को सफाया कर दिया। कुछ का मानना था कि वन विनाश और पीपल,बरगद, सेमल के ऊंचे वृक्ष न रह जाने से गिद्धों का  पलायन हो गया है।

गिद्धों की रहस्यमय बीमारी

वैज्ञानिकों का मानना था कि यदि गिद्ध नहीं बचे तो मनुष्यों का जीवन भी सुरक्षित नहीं रह जाएगा। कुछ साल पहले कानपुर में चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय में गिद्धों के विलुप्त होने और उन्हें बचाने के लिए प्रमुख वैज्ञानिकों का सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन प्रमुख वन संरक्षक डॉ. रामलखन सिंह ने बताया था कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा,महाराष्ट्र सहित भारत में प्रायः सभी स्थानों से गिद्ध गायब हो गए हैं। करीब 99 प्रतिशत गिद्धों की संपूर्ण प्रजातियां ही नष्ट हो गई हैं। इस चिंता के ही तहत अलीगढ़ विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञानु शोध विभाग के वैज्ञानिकों की मदद से कुकरैल लखनऊ व रानीखेत के जंगलों में गिद्धों के संरक्षण के लिए केंद्र खोले जा रहे हैं, जहां गिद्धों की लुप्तप्राय प्रजातियों को फिर से विकसित किया जाऐगा। चिड़ियाघरों को भी शोध केंद्र बनाया जा रहा है। इधर बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के जीव वैज्ञानिक डॉ विभुकुमार ने कहा था कि अगर उन्हें ढाई दर्जन (कम से कम 25) गिद्ध मिल जाएं, तो वे गिद्धों की रहस्यमय बीमारी का पता लगा सकते हैं। उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने तमाम विरोधों के बावजूद करीब 25 बीमार गिद्ध पकड़कर डॉ विभु प्रकाश को देने का निर्णय किया था। पहली नवंबर 2000 से मार्च 2001 तक देहरादून, हरिद्वार, बुलंदशहर, अलीगढ़, आगरा, मथुरा, इटावा, कानपुर, लखनऊ, गोरखपुर, वाराणसी, बांदा, झांसी आदि जिलों से बीमार गिद्ध पकड़कर मुंबई भेजे गए और वहां वैज्ञानिक इन गिद्धों पर प्रयोग कर इस बात का पता लगाया कि गिद्धों को कौन-सी बीमारी लगी है और उसका इलाज क्या है।

वैज्ञानिकों ने गिद्धों की रहस्यमय बीमारी का वायरस वायरस खोजने का प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिली।

कुछ लोगों का कहना था कि अरब देशों तथा पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार से गिद्धों की मांग आने के चलते शिकारियों ने गिद्धों की तस्करी शुरू की। इसी कारण आज भारत, रूस, कजाखिस्तान, कनाडा, मंगोलिया और नेपाल से गिद्ध लगभग लुप्त हो गए हैं। राजस्थान के भरतपुर स्थित घाना पक्षी विहार, मध्य प्रदेश के उज्जैन, इंदौर, राजस्थान के बाड़मेर और दिल्ली आदि के जंगल जहां गिद्धों से पटे पड़े रहते थे और आसमान में बादलों के साथ-साथ गिद्धों के झुंड उड़ा करते थे, वहां अब आसमान में एक भी गिद्ध नहीं दिखाई देता है। भारत में गौरवशाली (अरगुल, लेमरीगर), हिमालयन ग्रिफर यानी पहाड़ी गिद्ध, सिनेरिया वल्चर यानी काला गिद्ध, वाइटवेक्ट वल्वर यानी चमर गिद्ध, लांगबिल्ड वल्चर यानी महागिद्ध (छोटा) और किंग रेड वल्चर यानी राजगिद्ध सहित नौ प्रजातियां पाई जाती थीं।

पांच सौ किमी. प्रति घंटे रफ्तार से उड़ान

गिद्ध की उड़ान और उसकी दृष्टि बहुत तेज होती है। वे मीलों दूर दे देख लेते हैं तथा पांच सौ किलोमीटर प्रति घंटे तक की तेज उड़ान भी भर सकते हैं। घंटों बिना पंख फड़फड़ाए वे आसमान में उड़ते रह सकते हैं। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र दिल्ली तथा बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के वैज्ञानिकों का मानना है कि सरकार व जनता के सहयोग के बिना गिद्ध जैसा पर्यावरण संरक्षक पक्षी पुनः भारतभूमि में विचरण नहीं कर सकता है।

सारस के बाद गिद्ध ही भारत का सबसे बड़ा पक्षी है और यह मृत पशुओं के मांस को खाकर ही जीवित रहता है। मनुष्य जाति के लिए गिद्ध बेहद उपयोगी पक्षी है। अभी कुछ साल पहले तक किसी पशु के मरने के थोड़ी ही देर बाद सैकड़ों की संख्या में गिद्ध न जाने कैसे आ जाते थे। इतनी तीव्रगामी सूचना तकनीक तो पुलिस व सुरक्षाकर्मियों के पास भी नहीं है। दूर-दूर से आए सैकड़ों गिद्ध घंटे भर में मृत पशु का मांस चट कर फिर उड़ जाते थे। इस कारण गांवों व बस्तियों में बीमारियों का प्रकोप नहीं होता था।

फैल्कनीफार्मिस जैविक नाम के ये पक्षी एसिपीटाइडी जाति में आते हैं। गिद्ध तेज नज़रों वाला शिकारी जाति का ही पक्षी है, किंतु पंजे मजबूत न होने के कारण यह छोटे जीवों का शिकार करके जीवित रहने के बजाय मृत जानवरों का मांस खाकर अपना जीवन यापन करता है।

पहले राज गिद्ध लगाता है मृत पशु के मांस का भोग

भारत में मौजूद कुल नौ गिद्ध प्रजातियों में काले रंग का चमर गिद्ध पूरे देश में पाया जाता था । यह करीब साढ़े तीन फीट लंबा तथा भारी- भरकम शरीर वाला होता है। सिर गंजा व गर्दन लंबी होती है। चोंच मुड़ी हुई होती है, सिर व पीठ पर भूरा व सफेद धब्बा होता है जबकि राज गिद्ध की गर्दन लाल रंग की होती है तथा इसके पंखों के नीचे सफेद रंग के रोए होते हैं। मृत पशु के मांस का भोग पहले राज गिद्ध लगाता है, इसके बाद ही अन्य पक्षी उसे खाना शुरू करते हैं। किंग बल्चर के पैर, पंजे व सिर भी सिंदूरी रंग का होता है तथा दोनों कानों के पास गलफर में थैलियां जैसी लटकी होती हैं। चमर गिद्ध गांव या बस्ती के बाहर पीपल, बरगद, शीशम, सेमल और कैथे के ऊंचे वृक्षों पर अपना घोसला बनाता है। मादा साल में एक बार अक्तूबर से मार्च तक किसी भी समय एक अंडा ही देती हैं। बच्चे के देखभाल का काम नर-मादा दोनों करते हैं। राज गिद्ध की मादा का प्रजनन काल दिसंबर से अप्रैल तक होता है। कहते हैं कि मादा गिद्ध एक बार में एक ही अंडा देती है। एक बार दिए गए अंडे से नर व दूसरी बार के अंडे से मादा बच्चा निकलता है, जो बाद में जोड़ा बना लेते हैं। गोबर गिद्ध यानी हवाइट स्केवेंजर वल्चर राजस्थान में ज्यादा पाया जाता है। यह सफेद रंग का भद्दा-सा पक्षी है। इसे ढीक या ढोकड़ा के नाम से भी जाना जाता है। यह गिद्धों में छोटा, किंतु चील से थोड़ा बड़ा होता है। मरे जानवरों के मांस के अलावा यह गोबर तथा मनुष्य का मल भी खाता है। करीब दो फुट लंबे इस पक्षी का रंग मटमैला सफेद,चोंच पीली तना पैरों का रंग प्याजी होता है। अक्सर यह अकेला ही दिखाई देता है। यह गिद्ध अब भी कहीं-कहीं दिखाई दे जाता है। इसका घोंसला सूखी टहनियों, फटे कपड़ों, चिथड़ों, बालों वगैरह से बना होता है। मादा जाड़े में अंडे देती है, जो हल्के पीले होते हैं। पहाड़ी व समुद्री गिद्ध भी पर्यावरण के लिए उपयोगी हैं। राष्ट्रीय अभयारण्यों में अब गिद्ध प्रायः नहीं रह गए हैं। उनके घोंसले खाली पड़े हैं। गिद्ध हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने में बहुत सहायक हैं, इनका विलुप्त होना देश के लिए हानिकारक व चिंता का विषय है।

(लेखक लोक संस्कृति, लोक जीवन और साहित्य व समाज से जुड़े विषयों के शोधार्थी हैं)