सत्यदेव त्रिपाठी।
चेन्नई सुपर किंग्स (सीएसके) ने अगले आइपीएल के लिए भी महेंद्र सिंह धोनी को कप्तान बना दिया है। ज़ाहिर है कि प्रमुदित होंगे दोनों… इतने दिनों से एक दूजे के लिए बने जो हैं। यही है दोनों के अपने-अपने सुख– पाने के, देने के। लेकिन जाने-अनजाने इन दोनों के ये सुख एक बड़े दुख का सबब बनने वाले हैं– हार का दुख। माना कि धोनी बहुत बड़े खिलाड़ी और बहुत सफल कप्तान रहे हैं। कोई ऐसी क्रिकेट-प्रतियोगिता न होगी, जिसमें धोनी रहे हों और जो धोनी की अगुवाई ने देश के लिए जीती न हो। चार बार सीएसके को भी विजेता बना चुके हैं… इस प्रकार सीएसके व माही दोनों के दस्तावेज स्वर्णाक्षरी हैं।
फिर वही इतिहास
लेकिन हमारे पुराणों में एक ऐसा दस्तावेज भी दर्ज़ है, जो किसी धोनी व सीएसके से हज़ार गुना बड़ा है– ‘पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान। भिल्लन लूटी गोपिका, वहि अर्जुन वहि बान।‘ और कोई अंधा-बहरा भी कहेगा कि समय आज धोनी का नहीं है– समय यानी उम्र। क्रिकेट बड़ा दम-खम माँगता है, जो इस उम्र के लिए सम्भव नहीं। यह बात सीएसके को भी मालूम है और धोनी को भी, वरना पिछली बार रवींद्र जडेजा को कमान क्यों सौंपते? शुरू के छह-सात मैच हारने के बाद फिर धोनी को कप्तानी सौंपना उस बार मजबूरी थी। स्थितियों का तक़ाज़ा था। क्योंकि टीम तय हो गयी थी। मुक़ाबला आधे से ज्यादा बीत चुका था। उसी टीम में से किसी को लेने की विवशता थी। लेकिन ध्यान दें कि धोनी की कप्तानी से भी बहुत परिवर्तन नहीं आये। बुरी तरह हुई सीएसके की हार- सबको पता है। फिर साल भर में यही सोचा टीम-प्रबंधन ने– आश्चर्य है! फिर वही इतिहास दुहराना कहाँ की बुद्धिमानी है?
नक़्शा बनाने से इमारत नहीं बनती
शायद सीएसके को धोनी के बाहु-बल का भले कम हो, लेकिन बुद्धिबल का भरोसा ज्यादा होगा। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनके क्रिकेट के दिमाग या दिमागी क्रिकेट के क़ायल सभी हैं। पूरा विश्व है। और वह अभी उतना ही कारगर हो सकता है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि नक़्शा बनाने से इमारत नहीं बनती, उसमें कारीगर के हस्त-कौशल व मज़दूरों की मेहनत का योगदान निर्णायक होता है। इसीलिए तो जब कप्तानी करते हुए धोनी अचानक अपने को प्रोन्नत करके युवराज से पहले आने का फ़ैसला कर लेते, तो विश्वकप का निर्णायक (फ़ाइनल) मैच जीत भी जाते… यह था दिमाग के साथ शरीर का संतुलन। लेकिन अब वही धोनी अपने को किस नम्बर पर लेके जायें, की पेशोपेश में दिखते रहते हैं। तब तो कभी पेवेलियन में बात करते-करते बल्ला उठाते और मज़बूत कदमों से बड़े-बड़े डग भरते झूमते हुए मैदान पर शेर की तरह पहुँचते– गोया छलांग लगाके आ गये हों। अब देखे जाते हैं कि दो नम्बर पहले से ही पैड पहन के बल्ला हाथ में लिए बिलकुल पीछे हवा में अभ्यास करते हुए। कुछ गम्भीर, कुछ उतलाचाली में। कुछ सहमते, कुछ इरादा मज़बूत करते… के द्वंद्व में… सब कुछ को सावधानी से जाँचते-सूंघते। कभी अपने को छठें-सातवें के नियमित नम्बर से प्रोन्नत करके पाँचवें पर जाते हैं, तो शून्य गेंदों व एक रन के बीच झूलते हुए औसत बिगाड़ डालते हैं, तो कभी आठवें-नवें पर आके फटाफट मारने की योजना को अंजाम देते हुए शून्य पर बाहर (आउट) हो जाते हैं।
इस तरह योजना पर भारी पड़ जाता है, उसे लागू न कर पाना और मज़बूत इरादे पर पानी फेर जाता है- मैदान में उसे पूरा न कर पाना। तो न यह गलती धोनी की है, न बल्ले-गेंद की। बस, बढ़ती उम्र में सुस्त हुए अंगों की है, जो प्राकृतिक है। रहीम ने कहा है–
‘कोटि जतन कोऊ करे पर न प्रकृतिहि बीच। नल बल जल ऊँचो चढ़े, अंत नीच को नीच’।
तो सीएसके प्रबंधन की सदाशयता, उम्मीदें और भरोसे तथा धोनी के मंसूबे, संधान व प्रयत्न… आदि सब मिलकर भी हारने की निश्चित उम्मीद क़ो बचा नहीं पाते।
‘दुस्साहस’
फिर यह धोनी का दुस्साहस (डेयरिंग) ही कहा जायेगा कि पिछले साल ही प्रतियोगिता के बाद पूछे जाने पर इस साल खेलने की हामी भरी थी, क्योंकि पैसे के लोभ में खेलने की बात तो धोनी जैसी शख़्सियत के लिए अब इस मुक़ाम पर उतना मायने नहीं रखती। तो शायद इनके दुस्साहसी मन व इनके प्रति प्रबंधन के अति विश्वास या अंध मोह ने ऐसा निर्णय कराया है। उक्त सारी पेशोपेश में कभी-कभार एकाध छक्का-चौका मार देने का प्रमाण भी है– एक फ़्लूक का पचासा भी लगा है। तो इसी दरकती बुनियाद पर शायद ख़ुदा मेहरबान भी हो जाये– और हम तो दुआ माँगेंगे कि हो जाये, लेकिन हम यह भी जानते हैं और इसे ख़ुदा ने ही बनाया है– ‘हिम्मते मर्दाँ, तो मद्दते ख़ुदा’। यहाँ मर्दाँ की हिम्मत तो है, पर उसकी ताक़तशक ज़रूर है। सो, दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यक़ीं कुछ कम है! हमें भी, ख़ुदा को भी।
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)