पितृ पक्ष: अब ढूंढे नहीं मिल रहे कौवे।
शिवचरण चौहान।
हिंदू पितृपक्ष में अपने पुरखों को पिंडदान करते हैं। पिंड दान के बाद ब्राह्मणों और कौवों को खाना खिलाया जाता है। पर कौवे बुलाने पर भी नहीं आ रहे हैं। इसे जलवायु परिवर्तन का खतरनाक संकेत कहें अथवा बढ़ते विकास का दुष्परिणाम। पितृपक्ष में कौवे खोजे नहीं मिल रहे हैं।
पार्वण श्राद्ध विधि के अनुसार पितृ पक्ष में कौवों में पुरखों की आत्माएं निवास करती हैं। ऐसा माना जाता है की पिंडदान के बाद कौवों को भोजन कराने से हमारे पुरखों की आत्मा तृप्त हो जाती है। इसलिए कौवों को पितृ पक्ष में खीर खिलाई जाती है। आज स्थिति बहुत खराब हो चुकी है कौवा पंछी विलुप्त होता जा रहा है।
गिद्ध के बाद कौवे भी लुप्त हो गए तो…
गिद्ध, गौरैया, सारस तथा राष्ट्रीय पक्षी मोर पर संकट के बाद अब कौवों की संख्या में भी कमी आ रही है। यदि गिद्ध मरे जानवरों का माँस खाकर सफाई कर मनुष्य जाति को तमाम रोगों व समस्याओं से बचाता था तो कौवा भी गन्दगी को साफ करने तथा पर्यावरण को स्वच्छ बनाने का कार्य करता है। किन्तु कीटनाशकों, जहरीली दवाओं, मोबाइल टावरों से निकली तरंगों के कारण के गिद्धों के बाद अब कौवे भी मर रहे हैं। ढोर-डंगरों, कुत्तों का सड़ा-गला माँस खाकर कौवों के मरने की खबरें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,बिहार, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, उड़ीसा आदि से आने लगी हैं। गिद्ध तो गए अब यदि कौवे भी लुप्त हो गए तो मरे-सड़े गले जानवरों के मांस की सफाई कौन करेगा?
भारत में हमेशा नफरत, घृणा, तिरस्कार पाने वाला कौवा पितृपक्ष में आदर सहित बुलाया जाता है। पूरे साल में आश्विन मास (कवार महीने) में एक पखवारा ऐसा भी आता है जब कौवा आदर पाता है, उसे पूजा जाता है। माना जाता है कि पितृपक्ष में कौवों के शरीर में पूर्वजों, पुरखों की आत्माएँ ‘वास’ करती हैं। हिन्दू घरों में पखवारे भर तक जब पितरों के मोक्ष के लिए श्राद्ध, तर्पण किया जाता है तो कर्कश आवाज व शरारत के कारण दुत्कारा जाने वाला कौवा आदरणीय हो जाता है। महाकवि रहीम दास का इसी सम्बन्ध में एक दोहा है-
‘मरत प्यास पिंजरा परे, सुआ समय का फेर। आदर दै दै बोलियत, वायस बलि की वेर।।’
पितृपक्ष में तर्पण के बाद बलि के लिए कौवे को बुलाया जाता है और संयोग देखिए कि हरदम घर को सिर पर उठाए रहने वाला कौवा, पितृपक्ष में खोजने पर भी नहीं मिलता है। पर इस बार जलवायु परिवर्तन के कारण कौवों के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है।
सभी दुत्कारते
हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने में अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला कौवा पितृपक्ष के दिनों को छोड़कर कभी सम्मान नहीं पाता है। सभी दुत्कारते हैं। दुनिया के किसी भी देश के साहित्य में कौवों के चरित्र को ठीक से उजागर नहीं किया गया है। कौवे को अशुभ पक्षी माना गया है। पुराणों में कथा आती है कि एक ऋषि के श्राप के कारण सफेद कौवा काला हो गया था और हर जगह दुत्कारा जाने लगा। वैज्ञानिकों ने इसकी उपयोगिता पर ठीक से अध्ययन नहीं किया।
महाकवि सूरदास- ‘काग के भाग कहा सजनी हरि हाथ से लई गयो माखन रोटी’- कहकर उससे ईर्ष्या करते हैं। आज कौवे संकट में है। सब कुछ हजमकर जाने वाला कौवा, कीटनाशक दवाओं को पचा नहीं पाया। मोबाइल टावरों से होने वाले रेडियेशन के कारण, खेतो में कीटनाशक युक्त बीज, कीड़े तथा मरे जानवरो के शरीर में मौजूद कीटनाशको के दुष्प्रभाव और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बच नहीं पाया। कौवों के अमर होने की बात थोथी साबित हो गयी है। काक भुशुंडि ताल उत्तराखंड में जाकर कौवों के मरने की खबर भी सही नहीं है।
103 प्रजातियाँ
वैज्ञानिकों के अनुसार कौवा एक चालाक व शरारती पक्षी है। कौवे का रंग काला और आवाज कर्कश होती है। यूँ तो सारे संसार में न्यूजैलण्ड को छोड़कर कौवे की 103 प्रजातियाँ पाई जाती है पर हमारे देश में मुख्यतः दो किस्म के कौवे पाए जाते हैं- 1. देशी कौवा (कोवर्स स्प्लेन्डेस), 2. जंगली कौवा (कोर्स मैक्रोरिहकोज)। देशी कौवा करीब एक फीट लम्बा होता है और इसके गले मे स्लेटी रंग की पट्टी होती है। जंगली कौवा पूरा काला होता है, यह देशी कौवे से बड़ा भी होता है। इसकी चोंच भी बड़ी होती है। संसार में पाई जाने वाली कौवे की कुछ अन्य प्रजातियाँ हैं- रावेन डोम कौवा (कोवर्स कोरैक्स), जैकड़ा (कोवर्स मोन्यूड्यूला)। अभी पिछले सालों में दो-एक देशों में सफेद कौवा (रंजकहान या एल्वीनो) के पाए जाने के भी समाचार मिले थे। भारत में कई स्थानों पर सफेद कौवे मिले हैं किन्तु प्राणिशास्त्रियों ने इन्हे कौवे की प्रजाति में अभी स्वीकार नहीं किया है। कौवे सर्वभक्षी होते हैं। अच्छी चीजों से लेकर बुरी सड़ी-गली चीजें तक इनसे नहीं बचती हैं।
दिमाग, देखने-सुनने की शक्ति
कौवों की दृष्टि व श्रवण-शक्ति बहुत तेज होती है। बुद्धि में भी कौवे किसी पक्षी से पीछे नहीं हैं। एक प्यासे कौवे की कहानी मशहूर है। एक प्यासे कौवे द्वारा एक गगरी में (घड़े में) बहुत कम पानी होने के बावजूद, गगरी में कंकड डालकर, उसे भर दिया था। जब पानी गगरी के ऊपर तक उठ आया तो कौवे ने अपनी प्यास बुझाई थी। वैसे कौवे की बुद्धिमानी के अनेक किस्से पंचतंत्र – हिदोपदेश, महाभारत, बाइबिल, रामायण तथा लोककथाओं में मिलते हैं। काकभुसुण्डि की कथा तो जग-प्रसिद्ध है। वही सारी रामकथा गरुण जी को सुनाते हैं।
कौवे का दिमाग, अन्य पक्षियों से ज्यादा तेज होता है। कौवे आदमियों की मुखाकृति की पहचान भी कर लेते है। अपने बच्चे को पकड़ने व मारने वाले व्यक्ति को कई दिनों बाद भी पहचानकर शोर मचाने लगते हैं। रूस के प्रसिद्द पक्षी विशेषज्ञ मोतये फेल ने अपनी पुस्तक ‘जीव जगत की कहानियाँ’ में लिखा है कि कौवे गणना करना भी जानते हैं। वे तीन तक गिन सकते हैं।
इतना चालाक और बुद्धिमान होने के बावजूद कोयल इन्हें मूर्ख बना देती है। वह अपने अण्डे चुपके से कौवे के घोसले मे रख जाती है। बेचारा, होशियारी का दम भरने वाला कौवा अपने तथा कोयल के अण्डों में फर्क नहीं कर पाता और कोयल के बच्चो को वह तब तक पालता रहता है, जब तक बच्चे बोलने नहीं लगते है। कौवों के जीवन का यह सर्वाधिक रहस्यपूर्ण पक्ष है जिससे उनकी बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिह्न लगता है।
कहीं शुभ, कहीं अशुभ
इंग्लैण्ड में कौवों का बोलना अशुभ माना जाता है। जबकि अफ्रीका में शुभ सूचक माना जाता है। पश्चिमी जर्मनी में कौवे को बुद्धि का प्रतीक माना गया है। भारत में वैसे तो कौवे को भादों क्वार (सितम्बर-अक्टूबर) में जब हिन्दू लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं, उन दिनों कौवों की सादर पूजा की जाती है। पूरे दो सप्ताह, कृष्ण पक्ष में उन्हें बुला-बुलाकर खिलाया जाता है। लोक-मान्यता है कि पितृपक्ष में कौवो में पूर्वजों की आत्माएँ निवास करती हैं।
ऐसी मान्यता है कि कौवे अमर होते हैं। पुराणों में ऐसी कई कथाएँ आई है, जिनमें कौवे को अमृतपायी बताया गया है। किन्तु यह धारणा सच नहीं है। हाँ कौवे की उम्र जरूर लम्बी होती है। प्रसिद्ध भारतीय पक्षीविद डॉ. सलीम अली ने अपनी पुस्तक ‘द बुक ऑफ इण्डियन बर्ड्स’ में एक कौवे की उम्र 69 वर्ष बतायी है। कई चिड़ियाघरों में जहाँ कौवे रखे गए, वहाँ भी वे 50 वर्ष से अधिक समय जीने के बाद मरे। इससे ये धारणा निर्मूल साबित हो जाती है कि ये अमर होते हैं।
विलक्षण सामाजिक संगठन, चालाक और बुद्धिमान
कौवों में सामाजिक संगठन का विलक्षण गुण मिलता है। एक कौवे को आप छेड़ दीजिए, या बच्चे को पकड़ लीजिए- पलक झपकते शहर भर के कौवे टूट पड़ेंगे और कॉव-कॉव कर आसमान सर पर उठा लेंगे। आपसी मेल-जोल व एकता की भावना कोई कौवे से सीखे।
कौवा, जासूसी में भी आगे होता है। जंगली कौवा तो बाघ द्वारा मारे गए शिकार तथा उसी के आस-पास झाड़ियों में छिपे बाघ को भी खोज निकालता है, जिससे शिकारियों को खतरे से सम्भलने का मौका मिल जाता है। कौआ, बाज पक्षी से भी लड़ जाता है।
विश्वविख्यात पक्षी विशेषज्ञ सी. एच. रोगर्स ने अपनी पुस्तक ‘पेट बर्डस’ में कौवों की बड़ी प्रशंसा की है और इन्हें पालने योग्य पक्षी माना है।
जो भी हो, कौवों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। ब्रह्म बेला में जगना, एकता और बुद्धि चातुर्य जैसे गुण तो ग्रहण किए ही जा सकते हैं। शिक्षा प्रारम्भ करने से पूर्व आज भी बच्चों को ‘काक चेष्टा… कौवे की सी लगन से पढ़ने की शिक्षा दी जाती है।
आज वही कौआ विलुप्त होता जा रहा है। पितर पक्ष में खोजे नहीं मिल रहा।
(लेखक लोक संस्कृति, लोक जीवन और साहित्य व समाज से जुड़े विषयों के शोधकर्ता हैं)