गोविन्द सिंह
हिंदी को राजभाषा बनाने के पीछे कहीं न कहीं ये हसरत भी रही है कि हम दुनिया के अलग-अलग मंचों से अपनी भाषा में बोल सकें। आजादी के तीस वर्षों तक हम ऐसा नहीं कर पाए। हमारे राजनेता और राजनयिक जहां भी जाते, अंग्रेज़ी में ही अपनी बात रखते। इससे दुनिया के सामने यही सन्देश जाता कि अंग्रेज़ी भारत की अपनी भाषा बन चुकी है। लेकिन जब वर्ष 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण दिया तब जाकर दुनिया को लगा कि भारत अपनी जुबान में भी बोल सकता है। यह भाषण शुरू में अंग्रेज़ी में लिखा गया था। जब अटलजी को यह भरोसा हो गया कि हिन्दी में भी भाषण दिया जा सकता है, तब उन्होंने हिंदी में बोलने की ठान ली। उसके बाद भारत के कुछ और विदेश मंत्रियों ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में व्याख्यान दिये तो सही, लेकिन बात उससे आगे नहीं बढ़ पायी। हर चार साल में विश्व हिन्दी सम्मेलन होते हैं, हर बार हिंदी को विश्व भाषा यानी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाये जाने की मांग उठती है, लेकिन होता कुछ नहीं।
स्वदेशी भाषा ही हो सकती है स्वाभिमान की भाषा
वर्ष 2014 के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार सत्ता में आने के बाद सरकार ने उस दिशा में गंभीरता से कदम बढ़ाने शुरू किये। वर्ष 2018 में सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को स्थान देने का प्रस्ताव रखा। इसके लिए उसने आठ लाख अमेरिकी डॉलर भी जमा करवाए। तब संयुक्त राष्ट्र ने ‘हिंदी @यूएन’ नाम से संयुक्त राष्ट्र का एक ट्विटर हैंडल भी शुरू करवाया, जिसमें संयुक्त राष्ट्र सम्बंधित तमाम जानकारियाँ हिन्दी में दी जाने लगीं। इधर गत जून महीने में भारत के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र ने अपने कामकाज में बहुभाषिकता को मंजूरी दे दी है। यूएन ने पहली बार माना है कि संयुक्त राष्ट्र के कामकाज में हिंदी व अन्य भाषाओं को बढ़ावा देने की जरूरत है। हिन्दी के साथ ही उर्दू और बांग्ला का भी इस प्रस्ताव में जिक्र आया है। यह भारत के लिए एक बड़ी कामयाबी है।
निस्संदेह आज जो कुछ दिख रहा है, उसकी भूमिका 2014 में ही बनने लगी थी। जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री (स्व.) सुषमा स्वराज सहित तमाम बड़े नेता वैश्विक मंचों पर अपनी भाषा में बोलने लगे। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश ही नहीं, यूरोप-अमेरिका, आस्ट्रेलिया, रूस, चीन और जापान, जहां भी प्रधानमंत्री गए, हिंदी का डंका भी बजता रहा। न सिर्फ द्विपक्षीय वार्ताओं में हिन्दी का व्यवहार बढ़ने लगा बल्कि सार्वजनिक समारोहों और रैलियों में भी हिन्दी में भाषण दिए जाने लगे। इन बातों से दुनिया भर में फैले भारतवंशियों में एक नया जोश दिखाई पडा। अब सरकार ने देश के तमाम राजनयिकों से कहा है कि वे अपनी हिन्दी ठीक कर लें। विदेश मंत्रालय ने बाकायदा निर्देश जारी किया है कि मंत्रालय के सभी अफसर अपनी राष्ट्र भाषा में प्रवीणता बढ़ा लें। हर अफसर को विदेश पोस्टिंग से पहले हिन्दी में दक्ष होना होगा। ताकि विदेशियों के समक्ष वे बगलें न झांकने लगें। प्रधान मंत्री के इन कदमों से न सिर्फ हिन्दी का भला हुआ है, बल्कि कूटनीति भी पटरी पर आ रही है। क्योंकि कूटनीतिक वार्ताओं में भाषा आपके देश और जनता का प्रतिनिधित्व करती है। उससे देश का सर ऊंचा होता है। देश के स्वाभिमान की भाषा कोई स्वदेशी भाषा ही हो सकती है, पराई भाषा नहीं।
कूटनीति में भाषा की अहमियत
कूटनीति में भाषा की क्या अहमियत होती है, इसे समझने के लिए दो उदाहरण काफी होंगे। आजादी के तुरंत बाद विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत बनायी गयीं। वे 17 अगस्त, 1947 को मास्को में जोजेफ स्टालिन के पास अपना अंग्रेज़ी में लिखा प्रत्यय पत्र (क्रेडेंशियल) लेकर पहुंची तो स्टालिन ने उसकी भाषा पर आपत्ति की। कहा कि इसकी भाषा न आपके देश की है और न मेरे देश की है। तब कहते हैं कि रातोरात हिन्दी में लिखा पहचान पत्र दिल्ली से मास्को भेजा गया। हालांकि रूसी अधिकारियों ने उसमें भी अनेक त्रुटियों को इंगित कर यह जता दिया कि भारत के लोग अपनी राष्ट्र भाषा की कितनी इज्जत करते हैं!
चीनी प्रधानमंत्री चाओ एन लाई ने एक बार हमारे प्रधान मंत्री पंडित नेहरू से कहा कि काश! आप अपनी भाषा में हमसे द्विपक्षीय मुद्दों पर बात कर पाते। नेहरू के पास कोई जवाब नहीं था, तो उन्हें अपनी हाजिर जवाबी का सहारा लेना पडा, ‘सबसे बड़ी भाषा तो प्रेम की होती है’। सच बात यह है कि कूटनीति में प्रेम की भाषा नहीं चलती। कूटनीति की कामयाबी इसी में है कि आप अपनी बात मनवा लें। इसके लिए शायद किसी अन्य देश की भाषा की बजाय अपनी भाषा ज्यादा मुफीद होती है। बेहतर हो कि हमारे तमाम राजनेता, मंत्री, राजनयिक और अन्य ब्यूरोक्रेट अपने सरकारी कामों में हिन्दी का प्रयोग करें और राष्ट्रीय स्वाभिमान को बढायें। यदि देश के भीतर हिंदी का मान बढ़ेगा तो विश्व-शिखर पर वह स्वतः चमकने लगेगी।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली में प्रोफेसर और डीन- अकादमिक हैं)