संतोष कुमार तिवारी।
श्री सीताराम निगम साधारण आदमियों में भी एक अतिसाधारण आदमी थे। किसी प्रकार का कोई दिखावा नहीं। कोई छलावा नहीं। किसी से ईर्ष्या नहीं। किसी से द्वेष नहीं। देश के कई बड़े नेता और पत्रकार उनको व्यक्तिगत तौर से जानते थे। इनमें इन्द्र्कुमार गुजराल, हेमवती नन्दन बहुगुणा, एच. के. दुआ, खुशवन्त सिंह, बी.जी. वर्गीज, एम. चेलापति राव, के. आर. मलकानी, आदि शामिल थे। वह बी.जी. वर्गीज की सरलता और सहजता से बहुत प्रभावित थे। एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि जब खुशवंत सिंह हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक थे, तब वह किसी अच्छी गप्प लिखने वाले को पांच रुपये देते थे। और बाद में उस गप्प का इस्तेमाल अपने साप्ताहिक अंग्रेजी कॉलम ‘विद मेलिस टूवर्डस वन एंड आल’ में करते थे।
परन्तु वह इन सभी से कोई सम्पर्क नहीं रखते थे। अपने पास वह कोई लैंडलाइन या मोबाइल फोन भी नहीं रखते थे। लखनऊ में अपने घर में जिस लकड़ी के तख्त पर वह विराजमान रहते थे, उस पर कोई चादर या गद्दा भी बिछा नहीं होता था।
मेरा उनका लगभग तीस साल का साथ रहा। मैंने उनको किसी पर कटाक्ष करते या किसी की हंसी उड़ाते कभी नहीं देखा। शायद इसका कारण यह रहा होगा कि उनको किसी से ईर्ष्या या द्वेष नहीं था। वह किसी से कोई कम्पटीशन अर्थात स्पर्धा करने के चक्कर में नहीं रहते थे। जिस व्यक्ति में कोई ईर्ष्या-द्वेष नहीं होता, उसमें अनायास ही अनेक सद्गुण आ जाते हैं। उनका मूल चरित्र था दूसरों की मदद करना।
वह उम्र में मुझसे कोई 15-17 साल बड़े होंगे। वह पत्रकार थे। हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, से रिटायर हुए थे। वहाँ रिटायरमेंट की उम्र 58 साल थी, परन्तु वह 55 साल में ही रिटायरमेंट लेकर लखनऊ में आ बसे थे।
हिन्दुस्तान टाइम्स में नौकरी करने के पहले उन्होंने कई अन्य अखबारों में भी काम किया था, जैसे कि नागपुर टाइम्स (नागपुर), ट्रिब्यून (अम्बाला), नेशनल हेरल्ड (लखनऊ), पैट्रियट (नई दिल्ली), मदरलैंड (नई दिल्ली)। उन्होंने समाचार एजेंसी यूएनआई, भोपाल, में भी काम किया था। वर्ष 1965 में एक रिपोर्टर के तौर पर उन्होंने भारत-पाकिस्तान युद्ध को अमृतसर से रिपोर्ट किया था। मेरी उनकी पहली मुलाकात तब हुई जब वह हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, में काम करते थे।
निगम साहब ने शादी नहीं की थी। वह लखनऊ के बाहरी इलाके में हरदोई रोड के निकट एक तीन कमरे का साधारण सा मकान बनवाकर रह रहे थे। मकान के अन्दर की दीवारों पर प्लास्टर था, परन्तु बाहर की दीवारों पर नहीं था। वहीं उनका 15 सितम्बर 2010 को निधन हुआ। तब उनकी उम्र कोई 77 वर्ष रही होगी।
पत्रकारिता में आने के पहले निगम साहब केन्द्र सरकार के पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग में काम करते थे।
निगम साहब 1970 के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग स्थापित किया था। तब बी.एन. भट्ट वहां के कुलपति थे। अब इस विश्वविद्यालय का नाम बदलकर हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय हो गया है। यह दु:ख की बात है कि उस विश्वविद्यालय के तत्कालीन प्रशासन ने उनके साथ बहुत दुर्व्यवहार किया और एक वर्ष बाद वह वहां की नौकरी छोड़कर हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, में आ गए।
उनके जाने के बाद गढ़वाल यूनिवर्सिटी के अगले कुलपति श्री यू. सी. घिल्डियाल ने अपने 29 मार्च 1979 को अंग्रेजी में लिखे एक पत्र में कहा कि “मैं शर्म महसूस करता हूं कि निगम साहब जैसे व्यक्ति के साथ मेरे विश्वविद्यालय ने ऐसा व्यवहार किया।“ श्री घिल्डियाल ने अपना पत्र नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट के उपाध्यक्ष श्री एस.पी. निगम को लिखा था।
हिमालय-क्षेत्र में पहले पत्रकारिता विभाग की स्थापना
1970 के दशक में श्रीनगर गढ़वाल तक जाना कोई आसान काम नहीं था। वह बहुत ही दुर्गम स्थान था। वहाँ गढ़वाल विश्वविद्यालय में निगम साहब ने जो पत्रकारिता विभाग स्थापित किया, वह पूरे हिमालय-क्षेत्र का पहला पत्रकारिता विभाग था। इस हिमालय क्षेत्र में गढ़वाल, कुमायूं, हिमाचल प्रदेश, नेपाल, तिब्बत, आदि शामिल हैं।
निगम साहब के पास पत्रकारिता और जनसंचार की तमाम अच्छी पुस्तकें थीं, जो कि उन्होंने मुझे भेंट कर दी थीं। उसमें से एक पुस्तक पर अमेरिकन प्रोफेसर विलबर श्राम (Wilbur Schramm) के हस्ताक्षर भी हैं। विलबर श्राम को दुनिया में जनसंचार अध्ययन का पितामह माना जाता है।
जीवन के अन्तिम कोई अट्ठारह वर्षों से निगम साहब लखनऊ में लगभग एकांत जीवन गुजार रहे थे। चूंकि उनके पास कोई लैंडलाइन या मोबाइल फोन भी नहीं था। इसलिए मैं उनके पास जाकर लगातार उनके सम्पर्क में रहता था।
उनका कोई ऊंचा पद नहीं था, पर उनके ऊंचे आदर्श थे
अपने जीवन में निगम साहब कोई बड़े ऊंचे पदों पर नहीं रहे, परन्तु वह ऊंचे आर्दर्शों पर चलने वाले व्यक्ति थे। वह बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति नहीं थे। और आत्म प्रचार से कोसों दूर रहते थे।
एक बात जो मैंने उनमें हमेशा देखी कि उन्होंने एक पत्रकार के तौर पर अपनी पोजीशन का कभी गलत इस्तेमाल नहीं किया। वह कभी अपने बारे में भी कोई आत्म-प्रशंसा का बखान नहीं करते थे।
गरीबों की मदद करना उनका आभूषण था
उनमें दूसरी खूबी यह थी कि वह हमेशा गरीब लोगों की मदद करते थे, जबकि वह खुद भी गरीब थे।
मैंने कई बार देखा कि उन्होंने अपने जरूरतमन्द रिश्तेदारों और पड़ोसियों की आर्थिक मदद की। उन्होंने अपनी पैतृक सम्पत्ति में भी अपना हक अपने भाई के परिवार के पक्ष में छोड़ दिया था।
निगम साहब को कहीं से कोई पेंशन नहीं मिलती थी। जो छोटी-मोटी जमा पूंजी उनके पास थी, उसकी फिक्सड डिपाजिट से जो ब्याज आता था, उसी से उनका खर्चा चलता था।
धीरे-धीरे यह रकम कम होती गई। जब वह जीवन के अन्तिम पड़ाव में थे, तब यह ब्याज की राशि कोई तीन-साढ़े तीन हजार रुपए रह गई थी। इतनी रकम उनका ठीक से इलाज कराने के लिए भी काफी नहीं थी।
निगम साहब को डायबिटीज थी। हाई ब्लड प्रेशर की समस्या भी थी। और इनसे जुड़ी अन्य बीमारियां भी थीं।
अपने जीवन काल में नियमित तौर पर वह रामकृष्ण मिशन, लखनऊ को कुछ न कुछ धनराशि दान किया करते थे। मृत्यु से कोई 17 वर्ष पहले उन्होंने अपने मकान की वसीयत भी रामकृष्ण मिशन के नाम कर दी थी। उस वसीयत पर मैंने तथा उनके एक मित्र करामत साहब ने साक्षी के तौर पर दस्तखत किए थे।
निगम साहब ने अपने मकान के रजिस्ट्री के कागजात भी रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम, लखनऊ को अपने जीवन काल में ही दे रखे थे। जीवन के अन्तिम दिनों में वह अपने मकान की गिफ्ट डीड रामकृष्ण मिशन के नाम कर देना चाहते थे। जब मकान दान करने की यह सब बात चल रही थी, तो मिशन के सचिव स्वामी मुक्तिनाथानन्दजी महाराज उनसे मिलने भी गए थे। उस मुलाकात के दौरान मिशन के एक कौल साहब और मैं भी वहाँ मौजूद था। जब स्वामीजी उनसे मिलकर उनके घर से बाहर निकले, तो उन्होंने कहा कि निगम साहब दान कर रहे हैं परन्तु उनको तो स्वयं दान की आवश्यकता है। स्वामीजी का सुझाव था कि मकान का दान हो जाने के बाद भी उस मकान में निगम साहब आजीवन दस रुपये प्रति माह के नाममात्र के किराए पर आजीवन रहते रहें। उनका यह भी सुझाव था कि यदि निगम साहब चाहेंगे तो मकान के रख-रखाव के लिए और उनकी मदद की लिए मिशन के एक आदमी को उस मकान के एक कमरे में रखा जा सकता है। इस बारे में स्वामीजी ने एक पत्र मुझे अपने मिशन के आफिस में एक दिन दिया और कहा कि वह पत्र मैं निगम साहब को दे दूँ। कौल साहब का भी एक सुझाव था कि मकान दान होने के बाद मिशन से निगम साहब को हर माह कुछ नियमित रकम दी जाए। उनके सुझाव पर भी शायद हेड आफिस से अनुमति लेने के बाद अमल में लाया जाता। मिशन का हेड आफिस कोलकता में था।
कुछ कारणवश मैं स्वामीजी का वह पत्र निगम साहब को नहीं दे पाया। उन दिनों मैं बड़ौदा यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर था और मुझे बड़ौदा (वडोदरा) वापस जाना आवश्यक था। मैंने सोचा कि स्वामीजी का यह पत्र मैं अगली बार जब लखनऊ आऊँगा, तो निगम साहब को दे दूँगा। परन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। मैं जल्दी लखनऊ वापस नहीं आ सका और इस बीच निगम साहब नहीं रहे।
आज निगम साहब का मकान उनकी वसीयत के आधार पर राम कृष्ण मिशन सेवाश्रम लखनऊ के स्वामित्व में है।
निगम साहब के जीवन काल में मैंने उनकी आर्थिक मदद करने की कोशिश भी की थी। परन्तु मुझे उनकी और अधिक मदद करनी चाहिए थी। ऐसा मैं अब महसूस करता हूं। उनकी मृत्यु के बाद मुझे ऐसा लगा कि मैंने एक गुरुतुल्य व्यक्ति खो दिया है।
निगम साहब एक ऐसे व्यक्ति थे जिनकी कथनी और करनी में मैंने कभी कोई फर्क नहीं देखा। आज के समाज में ऐसे लोग दुर्लभ हैं।
लखनऊ में निगम साहब अपना इलाज रामकृष्ण मिशन के अस्पताल में ही कराते थे। वहाँ वह एक आम नागरिक की तरह लाइन में लग कर पैसे देकर अपना पर्चा बनवाते थे। और तब उनका इलाज वहाँ होता था। वहाँ के स्वामीजी उनकी बहुत इज्जत करते थे, परन्तु निगम साहब ने कभी ऐसा प्रयास नहीं किया कि उनको वहाँ कोई वीआईपी ट्रीटमेंट मिले। कई बार मैं ही उनको अस्पताल ले गया था, इसलिए मुझे ये सब बातें मालूम हैं।
निगम साहब ने जब भी रामकृष्ण मिशन को कुछ पैसा दान किया, तो कभी यह नहीं चाहा कि दानदाता के तौर पर उनके नाम की कोई पट्टिका मिशन की दीवारों पर कहीं भी लगाई जाए।
वह साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल थे
सौहार्दता उनके व्यवहार में थी। वह उसके अद्वितीय उदाहरण थे। इस मामले में वह उन लोगों से कहीं आगे थे जोकि अपनी कथित धर्मनिरपेक्षता का सार्वजनिक तौर से नारा लगाते घूमते हैं। लखनऊ में एक बार रशीद भाई नाम के एक मुस्लिम उनके पास आए। उन्हें अपने घर से निकाल दिया गया था। उनकी उम्र निगम साहब से ज्यादा थी। निगम साहब ने रशीद भाई को न सिर्फ अपने घर में आश्रय दिया, बल्कि लगभग पांच वर्षों तक उनके खाने-पीने और दैनिक खर्च को भी अपनी छोटी सी आमदनी से पूरा करते थे।
निगम साहब ने रशीद भाई को हमेशा एक मित्र की तरह अपने घर में रखा। वे दोनों शायद इस कारण इतने लम्बे समय तक साथ रह सके, क्योंकि दोनों को दर्शनशास्त्र और उर्दू शायरी का शौक था। और दोनों ही सादा जीवन जीने में विश्वास रखते थे।
फिर एक दिन रशीद भाई के परिवार वाले उनको वापस बुलाने के लिए आए। शुरू-शुरू में तो रशीद भाई ने घर लौटने से इनकार कर दिया। परन्तु तीन-चार महीने बाद वह लौट गए और फिर कुछ समय बाद उनका इंतकाल हो गया।
मैंने कई बार यह देखा जबकि निगम साहब ने दूसरों की मदद की। निगम साहब का यह जो गुण था वह बहुत कम लोगों में होता है।
उनके पास भगवद्गीता पर कई पुस्तकें थीं
उनके पास भगवद्गीता पर कई पुस्तकें थीं। ये पुस्तकें अधिकतर ओशो के लेक्चर्स पर आधारित थीं। ओशो ने भगवद्गीता पर कई लेक्चर्स दिए, जोकि बाद में कई खण्डों में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए। समय-समय पर उन्होंने ये पुस्तकें मुझसे ही बाजार से खरीद कर मंगवाईं थीं। वह कभी-कभी, पुस्तकों जैसी कुछ विशेष चीजें मुझसे बाजार से मँगवाते थे।
चौबीस बुद्ध ऐसे हुए, जिन्हें कोई नहीं जानता
विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि यदि किसी व्यक्ति का चरित्र समझना हो, तो यह मत देखो कि उसने कौन-कौन सी बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं, बल्कि यह देखो कि वह अपने छोटे-छोटे सामान्य कार्य कैसे करता है।
विवेकानन्द ने कहा था कि इस दुनिया के सबसे महानतम लोग वे हैं जो चुपचाप अपना कार्य करके गुमनामी का जीवन गुजार कर चले जाते हैं। यह दुनिया ऐसे ही अज्ञात महानायकों से चल रही है। महात्मा बुद्ध ने कई बार यह कहा कि वह पच्चीसवें बुद्ध हैं। इसके पहले चौबीस बुद्ध इस धरती पर और हुए जिनको कोई नहीं जानता। ये चौबीसों एक तरह के अज्ञात नायक थे, जिन्होंने पच्चीसवें बुद्ध के लिए जमीन तैयार की।
निगम साहब भी एक ऐसे ही अज्ञात नायक थे, जिनकी जीवन यात्रा एक तीर्थयात्रा की तरह थी। उनके पास बैठकर मुझे वही सुख और शान्ति मिलती थी जिसके लिए लोग तीर्थ स्थानों पर जाते हैं।
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद् हैं।)