मोहन भागवत मुस्लिम बुद्धिजीवी संवाद।
प्रदीप सिंह।
मंगलवार 20 सितंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ बैठक हुई। इस बैठक में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उप राज्यपाल नजीब जंग, खुद को पत्रकार कहने वाले शाहिद सिद्दीकी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर जमीरुद्दीन शाह शामिल थे। इन लोगों के अलावा बैठक में और कौन लोग थे यह पता नहीं क्योंकि इन्हीं लोगों के नाम अखबारों में और सोशल मीडिया में आए हैं। यह बैठक दो घंटे चली।
अब आप इन नामों पर गौर कीजिए और अपनी याददाश्त पर जोर डालिए,.. हो सके तो गूगल कीजिए… हो सके तो जो अखबार आप पढ़ते हों, जो टीवी चैनल देखते हों, सोशल मीडिया के जिस सोर्स से आप खबरें लेते हों उन सबको खंगाल कर देखिए कि क्या इनमें से किसी ने पिछले दिनों “सर तन से जुदा” के नारे का विरोध किया है। क्या इनमें से किसी ने यह कहा कि नूपुर शर्मा ने टीवी डिबेट में जो जो बोला वह तथ्यात्मक रूप से गलत नहीं था? क्या इनमें से किसी ने कन्हैयालाल या उसके बाद जो हत्या हुई उसकी निंदा की- उनके खिलाफ उनको रोकने की बात की? क्या इनमें से किसी ने कर्नाटक के हिजाब विवाद का विरोध किया? क्या इनमें से किसी ने पीएफआई के विरोध में कोई भी कोई बयान दिया है? क्या इनमें से किसी ने याकूब मेमन की फांसी का समर्थन किया था? आपको इनका ऐसा कोई बयान नहीं मिलेगा। मुझे तो नहीं मिला। हो सकता है मुझसे छूट गया हो लेकिन आप में से किसी को मिले तो मुझे बताइएगा।
कठमुल्लापन के जिम्मेदार हैं ये
ये सब लोग एक ही स्वर से बोलने वाले हैं। ये मुस्लिम समाज के उस वर्ग से आते हैं जिसको अशरफ कहा जाता है- यानी अभिजात वर्ग। यह मुस्लिम समाज का ऐसा वर्ग है जो इस देश में मुसलमानों में जो कठमुल्लापन है उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। ये उस नैरेटिव को बनाए रखने में मदद करने वाले, उस नैरेटिव को इंटेलेक्चुअल कवर देने वाले लोग हैं। केवल यही लोग नहीं हैं- मुस्लिम बुद्धिजीवियों में ऐसे 90 फीसदी से ज्यादा लोग हैं जो इसी तरह की बात करते हैं। सब बातों को छोड़ भी दीजिए तो क्या इनमें से किसी ने कभी केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान की किसी बात का समर्थन किया जो इन सबसे ज्यादा इस्लाम की जानकारी रखते हैं। इस्लाम की व्याख्या करने का अधिकार उनमें इन सबसे ज्यादा है। मोहन भागवत ने यह बैठक क्यों की- मुझे समझ में नहीं आ रहा है। पहले देखिए कि इस समय कि देश में माहौल क्या है। ज्ञानवापी का मुद्दा चल रहा है जिसमें मुस्लिम पक्ष कोर्ट में क्या-क्या दलीलें दे रहा है- ये सब उनके साथ खड़े होने वाले लोग हैं। इसके अलावा हिजाब पर ईरान में महिलाएं सड़क पर हैं, हिजाब जला रही हैं, उसे उतार कर फेंक रही हैं, अपने बाल काट रही हैं। ये सब उस ईरान में हो रहा है जो इस्लामिक देश है- जो शरिया से चलता है- यहां का जो मुस्लिम अभिजात्य वर्ग है इनमें से कोई इसके खिलाफ खड़ा हुआ है क्या? ये पीएफआई का, आईएसआई का, दाऊद इब्राहिम का समर्थन करते हैं। ये हर उस व्यक्ति का समर्थन करते हैं जो भारत के विरोध में खड़ा है… और उनसे मोहन भागवत बात कर रहे हैं- मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है।
समझ से परे
इससे पहले भी भागवत ने जो बयान दिया था वह मेरी समझ से परे है। उन्होंने कहा कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों खोजना। भागवत जी आपने कभी यह सवाल पूछा कि हर मंदिर को मस्जिद में क्यों बदलना, आठ-नौ सौ सालों से यह होता रहा- क्या उसको चुपचाप बर्दाश्त कर लिया जाए। बैठक की जो बातें निकल कर सामने आई हैं उसके मुताबिक यह चर्चा हुई कि महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला का समुदायों के बीच में संवाद और सामंजस्य स्थापित करने का जो तरीका था, उस पर चलना चाहिए। अब आप समझिए कि गांधीवादी तरीके से क्या मिला- मोपला नरसंहार हुआ और उसको उचित ठहराया गया। डायरेक्ट एक्शन डे हुआ और कोलकाता में हिंदुओं का नरसंहार हुआ। गांधीवादी तरीके से हिंदू-मुस्लिम दंगे और देश का विभाजन हुआ। करोड़ों हिंदू या तो मारे गए या विस्थापित हुए। ऐसे लोगों को बातचीत के लिए बुलाना उसी तरह से है जैसे बकरा कसाई से कहे कि हम आपस में मिलजुल कर कैसे रह सकते हैं- आइए इस पर बातचीत करते हैं। इनमें से कोई यह मानता है कि इस्लाम में कुछ भी गलत है- क्या इनमें से कोई यह मानता है कि मुसलमानों ने कुछ गलत किया है- क्या इनमें से कोई यह मानने को तैयार है कि बाबर, औरंगजेब से लेकर जितने भी मुगल और मुस्लिम बादशाह और नवाब हुए उनमें से किसी ने हिंदुओं के साथ कोई अन्याय किया था- क्या मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी- क्या हिंदुओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया था या उनकी बड़े पैमाने पर हत्या की गई थी। इन सबकी स्वीकारोक्ति के लिए कोई तैयार है क्या? इनमें से कोई इस बात को स्वीकार करने को तैयार है कि वह अपना संबंध औरंगजेब, बाबर या अकबर से नहीं जोड़ता है- कोई नहीं मिलेगा। फिर भी मोहन भागवत उनसे बात कर रहे हैं। 2019 में भी उन्होंने मुंबई के एक होटल में बात की थी। उसके अलावा जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के अरशद मदनी से भी बात की थी।
दूसरे सुधींद्र कुलकर्णी हैं रामलाल
ये बातचीत करा रहे हैं रामलाल, जो कुछ समय पहले तक भारतीय जनता पार्टी के संगठन के राष्ट्रीय महामंत्री थे। ये भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के नए सुधींद्र कुलकर्णी हैं। वही सुधींद्र कुलकर्णी जिन्होंने 2004 के लोकसभा चुनाव में अटल जी और मुशर्रफ की फोटो लगाकर यात्रा निकलवाई थी- वही सुधींद्र कुलकर्णी जो लालकृष्ण आडवाणी को लेकर पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर गए थे। अब रामलाल उसी भूमिका में हैं। यह संवाद इसी बात की ओर इशारा कर रहा है। बैठक में क्या बातचीत हुई उससे मुझे कोई मतलब नहीं है क्योंकि इस बातचीत का कोई हल नहीं निकलना है। मोहन भागवत महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल, राजा जी इन सबसे बड़े नेता नहीं हैं। वे हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं करा पाए। हिंदू-मुस्लिम एकता के रास्ते में बाधा क्या है- जब तक आप यह नहीं समझेंगे और स्वीकार नहीं करेंगे तब तक ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है। अगर आपको इसे समझना है तो आप सरदार पटेल को पढ़िए, डॉ. भीमराव अंबेडकर को पढ़िए। अंबेडकर की एक ही किताब पढ़ लीजिए, आपको समझ में आ जाएगा कि हिंदू-मुस्लिम संबंध कैसे ठीक किए जा सकते हैं। उसकी दो ही शर्त हैं। या तो इस देश में कॉमन सिविल कोड लागू हो- शरिया से जुड़ी हुई जो बातें हैं सब खत्म हों। या फिर इस देश का इस्लामीकरण हो- संविधान को किनारे रख कर देश शरिया से चले। संघ परिवार यह तय कर ले कि उसे किस रास्ते पर चलना है। संविधान का रास्ता अपनाना है तो शरिया के मानने वालों से कोई समझौता नहीं हो सकता क्योंकि समझौते का मतलब है कि हम कुछ आपकी बात मानें, कुछ आप हमारी बात मानें।
छोटा समझौता भी नहीं करता मुस्लिम पक्ष
हम तो संविधान की सारी बातें मानने वाले हैं लेकिन वो संविधान की सभी बातें मानने वाले नहीं हैं। मुसलमानों के मन में इसे लेकर कोई दुविधा नहीं है। वे बिल्कुल स्पष्ट हैं और अपने मजहब की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं- कुछ भी करने को तैयार हैं। किसी तरह का कोई छोटा सा भी समझौता करने के लिए वे तैयार नहीं हैं। अब आप बताइए कि संविधान से कितना समझौता करने के लिए तैयार हैं, क्या आपको रविंद्र नाथ टैगोर और अंबेडकर की बात पर भरोसा है या फिर अरशद मदनी, एसवाई कुरैशी, नजीब जंग की बात पर भरोसा है। आप किसको मानेंगे- यह तय कर लीजिए। या आप उस बात को मानेंगे जो दशकों पहले सावरकर ने कही थी जिसे आपने ठुकरा दिया था। सावरकर ने कहा था कि “मुझे मुसलमानों से डर नहीं लगता है, मुझे अंग्रेजों से भी डर नहीं लगता है, मुझे डर लगता है उन हिंदुओं से जो हिंदुत्व को नहीं मानते हैं।” मगर मैं कह रहा हूं कि उन हिंदुओं से भी डरना चाहिए जो हिंदुत्व को मानते तो हैं लेकिन रास्ता वह अपनाते हैं जो हिंदुत्व के विरोध में जाता है- जो हिंदुत्व की जड़ काटता है। मैं कई बार पहले भी दुष्यंत कुमार के शेर को कोट कर चुका हूं, फिर से यहां कोट करने का मन हो रहा है-“उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें, चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए।” यह किस तरह की बातचीत है भाई! बातचीत का कोई फ्रेमवर्क होता है, कोई मसौदा होता है, उसके लिए पृष्ठभूमि तैयार की जाती है। ये कौन सी बातचीत हो रही है और इस बातचीत से निकलना क्या है। हम दशकों तक बातचीत करते रहे राम जन्मभूमि पर- क्या नतीजा निकला? मुस्लिम पक्ष एक इंच भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ। पीछे हटने से मतलब यह नहीं है कि उन्हें अपना अधिकार छोड़ने के लिए कहा गया, जो सच्चाई है उसे स्वीकार करने के लिए कहा गया। वही इतिहास दोहराया जा रहा है ज्ञानवापी के मामले में- उसी तरह का रवैया है मुस्लिम पक्ष का। राम जन्मभूमि के फैसले के बाद भी मुस्लिम पक्ष के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया है। इस देश में लाखों मंदिर तोड़े गए। और मोहन भागवत कहते हैं कि वह सब भूल जाएं, क्यों हर मस्जिद में शिवलिंग देखना। क्यों नहीं शिवलिंग नहीं देखेंगे, कैसे आंख फेर लेंगे, क्यों फेर लेंगे और क्यों फेर लेना चाहिए। आंखें फेर ली थीं इसीलिए इस हालत में पहुंचे हैं।
क्या शरिया छोड़ सकते हैं मुस्लिम
मैं मुसलमानों के खिलाफ नहीं हूं, मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि अगर बातचीत करनी है तो मोहन भागवत सिर्फ यह सवाल लेकर जाएं कि क्या मुस्लिम समाज शरिया छोड़ने को तैयार है? अगर इसका उत्तर ‘हां’ है तो बातचीत होनी चाहिए, अगर इसका उत्तर ‘ना’ है तो किसी बातचीत का कोई अर्थ नहीं है। केवल बातचीत करने के लिए बातचीत करने का कोई मतलब नहीं है। खासकर ऐसे माहौल में जब सनातन धर्म को लेकर लोगों में एक नई चेतना जाग रही है- जब लोगों को अपने अधिकार का पता चल रहा है- जब पता चल रहा है कि उसके साथ क्या छल किया गया। मुस्लिम शासकों, मुगलों या अंग्रेजों की बात तो छोड़ ही दीजिए- 1947 के बाद जो भारत के शासक रहे हैं उन्होंने क्या-क्या किया? मैं उसकी बात कर रहा हूं कि कैसे हिंदू धर्म को खत्म करने के लिए संविधान का सहारा लिया गया। कैसे सिस्टमैटिक तरीके से हमेशा के लिए सनातन धर्म खत्म हो- उसका प्रयास किया गया। उसके खिलाफ या वक्फ बोर्ड के खिलाफ कोई बयान संघ का क्यों नहीं आता। इस समय देश में जो माहौल है उसमें सनातन धर्म और इस देश की संस्कृति को मानने वालों को तय करना पड़ेगा कि आगे का रास्ता क्या हो। भाईचारा, दोस्ती ये सब अच्छी बातें हैं लेकिन किन शर्तों पर हो। गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा था कि दुनिया के दो धर्म इस्लाम और ईसाई, दोनों में एकेश्वरवाद है। दोनों का यह मानना है कि दोस्ती और भाईचारे का एक ही रास्ता है कि हम उनके धर्म को स्वीकार कर लें। इस तरह का भाईचारा, इस तरह का सामाजिक सामंजस्य चाहते हैं सरसंघचालक मोहन भागवत तो फिर वह बताएं हिंदुओं को- फिर तय कर लीजिए कि इस देश का इस्लामीकरण हो रहा है। अगर उसे रोकना है तो उसके बारे में सोचना चाहिए क्योंकि जिन्होंने नहीं सोचा वे मिट गए, देश के देश खत्म हो गए- इतिहास इसका गवाह है। हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। अगर नहीं चाहते तो ये जो मीठी-मीठी बातें होती हैं कि ये भी सच, वह भी सच- यह हो सकता है क्या।
निर्णायक मोड़ पर निष्पक्षता…?
जब समय एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा हो तो आपको एक पक्ष में खड़े होना होता है। उस समय निष्पक्षता से बड़ा अपराध कोई नहीं होता है। जो निष्पक्ष होना चाहते हैं वे यह सोच लें कि आने वाली पीढ़ियों का वो कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं। बाकी यह जनतंत्र है, फैसला तो सर्वानुमति से ही होगा जिसकी कोशिश भागवत जी कर रहे हैं। कमाल की बात यह है कि कहीं से कोई आवाज ही नहीं उठ रही है कि कौन सी बातचीत कर रहे हैं, इस बातचीत का एजेंडा क्या है। मैं फिर कह रहा हूं कि भाईचारे के रास्ते में जो सबसे बड़ी रुकावट है वह है शरिया। मुसलमान जब तक शरिया से चिपका रहेगा तब तक हिंदू-मुस्लिम एकता हो ही नहीं सकती। इस सच्चाई को स्वीकार करने को अगर आप तैयार नहीं हैं तो भुगतने के लिए तैयार रहें। हजारों साल से भुगत रहे हैं- आगे और ज्यादा भुगतने वाले हैं।