मयंक चतुर्वेदी।
जब देश का शासक जब कोई गलत निर्णय लेता है और समय रहते यदि उसे सुधारने का प्रयास नहीं करता तो देश को दशकों तक उसका बुरा परिणाम भुगतना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में भारत की स्‍थायी सदस्‍यता को लेकर पिछले 72 वर्षों से सिर्फ चर्चा का दौर चल रहा है, किंतु चीन वीटो पॉवर की दम पर भारत को स्‍थायी सदस्य तौर से सम्‍मिलित होने का कोई अवसर नहीं देता। समय-समय पर वीटोपॉवर का इस्तेमाल कर चीन भारत की स्‍थायी सदस्‍यता पर तो चुनौती खड़ी करता ही है, साथ ही वह भारत विरोधी आतंकवादियों को भी बचाता है।

शक्ति का बेजा इस्तेमाल

अमेरिका और भारत कुछ माह पूर्व जून में हुई यूएनएससी की बैठक में पाकिस्तानी आतंकी अब्दुल रहमान मक्की को वैश्विक आतंकी घोषित किए जाने का प्रस्ताव लाए थे जिसे चीन ने अपने वीटो पॉवर से बाधित कर दिया था। हालांकि चीन अच्‍छे से जानता है कि मक्की पाकिस्तानी आतंकी है, जो भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने, कश्मीर में माहौल बिगाड़ने और आतंकी गतिविधियों के लिए पैसा जुटाने का काम करता है। सवाल यह है कि जिस पाकिस्तानी आतंकी मक्की पर अमेरिका ने बीस लाख डॉलर का इनाम रखा है, उसके प्रति चीन का यह नरम रुख क्‍यों? मक्की  ही नहीं, जैश ए मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित किए जाने के प्रयासों पर भी चीन कई बार अड़ंगा डाल चुका है। वस्‍तुत: भारत को कमजोर करनेवाली हर ताकत के साथ चीन खड़ा हुआ है। चीन कभी नहीं चाहेगा कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्‍थायी सदस्‍य बन उसकी बराबरी में आकर खड़ा हो जाए।

नेहरू की गलती बनी बड़ी बाधा

आज यह विषय इसलिए फिर सामने आया है क्‍योंकि संयुक्‍त राष्‍ट्र की आम सभा के 77वां सत्र चल रहा है। भारत अब तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्‍थायी सदस्‍य क्‍यों नहीं बना? जब हम इसके एतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य को देखेते हैं तब लगता है कि भारत के राजनीतिक नेतृत्‍व से अतीत  में हुई भयंकर भूल इसके लिए पूरी तरह से जिम्‍मेदार है। आप जब एक ऐसे पडोसी को- जो तानाशाह, शक्‍तिशाली और अहंकारी हो- और अधिक शक्‍ति सम्‍पन्‍न बनाने का काम करते हैं, उस स्‍थ‍िति में एक समय ऐसा आता है जब वह आपके लिए ही भस्‍मासुर बन जाता है- फिर भले ही उसकी शक्‍ति का मुख्‍य कारण आप ही क्‍यों न हों। समाजवादी विचार वाले नेहरू ने अतीत में ऐसा ही किया। उन्‍होंने चीन के साथ सहयोग की नीति पर चलने का फैसला लिया। चीन की वामपंथी सरकार को मान्यता देना उसी सहयोग की नीति का पहला कदम था। और दूसरा बड़ा कदम संयुक्त राष्ट्र  की सुरक्षा परिषद में अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के नाम पर उसे स्‍थायी सदस्‍यता दिलाए जाने के रूप में देखा जा सकता है।

पत्र से उजागर हुई नेहरू की सोच

इस विषय पर नेहरू की सोच क्‍या रही उसका पता उनके अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित  को लिखे एक पत्र के जवाब से चलता है। तब विजयलक्ष्मी अमेरिका में भारत की राजदूत थीं। उन्होंने लिखा, ‘अमेरिकी विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात आपको मालूम होनी चाहिए, वो है- सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट से चीन (ताइवान की राष्ट्रवादी सरकार) को हटाकर भारत को देना। इस सवाल पर तुम्हारा उत्तर मैंने हाल ही में रॉयटर्स में देखा है। पिछले हफ्ते मैंने डलेस (अमेरिकी विदेश नीति को आकार देनेवालों में से एक) और जेसप फिलिप से बातें की। दोनों ने सवाल उठाया और डलेस व्यग्र लगे कि इस दिशा मे कुछ करना चाहिए। …मैंने हम लोगों का रुख उन्हें बताया और सलाह दी कि वो इस मामले में धीमा चलें क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी से स्वागत नहीं होगा।’

वस्‍तुत: तत्‍कालीन समय में जॉन फ़ॉस्टर डलेस 1950 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के शांतिवार्ता-प्रभारी थे जो कि 1953 से 1959 तक अमेरिका के विदेश मंत्री भी रहे। फ़िलिप जेसप एक न्यायविद और अमेरिकी राजनयिक थे । इस पत्र के जवाब में नेहरू लिखते हैं कि ‘अमेरिकी विदेश मंत्रालय सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट से चीन को हटाकर भारत को बैठाने की कोशिश कर रहा है। जहां तक हमारा सवाल है, हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे। हमारी दृष्टि से ये एक बुरी बात होगी। यह चीन का साफ अपमान होगा जो चीन तथा हमारे बीच एक तरह से बिगाड़ पैदा करेगा। मैं समझता हूं कि भले ही अमेरिकी विदेश मंत्रालय इसे पसंद ना करे लेकिन हम इस रास्ते पर नहीं चलना चाहते। हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर जोर देंगे।’ विजयलक्ष्मी पंडित का यह पत्र और 30 अगस्त 1950 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिया गया उसका उत्तर नयी दिल्ली के ‘नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय’ (एमएमएमएल) में उपलब्‍ध हैं।

तिब्‍बत पर आक्रमण और नेहरू

उस दौर के एतिहासिक संदर्भ यह भी बताते हैं कि बहन विजयलक्ष्मी के साथ जिस समय नेहरु पत्र व्यवहार कर रहे थे, चीन उन्हीं दिनों तिब्बत पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था। सितंबर 1950 में दलाई लामा का प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में था। वह दिल्ली में चीनी राजदूत से मिला था। चीनी राजदूत ने कहा कि तिब्बत को चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी ही पड़ेगी। कुछ ही दिन बाद चीनी सेना ने तिब्बत पर हमला बोला। तिब्बत को जबरन चीन का हिस्‍सा बना दिया गया। नेहरू इस पूरे मामले में चीन के समर्थन में खड़े दिखे, जबकि भारत हमेशा-हमेशा के लिए चीन और अपने बीच के सुरक्षा कवच तिब्‍बत को खो रहा था।

नेहरू ने 1955 में तत्कालीन सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन के सामने भी यही रट लगाई। बुल्गानिन ने जब यह सुझाव दिया कि भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है। इस पर नेहरू ने बुल्गानिन को सीधे शब्‍दों में कहा कि जब तक कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता है।

अनेक पुस्‍तकें कर रहीं तथ्यों को उजागर

कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रहे शशि थरूर अपनी किताब ‘नेहरू- द इन्वेंशन ऑफ़ इंडिया’ में लिखते हैं- 1953 के आसपास भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था लेकिन उन्होंने (नेहरू) यह चीन को दे दिया। भारतीय राजनयिकों ने वो फाइल देखी थी जिस पर नेहरू के इनकार का जिक्र था। थरूर ने यहां पूरी तरह से स्‍पष्‍ट किया है कि वे भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ही थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्य बनाए जाने को लेकर पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की वकालत की थी।

इतिहास बताता है कि वर्ष 1949 में यूएन ने चीन को सुरक्षा परिषद की सदस्‍यता देने से इनकार कर दिया था। तब भारत वह देश था जो चीन की वकालत कर रहा था। इसी संदर्भ में नयनतारा सहगल ने अपनी किताब Jawaharlal Nehru: Civilizing a Savage World में लिखा कि एक बनी बनाई सत्‍ता को सिर्फ इसलिए नजरअंदाज करना, क्योंकि वह कम्युनिस्ट हैं, नेहरू के हिसाब से ये एक बहुत बड़ी गलती होती।

भूभाग चीन के कब्जे में

नेहरू चीन के समर्थन में खड़े रहे। आगे चीन ने अपना असली रंग दिखा दिया। साल 1962 में चीन ने भारत के भाईचारे की परवाह ना करते हुए अंतरराष्ट्रीय सीमा का खुला उल्लंघन किया और भारत पर भयंकर हमला कर अक्‍साई-चिन और अरुणाचल प्रदेश के बड़े हिस्‍से पर अपना कब्‍जा जमा लिया जो कि अब तक बरक़रार है। चीन अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार स्क्वायर किमी हिस्से पर अपनी दावेदारी करता है। इसके अलावा लद्दाख का करीब 38 हजार स्क्वायर किमी का हिस्सा पिछले छह दशकों से चीन के कब्जे में है। 2 मार्च 1963 को चीन-पाकिस्तान के बीच हुए एक समझौते के तहत पाकिस्तान ने पीओके का अवैध रूप से कब्जा किए गए शक्सगाम घाटी के 5180 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र को अवैध रूप से चीन को सौंप रखा है।

तब तक हो गई देर

कहना होगा कि भारत को जब तक सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट की अहमियत का अहसास होता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। यह देर आज भारत के लिए कितनी कठिन डगर बन गई है, इसे सिर्फ भारत ही नहीं (चीन-पाकिस्‍तान जैसे कुछ देशों को छोड़कर) पूरी दुनिया महसूस कर रही है। कुछ वर्षों में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा, साथ ही यह विश्‍व की सबसे घनी आबादी वाला देश होगा। ऐसे में भारत का अहम वैश्विक परिषद का हिस्सा न होना जाहिर तौर पर भारत के लिए ही नहीं बल्‍कि वैश्विक परिषद यूएनएससी के लिए भी अच्छा नहीं है।

(लेखक ‘हि‍न्‍दुस्‍थान समाचार’ न्‍यूज एजेंसी के मध्य प्रदेश राज्य प्रमुख और युगवार्ता एवं नवोत्‍थान पत्रिकाओं के प्रबंध सम्‍पादक हैं)