भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-3

#pramodjoshiप्रमोद जोशी।

गृहमंत्री अमित शाह ने रविवार, 16 अक्टूबर 2022 को भोपाल में मेडिकल शिक्षा की हिंदी किताबों का लोकार्पण किया। गृहमंत्री ने कहा कि देश विद्यार्थी जब अपनी भाषा में पढ़ाई करेंगे, तभी वह सच्ची सेवा कर पाएंगे। 10 राज्यों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में शुरू होने वाली है। इस पर काम चल रहा है। मैं देश भर के युवाओं से अह्वान से कहता हूं कि अब भाषा कोई बाध्यता नहीं है। आने वाले दिनों में ये सिलसिला और तेजी से आगे बढ़ेगी. पढ़ाई लिखाई और अनुसंधान मातृभाषा में होगा तो देश तेज़ी से तरक़्क़ी करेगा।

इस कार्यक्रम को आप किस तरह से देखते हैं, यह आप पर निर्भर करता है। मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम की मेडिकल पुस्तकों के मसले को काफी लोग राजनीतिक दृष्टि से देख रहे हैं। दक्षिण भारत, खासतौर से तमिलनाडु में हिंदी-विरोध राजनीतिक-विचारधारा की शक्ल भी अख्तियार कर चुका है। यह विचारधारा पहले से उस इलाके में पल्लवित-पुष्पित हो रही थी, पर 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से इसे बल मिला है। मेरा सुझाव है कि इस मसले को राजनीतिक नज़रिए से देखना बंद करें।

भारतीय जनता पार्टी हिंदी-माध्यम से शिक्षण को प्रचार के लिए इस्तेमाल करे या द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम इसके विरोध को अपनी राजनीति की ज़रिया बनाए, दोनों परिस्थितियों में हम उद्देश्य से भटकेंगे। जब आप राजनीतिक हानि-लाभ या रणनीतियों का विवेचन करें, तब भाषा की राजनीति पर भी विचार करें। पर जब शिक्षा-नीति की दृष्टि से विचार करें, तब यही देखें कि सामान्य-छात्र के लिए कौन सी भाषा उपयोगी है।

भाषा की राजनीति

भाषा की राजनीति अलग विषय है। सामाजिक पहचान के रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। यह राजनीति है। राष्ट्रवाद का महत्वपूर्ण अवयव है भाषा। हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने का फैसला एक प्रकार से राजनीतिक समझौता था। संविधान सभा ने आधे-अधूरे तरीके से इस मसले का समाधान किया और इसे समस्या के रूप में छोड़ दिया। इसके लिए राजनीति ही दोषी है, जिसका विवेचन शुरू करते ही हम एक दूसरे रणक्षेत्र में पहुँच जाते हैं।

फिलहाल मैं प्राथमिक रूप से शिक्षा के माध्यम से जुड़े सवालों पर बात करना चाहूँगा, जिसकी विशेषज्ञता मेरे पास नहीं है। विशेषज्ञों की राय के सहारे ही मैंने अपनी राय बनाई है। मेरी दृष्टि की विसंगतियों को पाठक इंगित करें तो अच्छा है। इससे मुझे अपनी राय को सुस्पष्ट बनाने में आसानी होगी।

स्थानीयता का महत्व

नब्बे के दशक में अंग्रेजी के दो काफी प्रचलित हुए थे। एक लोकल और दूसरा ग्लोबल। कहा गया कि थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल। स्थानीयता और अंतरराष्ट्रीयता को जोड़ने की यह कोशिश थी। इसे भाषा की दृष्टि से देखें, तो बनता है वैश्विक भाषा और स्थानीय भाषा। आपकी समस्याएं और उनके समाधानों की स्थानीयता उतनी ही या उससे कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण है, जितनी आप वैश्विकता को महत्वपूर्ण मानते हैं। मध्य प्रदेश में हिंदी के माध्यम से मेडिकल पढ़ाई अभी शुरू ही नहीं हुई है कि आपने अमेरिका और यूरोप जाकर वहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने या प्रैक्टिस से जुड़ी परेशानियों का जिक्र शुरू कर दिया।

एक ने कहा विशेषज्ञता जरनल पढ़कर हासिल की जाती है, जो हिंदी में नहीं हैं। हिंदी की बात क्या है, बहुत से जरनल फ्रांसीसी और जर्मन में हैं। उन्हें समझने के लिए वह भाषा पढ़नी होगी। सबसे बड़ी बात है विषय की अपनी भाषा है। जब आप चिकित्सा से जुड़े मसलों को समझेंगे, तभी अंग्रेजी में भी आप उसे ग्रहण कर सकेंगे। यदि आपकी मूल समझ बनी नहीं होगी, तब आप कैसी भी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हों, चिकित्सा की समझ अधूरी ही रहेगी।

अंग्रेजी का महत्व

विशेषज्ञता के बारे में विचार करने के पहले हमें अपने देश की परिस्थितियों के बारे में भी सोचना चाहिए। चिकित्सकों की जरूरत हमें अपने बीमारों का इलाज करने के लिए है। उस ज्ञान से क्या लाभ, जो हमारे देश के काम ही न आए। बेशक विशेषज्ञता भी चाहिए, गुणवत्ता भी चाहिए और स्थानीयता भी चाहिए। अंग्रेजी के ज्ञान से किसी ने इनकार नहीं किया है, पर वह ज्ञान कितना हो, यह देखना होगा। ऐसा नहीं है कि चीनी या जापानी विशेषज्ञों को अंग्रेजी की महत्ता का पता नहीं है। जितनी अंग्रेजी चाहिए, उतनी वे पढ़ लेते हैं।

हमारे यहाँ किसी व्यक्ति का उच्चारण अंग्रेजों जैसा नहीं है, तो उसे मजाक का विषय मान लिया जाता है। समस्या अंग्रेजी की नहीं, अंग्रेजियत की है। पर असली समस्या देश की बुनियाद तक पहुँचने की है। भारत में प्राथमिक शिक्षा और गाँवों की शुरू से उपेक्षा हुई है। इसकी वजह से ज्ञान का असंतुलन पैदा हुआ है। ज्ञान का श्रम और उत्पादन के साधनों से रिश्ता टूटा है।

शहरी मध्यवर्ग के बच्चे सुई में धागा डालने से लेकर जमीन खोदने तक के मामले में गाँव के बच्चों की तुलना में कमज़ोर होते हैं। वे विज्ञान और तकनीकी शिक्षा को किताबों में पढ़ सकते हैं, जमीन पर नहीं। विज्ञान के प्रयोग प्रकृति के साथ होते हैं। हमारी काफी मेधा गाँवों और पिछड़े इलाकों में छिपी है। ज्ञान-प्राप्ति में अंग्रेजी उनकी सहायक बनने के बजाय बाधा बनती है। यह बात अभी आगे मैं कुछ उदाहरणों के साथ बताऊँगा।

हिंदी की कमज़ोरी

एक तर्क यह भी है कि चीनी और जापानी भाषाओं को उनके देश में 90 से 95 प्रतिशत लोग समझते हैं। भारत में हिंदी करीब 45 प्रतिशत लोगों की भाषा है। मानक भाषा सबको समझ में नहीं आती। तमाम बोलियाँ हैं वगैरह। यह बात महत्वपूर्ण है, पर इसे राजनीति के रैपर में लपेट कप पेश किया गया है। पहले इसे समझना चाहिए कि नई शिक्षा नीति में इस समस्या का समाधान किस प्रकार से सुझाया गया है।

सोशल मीडिया में एक ने सवाल किया, बताइए एमबीबीएस की हिंदी क्या है? ऐसे सवाल करने वालों की दिलचस्पी बातों को उलझाने में ज्यादा होती है। मध्य प्रदेश में जो तीन किताबें तैयार की गई हैं उनमें तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल ही नहीं किया गया है। केवल देवनागरी में अंग्रेजी शब्दों को ही लिखा गया है। ऐसा इसलिए कि मान लिया गया है कि स्पाइनल कॉर्ड सार्वभौमिक शब्द है, मेरुदंड नहीं। विज्ञान का हिंदी विद्यार्थी शुरू से ही इस समस्या का सामना करते हुए बड़ा होता है।

तकनीकी शब्दावली

हिंदी का मजाक बनाने के लिए पचास के दशक में सिगरेट के ‘धूम्र दंडिका’ और रेलवे सिग्नल के ‘धूम्रयान गमनागमन सूचक लौह पट्टिका’ जैसे पर्याय बनाए गए। दूसरी तरफ तकनीकी शब्दावली को गूढ़, समझ में नहीं आने वाली बताया गया। सच यह है कि यदि आप वैज्ञानिक शब्दावली को ध्यान से पढ़ें तो मुकाबले मूल अंग्रेजी शब्दों के हिंदी के शब्द अपने अर्थ को बेहतर व्यक्त करते हैं। इसके उदाहरण भी देने होंगे, इसलिए आगे मैं उदाहरणों को भी दूँगा।

मेडिकल, अंतरिक्ष विज्ञान और कानून जैसे विषयों के बहुत से शब्द अंग्रेजी में हैं ही नहीं। वे लैटिन और ग्रीक से लिए गए हैं। उनमें से कुछ के संस्कृत में समानार्थी हैं और कुछ का अर्थ समझना होता है। यह काम भी विशेषज्ञता से जुड़ा है। नए छात्र को इन बातों से उलझाने के बजाय बेहतर है कि शुरुआत अंग्रेजी के ही शब्दों से की जाए।

‘द हिंदू’ का संपादकीय

उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई को अंग्रेजी का मीडिया और खासतौर से दक्षिण के अखबार हिंदी माध्यम की पढ़ाई के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। इसके पीछे उनकी समझ है, अलबत्ता मैं चेन्नई के प्रतिष्ठित अखबार द हिंदू के संपादकीय के अंशों को उधृत करना चाहूँगा। ये अंश अंग्रेजी में लिखे गए संपादकीय के हिंदी अनुवाद हैं, जो इन दिनों द हिंदू की वैबसाइट पर प्रकाशित होते हैं।

अखबार के अनुसार, ‘मातृभाषा को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने की कमियां और खूबियां दोनों हैं।…गृहमंत्री अमित शाह का इंजीनियरिंग, मेडिसिन और कानून को मातृभाषा में पढ़ाए जाने के आह्वान का मकसद बहुत ही अच्छा है। उनका बयान राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के केंद्रीय बिंदुओं में से एक के अनुरूप है। यह बिंदु है- उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना। दो भाषाओं में पढ़ाई की पेशकश के अलावा एनईपी, उच्च शिक्षा में ज्यादा से ज्यादा शैक्षणिक संस्थानों और विषयों में मातृभाषा या स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात करता है। शाह के आह्वान के पीछे तर्क यह है कि मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा हासिल करने वाले 95 फीसदी छात्र-छात्राओं को भाषाई बाधा की वजह से उच्च शिक्षा से वंचित नहीं रखा जा सकता। अगर दिसंबर 2021 में लोकसभा में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के दिए बयान को संकेत माना जाए, तो हाल के वर्षों में भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कई ठोस उपाय किए गए हैं।…इसका मकसद है कि उच्च शिक्षा में सभी वर्गों को शामिल करने के लक्ष्य को हकीकत में बदला जाना चाहिए। लेकिन, हमें इस सच्चाई से मुंह नहीं चुराना चाहिए कि इससे कोई ठोस नतीजे हासिल नहीं हुए। मिसाल के लिए, तमिलनाडु में तमिल माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा उपलब्ध कराने की कोशिश का कोई खास असर नहीं हुआ। वह भी तब, जब वहां के प्रमुख राजनीतिक दल भाषा को राजनीतिक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। कानून की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में शुरू करने से पहले, केंद्र सरकार को इस दिशा में कोशिश करनी चाहिए कि न्यायपालिका पहले भारतीय भाषाओं में अदालती कार्यवाही शुरू करने को मंजूरी दे।’

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न्याय-व्यवस्था

इस संपादकीय के अंतिम वाक्य पर भी ध्यान देने की जरूरत है। भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी समस्या न्याय-व्यवस्था से जुड़ी है। सामान्य नागरिक अदालती चक्रव्यूह में ऐसी भाषा के वाण झेलता है, जिससे वह अपरिचित है। विडंबना है कि ज्यादातर विधानसभाएं राज्य की भाषा में कानून बनाती हैं, पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट उन भाषाओं को मान्यता नहीं देतीं और उनका अंग्रेजी अनुवाद ही मान्य होता है। द हिंदू ने शायद इन बातों पर ध्यान नहीं दिलाया है। और इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया है कि मध्य प्रदेश के प्रयोग में तमिलनाडु के अनुभव शामिल हैं।

बात उच्च के माध्यम से शुरू हो रही है, पर भाषा के सहारे हम अपने लोकतंत्र की घुमावदार गलियों में प्रवेश करते हैं। इतना समझ लीजिए कि आज हो या कल, भारतीय लोकतंत्र की सफलता के लिए अंग्रेजी नहीं, अंग्रेजियत के गढ़ को गिराना जरूरी होगा। यह विषय उतना सरल नहीं है, जितना समझा जा रहा है और उतना जटिल भी नहीं है, जितना कुछ लोग इसे साबित करना चाहते हैं। (जारी)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)