दर्द पुराना है कि मोदी हटता क्यों नहीं।
प्रदीप सिंह।
भारतीय मूल के ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन गए हैं। वह ब्रिटेन के पहले अश्वेत प्रधानमंत्री हैं- वही ब्रिटेन जिसने लगभग 200 साल हम पर राज किया। यह खुशी की बात हो सकती है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि सुनक ब्रिटेन में ही पैदा हुए, वहीं पले-बढ़े और वहीं के नागरिक हैं। उनका भारत से नाता सिर्फ इतना है कि उनके माता-पिता भारत के थे, उनकी पत्नी, सास-ससुर भारत से हैं। उनमें मुझे जो बात अच्छी लगी वह यह कि वह अब भी व्यावहारिक रूप से हिंदू हैं। अमेरिका, यूरोप, इंग्लैंड जाने वाले बहुत से भारतीय ऐसे हैं जो वहां जाने के बाद अपनी सुविधा के लिए, अपने लाभ के लिए धर्म बदल लेते हैं और हिंदू धर्म का परित्याग कर देते हैं। ऋषि सुनक के पास भी ऐसे तमाम अवसर थे। जिस तरह के पारिवारिक परिवेश में पैदा हुए, जिस तरह का उनका रहन-सहन रहा, ब्रिटेन में जिस तरह के शिक्षण संस्थानों में वह पढ़े- उनके लिए धर्म परिवर्तन कर लेना बहुत आसान था लेकिन उन्होंने नहीं किया।
वह सार्वजनिक रूप से जन्माष्टमी मनाने मंदिर जाते हैं। वित्त मंत्री रहते हुए दीपावली पर अपने दफ्तर में दिया जलाते रहे हैं और दूसरे हिंदू त्यौहार मनाते हैं। मेरे लिए ज्यादा खुशी की बात यह है बजाय इसके कि वह भारतीय मूल के हैं और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बने हैं। उनके बहाने भारत में बहुत से लोगों का आठ साल पुराना दर्द उभर आया है कि मोदी अभी तक क्यों प्रधानमंत्री हैं। उनका कहना है कि देखिए ब्रिटेन में किस तरह की डायवर्सिटी है कि एक अल्पसंख्यक को प्रधानमंत्री बना रहे हैं, क्या भारत में कभी ऐसा हो सकता है। यह बात शशि थरूर, पी. चिदंबरम, महबूबा मुफ्ती, तृणमूल कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने कही। दरअसल, उनका दर्द दूसरा है और दिखा कुछ और रहे हैं। उनका दर्द असल में यह है कि मोदी अभी तक प्रधानमंत्री क्यों हैं। इसके लिए कहा यह जा रहा है कि यह बहुसंख्यकों की सरकार है, इसलिए इसमें डायवर्सिटी की कोई गुंजाइश नहीं है। ये वही शशि थरूर हैं जिन्होंने 2009 में इंग्लैंड में एक कार्यक्रम में कहा था कि भारत की डायवर्सिटी देखिए कि एक ईसाई कैथोलिक महिला (सोनिया गांधी) चुनाव जीती हैं और वह अपनी जगह खाली कर एक सिख (डॉ. मनमोहन सिंह) को प्रधानमंत्री बनाती हैं और उनको शपथ दिलाते हैं एक मुस्लिम राष्ट्रपति (एपीजे अब्दुल कलाम)। उस समय वह जो डायवर्सिटी दिखाने की कोशिश कर रहे थे आज उसको भूल गए हैं। आज उनको लग रहा है कि भारत में डायवर्सिटी नहीं है। वह भूल गए हैं कि इस देश में चार राष्ट्रपति जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद, ज्ञानी जैल सिंह और एपीजे अब्दुल कलाम अल्पसंख्यक वर्ग से राष्ट्रपति बने। इसके अलावा देश में सबसे निचले पायदान पर जो दलित और आदिवासी समाज है, उससे पहले राष्ट्रपति बने रामनाथ कोविंद। बहुत से लोग कह सकते हैं कि आप के. आर. नारायणन को कैसे भूल सकते हैं। मैं बिल्कुल भूलने को तैयार हूं क्योंकि उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया था और ईसाई बन गए थे। इसलिए मैं उनको दलित राष्ट्रपति नहीं मानता। पहले दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद बने और मौजूदा राष्ट्रपति दौपदी मुर्मू आदिवासी समाज से आती हैं।
और कितनी डायवर्सिटी चाहिए
डायवर्सिटी का और क्या नमूना देखना चाहते हैं। सिख समुदाय के मनमोहन सिंह 10 साल देश के प्रधानमंत्री रहे। उनके अलावा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, आर्मी चीफ, एयर फोर्स चीफ, मुख्य चुनाव आयुक्त जैसे संवैधानिक पदों पर अल्पसंख्यक वर्ग के लोग रह चुके हैं। इससे बड़ी डायवर्सिटी आप क्या देखना चाहते हैं। जो कांग्रेस पार्टी डायवर्सिटी की बात उठा रही है और अल्पसंख्यकों की चिंता में दुबली हुई जा रही है उसको जरा उसका इतिहास दिखाने की जरूरत है। आजादी के बाद से कांग्रेस के 16 राष्ट्रीय अध्यक्ष बने जिनमें से एक भी अल्पसंख्यक समुदाय से नहीं था। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तो लोगों के वोट से बनते हैं उसे कोई बनाता नहीं है। मगर जब राष्ट्रपति, पार्टी अध्यक्ष बनाने या संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों का मौका आए तब आपकी परीक्षा होती है कि आप डायवर्सिटी में यकीन करते हैं या नहीं। इसलिए जब 16 अध्यक्ष बनाने का मौका था आपके पास तब आपने एक भी नहीं बनाया। देश को आजाद हुए 75 साल हो गए हैं। इन 75 सालों में 58 साल केंद्र में या तो कांग्रेस पार्टी की या उसके समर्थन वाली सरकार रही है। इन 58 सालों में मनमोहन सिंह को छोड़कर एक भी प्रधानमंत्री आपने अल्पसंख्यक, दलित या आदिवासी समुदाय से नहीं बनाया। 58 सालों में से 38 साल तो सिर्फ गांधी परिवार के लोग प्रधानमंत्री रहे। तब डाइवर्सिटी का ध्यान क्यों नहीं आया। दरअसल मामला डायवर्सिटी का नहीं है। उनको मालूम है कि इस देश में जितनी डायवर्सिटी है दुनिया के किसी देश में नहीं है। और यह सिर्फ इसलिए है कि इस देश का बहुसंख्यक समुदाय सनातन धर्म को मानने वाला है। सदियों से दूसरे धर्मों के, संप्रदाय के, अलग-अलग विचारों के लोग यहां पर आते रहे हैं, शरण पाते रहे हैं और यहां फलते- फूलते रहे हैं। दुनिया का कोई और देश दिखाइए जहां इतने धर्म, मजहब और पंथ के लोग हों। यह देश तब तक ऐसा बना रहेगा जब तक यहां सनातन धर्म को मानने वाले बहुसंख्यक रहेंगे।
उनकी असल समस्या मोदी
दरअसल, इन लोगों की समस्या नरेंद्र मोदी हैं। इन लोगों को यह बात समझ में नहीं आती है कि ऋषि सुनक इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बने कि वह भारतीय मूल के हैं या ब्रिटिश बहुसंख्यक गोरे नहीं हैं। वह अपनी योग्यता के कारण प्रधानमंत्री बने हैं। पहला पैमाना योग्यता है- उसके बाद बाकी कुछ आता है। समस्या यह है कि दिन पर दिन मोदी के विरोध में एकजुट लोगों का दर्द बढ़ता जा रहा है। उसकी वजह है। नरेंद्र मोदी अकेले ऐसे नेता हैं जो प्रधानमंत्री के रूप में अपने निर्वाचित कार्यकाल के नौवें साल में भी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। इससे पहले कोई प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ। इसमें नेहरू को भी जोड़ लीजिए। जवाहरलाल नेहरू पहली बार निर्वाचित हुए 1952 में।1960 बीतते-बीतते उनकी लोकप्रियता नीचे जाने लगी थी और 1962 आते-आते उनकी स्थिति ऐसी हो गई थी कि अगर 1967 के चुनाव तक वह जीवित रहते तो हो सकता है कि वह हार भी जाते। आज तक देश में कोई ऐसा नेता नहीं हुआ जिसकी लोकप्रियता उनके निर्वाचन के कार्यकाल के नौवें साल में भी बरकरार रहे। इससे पहले नेहरू को छोड़कर सारे प्रधानमंत्री अपने निर्वाचन कार्यकाल के तीसरे साल तक आते-आते लोकप्रियता खो चुके थे। उनके खिलाफ देश में उन्हें हटाने का माहौल बनने लगा था। इनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी सहित बाकी प्रधानमंत्री भी आते हैं। नरेंद्र मोदी अकेले ऐसे हैं जिनके साथ ऐसा नहीं हो रहा है। इसका कुछ तो कारण होगा। आपकी इच्छा से तो नरेंद्र मोदी हटने वाले नहीं हैं। नरेंद्र मोदी या कोई भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तभी हटेगा जब जनता चाहेगी। आपकी जो यह सोच है कि ब्रिटेन जैसा यहां कब हो सकता है यानी क्या मोदी को हटाकर किसी और को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है, क्या भारतीय जनता पार्टी ऐसा कर सकती है… क्यों करेगी?
मोदी के खिलाफ अभियान
आप कहना यह चाह रहे हैं कि जो जनमत है उसकी अवहेलना की जाए। आप इस तरह का दबाव डालना चाहते हैं कि देखिए मोदी को पीएम बनाकर भारतीय जनता पार्टी बहुसंख्यकवाद की राजनीति चला रही है। उसका डायवर्सिटी में यकीन नहीं है। यह बात लोगों के गले नहीं उतरने वाली है। यह जो आपका दर्द है कि मोदी अभी तक प्रधानमंत्री क्यों हैं, यह विलाप, अपनी यह शिकायत लेकर मतदाता के पास जाइए। मीडिया में जाने से, दुनिया में शोर मचाने से ऐसा कुछ होने वाला नहीं है। दरअसल, एक बड़ा अभियान शुरू हो चुका है और अब यह शिखर पर आने वाला है। मैं बार-बार कह रहा हूं और 2024 तक इस बात को कहता रहूंगा कि भारत ही नहीं विश्व के स्तर पर ऐसा हो रहा है कि मोदी को हटना चाहिए। भारत में ऐसा मजबूत प्रधानमंत्री नहीं चाहिए- इतनी ताकतवर सरकार नहीं चाहिए- ऐसी सरकार नहीं चाहिए जो हमारे इशारे पर न चले। अगर ऐसी सरकार नहीं है तो उस सरकार को जाना चाहिए। यह दुनिया के तमाम बड़े देशों की इच्छा है और प्रयास भी है। इसलिए 2024 आते-आते आपको दिखेगा कि किस तरह का अभियान मोदी और इस सरकार के खिलाफ चलता है। जो लोग अल्पसंख्यकों की चिंता में, डायवर्सिटी की चिंता में घुले जाते हैं उनसे पूछिए कि गैर भाजपा राज्यों के जितने मुख्यमंत्री हैं क्या वह अपने मुख्यमंत्री को हटाकर किसी अल्पसंख्यक समुदाय के या हाशिये पर पड़े किसी समुदाय के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार हैं। महबूबा मुफ्ती को बड़ा दर्द हो रहा है अल्पसंख्यक का तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या वह जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री स्वीकार करने को तैयार हैं। वहां तो हिंदू अल्पसंख्यक हैं।
मतदाता साथ तो फिक्र की क्या बात
सीएए, एनआरसी का मुद्दा उठाया जा रहा है जिसका कोई संबंध नहीं है एंटी माइनॉरिटी से, बल्कि यह माइनॉरिटी के पक्ष में है।सीएए यानी सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट तो बांग्लादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा के लिए है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है, कैसे सच्चाई को गलत रौशनी में दिखाने की कोशिश होती है, सीएए उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसे लेकर जिस तरह का दुष्प्रचार किया गया कि जैसे यह इस देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो, जबकि यह इस देश के मूल नागरिकों- जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे थे- उनके संरक्षण के लिए है। आने वाले महीनों में बहाने खोज-खोज कर, अलग-अलग मुद्दों को इसी तरीके से पेश करने की कोशिशें होती रहेंगी। 2024 तक यह अभियान चलेगा। इस देश का विपक्ष इतना कमजोर हो चुका है कि उसके पास मोदी से लड़ने की ताकत नहीं बची है। वह मोदी से लड़ने के लिए रणनीति, संसाधन सब कुछ आउटसोर्स कर रहा है। उस आउटसोर्स का नतीजा आपको आने वाले महीनों में बहुत व्यापक रूप से दिखेगा जब एक साथ इस सरकार पर हमला शुरू होगा। लेकिन सवाल वही है कि ‘जाको रखे साइयां, मार सके ना कोय।’ पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी में बचाने वाले मतदाता हैं। जब तक मतदाता किसी भी पार्टी, नेता और सरकार के साथ हैं तब तक उनके विरोधी कुछ नहीं कर सकते। नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत हैं इस देश के मतदाता। उनका भरोसा मोदी पर है और उनके भरोसे की ताकत पर ही मोदी आज बड़े-बड़े जोखिम लेने वाले काम कर रहे हैं और नीतियां बना रहे हैं। इसी वजह से कि उनको भरोसा है कि लोगों को मुझ पर भरोसा है। आप कैसी भी रणनीति आउटसोर्स कीजिए, चाहे जितने संसाधन लाइए उससे इस भरोसे की स्थिति में बदलाव नहीं आने वाला है।
ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने हैं तो बस यहीं तक खुशी मनाइए कि वे भारतीय मूल के हैं। उसके बाद देखिए कि वह भारत के लिए कितने लाभकारी हैं। उनके बनने से भारत को फायदा होता है या नुकसान- इसके ही आधार पर तय करेंगे कि उनकी प्रशंसा करेंगे या आलोचना। उनके प्रधानमंत्री बनने तक ही भारतीय मूल का मुद्दा है। जब वह काम करना शुरू करेंगे और भारत के खिलाफ स्टैंड लेंगे तो हम भूल जाएंगे कि वह भारतीय मूल के व्यक्ति हैं। जो इंग्लैंड में डायवर्सिटी खोज रहे हैं उनको अपने देश की डायवर्सिटी की ओर ध्यान देना चाहिए। यह इस देश की डायवर्सिटी ही है कि एक विदेशी महिला देश की सबसे बड़ी पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाती है और 20 साल तक बनी रहती है। प्रधानमंत्री नियुक्त करती हैं और पीछे से सरकार चलाती हैं। इसलिए देश की डायवर्सिटी का रोना छोड़ दीजिए क्योंकि असल मुद्दा यह है ही नहीं। इस पर आप एक्सपोज हो रहे हैं। आप सीधे कहिए कि आपको तकलीफ यह है कि नरेंद्र मोदी अभी तक कैसे प्रधानमंत्री बने हुए हैं। सारी कोशिश करके और सारी ताकत लगाकर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाए। इसका जवाब जनता के पास ही मिलेगा। जमीन पर और जनता के बीच जाइए, ऋषि सुनक के बहाने उनके कंधे पर बंदूक रखकर चलाने की जरूरत नहीं है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)