जिंदगी हाशिए पर

-सत्यदेव त्रिपाठी

भोपाल इस मायने में बड़े आला दर्जे का शहर लगा मुझे कि वहां फुटपाथ पर रहने वालों को यदि बसाने का उपक्रम नहीं किया जाता, तो भगाया भी नहीं जाता। पुलिस उनसे हफ्ता मांगने नहीं आती। महानगरपालिका वाले उनके बासे को उजाड़ने नहीं आते। मुम्बई में तो बेतरह भगाते हैं और वहां की पुलिस व महानगरपालिका वालों की निश्चित आमदनी का स्रोत है यह। लेकिन मध्यप्रदेश के ही काफी पिछड़े जिले सीधी तक में भी कमोबेश यही हाल है। बस, अविश्वसनीय ढंग से अपवाद मिला भोपाल। ये अलग बात है कि इस उदारता या उपेक्षा के बावजूद सड़क-निवासी बस भी कहां पाते हैं? उनकी आकबत, उनकी करनी- ‘उजड़े हरख, बिषाद बसेरे’!


 

खुले आसमान के नीचे मुक्त आवास

रानी मीना ठाकुर के जीवन की यही कहानी है।

प्रोफेसर कॉलोनी भोपाल का मलाई (क्रीम) इलाका है, जिसके जिस चौराहे पर मीना का खुले आसमान के नीचे मुक्त आवास है, उससे सौ कदम दक्षिण जाएं, तो सरकारी विश्रामालय (सर्किट हाउस) और भव्य महिला महाविद्यालय है। दो सौ कदम पूरब चले जाएं, तो मशहूर रवीन्द्र भवन मिलेगा। बीस कदम उत्तर दिव्य बॉम्बे चिल्ड्रेन हॉस्पिटल है और पश्चिम में ‘टेन सूट्स’ होटल, जिसके ‘ढब्बू’ सूट में पिछले अप्रैल-मई मिलाकर 15 दिनों के अंतराल पर ‘कादम्बरी’ के मंचन की तैयारी के सिलसिले में दस दिनों ठहरने का मौका बना। पहली ही सुबह वॉक पर निकला, तो चौराहे के दक्षिणी-पूर्वी कोने पर दो आकृतियों को घोडे बेचकर सोते पाया।

मुम्बई में घर से जुहू जाते हुए ढेरों ऐसे नजारों की तरह इस दृश्य ने भी उत्सुकता जगाई, पर बिराने शहर के नाते थसमसा गया। सामने के चाय वाले के यहां चाय पीनी ही थी। वह इस नुक्कड़ का मठाधीश लगा। बोला- कर लीजिए बात, जब चाहिए। मैं कह दूंगा। पर सुबह मैं निकलूं, तो मीना सोती रहे और वापसी में रोज रात हो जाए। वह आंटा गूंथते, भाजी काटते आदि दिखे, तो बात करना ठीक न लगे। और उस बार बात रह गई।

पूछिए, क्या बात करनी है

15 दिनों बाद फिर पहुंचा- उसी ढब्बू सूट में। इस बार एक दिन 4 बजे लौट आया, तो मीना न थी, उसी जगह पर एक शरीफ-सा आदमी गुमटी लगाये कुछ खाने-पीने की चीजें बेचता मिला। ख्याल आया, उसका बाकड़ा रोज दिखता है, जिसे मैं मीना का ही कोई सामान समझता था। पता लगा कि दिन को वो जगह इस आदमी के लिए तय है। उसने मीना की बावत कहा- बात कीजिए, वह तो कुछ भी बोलेगी। फिर गोशे में फुसफुसाया- कई मर्द बदल चुकी है। और मैंने बिदक कर यह विचार छोड़-सा दिया- विमुख हो चला।

भोपाल से चलने के एक दिन पहले की दोपहर को मीना सामने ही पड़ गई और मैंने अचानक पूछ लिया- कुछ बात करूं? वह इशारे से अपने बासे की तरफ जाकर बोली- पूछिए, क्या बात करनी है?  हिन्दी बड़ी साफ और आवाज बड़ी खनकती-सी। बात के बाद फोटो का कहा, तो बगल में पड़ी चुन्नी उठाकर खिंचाने की मुद्रा (पोज) में सोत्साह खड़ी हो गई। न ज्यादा कुछ पूछा, न सकुचाई।

20 साल से इसी चौराहे के फुटपाथ पर

पता चला- मूलत: इन्दौर की रहने वाली है। 20 साल पहले शादी करके यहां आई। तब से यहीं इसी चौराहे के फुटपाथ पर ऐसे ही रहती है। तभी से कबाड़ बीन-बीन कर बेचने का धन्धा करती है। पिता भी यही करते थे। एक तरह से यह इनका खान्दानी पेशा है। न कभी इसे बदलने की जरूरत महसूस हुई, न इच्छा हुई। आज की तारीख में रोज का औसत दस से पन्द्रह किलो कबाड़ बीन-बेच लेने का है। सारे सामान के अलग-अलग भाव हैं- पानी की बोतलें 10 रुपये किलो, पुट्ठा हुआ तो 8 रुपये, प्लास्टिक के बर्तन 20 रुपये… आदि। औसत दाम 15 रुपये किलो पड़ता है। इस तरह 150 से 200 रुपये रोज के मिल जाते हैं।

पति 2017 में मर गये। वे थे, तो ज्यादा धन्धा होता था, लेकिन खर्च भी ज्यादा था- ‘सब मिलाकर हालत वैसी ही है’। कबाड़ बिकने की स्थिति एकदम आसान है। किसी कबाड़ी को दे आते हैं। बीनने की बड़ी किल्लत है। बहुत चलना-खोजना पड़ता है। किसी का रखा हुआ नहीं लेना होता। फेंका हुआ, टूटा-फूटा, पड़ा हुआ ही लेना होता है। कभी-कभी उसमें भी टोका-टोकी हो जाती है। इसीलिए यहां आने, खाना बनाने का कुछ ठिकाना नहीं होता। दिन भर चलते-चलते थक भी जाते हैं, सुबह उठा नहीं जाता। देर-देर तक सोते हैं। बारिश हुई, तो फजीहत। यहां-वहां भागो। लाइट तो सड़क की अच्छी रहती है। पानी यहां-वहां से ले आते हैं। नदी में नहा आते हैं। कभी नहीं नहा पाते।

क्या करें, आदत पड़ गई है

मैंने बीच में ही पूछ दिया- इतना सब दिक्कत ही दिक्कत है, फिर भी काम बदलने की, कुछ और करने की कोशिश नहीं करते?

टप से बोली मीना- क्या करें, आदत पड़ गई है। कुछ और होता ही नहीं। यही करते आये हैं। तो सबसे अधिक सुख इसी में है।

हिम्मत करके मैंने उस दूसरे आदमी के बारे में पूछा, तो खट से जवाब मिला- मेरे ससुर हैं। जब से पति गये, देखभाल के लिए मेरे साथ रहते हैं। उनके घर रहने नहीं जाती, क्योंकि वह भी तो ऐसे ही है फुटपाथ… तो क्या जाएं? यहां मेरा ही अच्छा है। तो वही यहां आ गये। बाकी पूरा परिवार है इनका। काम में हाथ बंटाते हैं।

मीना की दुखती रग और रहस्य हैं- उसके तीन बच्चे। बड़े-बड़े हैं- दो बेटियां, एक बेटा। उन्हें भोपाल से 20-25 किमी. दूर माखा में अपनी बहन के पास भोज दिया है या वह ही लेके चली गई है। न मीना उनसे मिलने जाती। न वही आते। जब से गये, कभी नहीं मिले। कारण पूछने पर टप-टप बोलने वाली मीना की जुबान अटक गई और टप-टप आंसू गिरने लगे… और बात बन्द हो गई।

जरूर कोई बात है, जो बताने की नहीं, तो हाशिए के दायरे की नहीं!

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