क्या ये साथ-साथ मौजूद नहीं रह सकते
बी.पी. श्रीवास्तव
सेक्युलरिज्म और देश का ऐथोस (प्रकृति) दो अलग अलग शब्द हैं। उनके अलग अलग दायरे हैं। सेक्युलरिज्म धर्म और भाषा के आधार पर भेदभाव के बिना देश के सभी नागरिकों को बराबरी के दर्जे, अधिकार और अवसर का प्रतीक है। देश की प्रकृति समाज या समूह विशेष से जुड़ी सभ्यता, धारणाएं, प्रवृत्तियां, रस्म-रिवाज एवं लोकाचार को दर्शाती है।
ऐथोस से हर देश की अपनी अलग पहचान बनती है और उसके सामाजिक वातावरण की सुगंध आती है। उदाहरण के तौर पर जब कोई व्यक्ति अमेरिका या इंग्लैंड जाता है तो उसे आभास होता है कि वह एक क्रिश्चियन सभ्यता में है और जब वह मलेशिया पहुंचता है तो उसे वहां मुस्लिम सभ्यता का अहसास होता है। हालांकि ये तीनों सेक्युलर देश हैं।
भारत में इतनी उग्र भावनाएं क्यों
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए यह समझ के परे है कि भारत में रहने वाले लोगों के एक वर्ग में भारत की प्रकृति, सभ्यता व दर्शन के प्रति इतनी उग्र भावनाएं क्यों हैं? वह भी तब, जब भारत में सेक्युलरिज्म के मूल आदर्शों का पालन हो रहा है… और उसकी प्रकृति और सभ्यता देश के लम्बे सांस्कृतिक सफर का हिस्सा हैं।
धर्मनिरपेक्षता का गलत अर्थ
सामान्य तौर पर ऐसी उग्रता होनी तो नहीं चाहिए थी, पर वास्तविकता यह है कि देश के एक वर्ग में उग्र भावनाएं मौजूद हैं- जो कभी राफेल विमान को भारतीय वायुसेना में सम्मिलित करते समय की गयी शस्त्र पूजा को लेकर भयंकर रूप से सामने आती हैं… तो कभी किसी और घटना पर। इन उग्र भावनाओं का कारण ढूंढ़ने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। स्वतंत्रता के समय से ही देश की सरकारों की और देश में ऊंचे स्वर में बोलने वाले एक वर्ग की सोच एक विशेष राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित रही है, जो सेक्युलरिज्म का गलत मतलब निकालने से जुड़ी हुई हैं। या फिर यह उग्रता भारत के विभाजन के इतिहास के पहले की सोच का एक हिस्सा है, जो 73 साल बाद भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। ऐसे में इस विषय पर गहराई से सोचने की जरूरत है ताकि हम इस निर्णय तक पहुंच सकें कि सेक्युलरिज्म और देश की प्रकृति- साथ-साथ रह सकते हैं या नहीं।
भारत की मूल धारणा यह रही है कि कोई भी धर्म किसी दूसरे धर्म से छोटा या नीचा नहीं है। भारत की इसी सोच का नतीजा है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन के बाद भी उसने अपने को सेक्युलर देश ही बनाए रखने का निर्णय लिया। यह है भारत की सोच। इस पर भी देश के एथोस (प्रकृति) के कुदरती बहाव के बारे में मतभेद की बात पर आश्चर्य होना स्वभावक है।
भारत धार्मिक समाज वाला देश
जहां तक सेकुलरिज्म का सवाल है, यह शब्द उन परिस्थितियों से बहुत आगे जा चुका है जब 1846 में जैकब हॉल्योके ने इंग्लैंड में राज्य के मामलों में चर्च की दखलंदाजी खत्म करने की मुहिम चलाई थी और उसके लिए एक सोसाइटी की स्थापना की थी। आज सभी सभ्य देशों में सेक्युलरिज्म का मतलब देश के हर नागरिक को बराबरी का दर्जा, अवसर और सुविधाएं प्रदान करने से जुड़ा है। चाहे वह नागरिक किसी भी धर्म का क्यों न हो। इसके साथ ही सेक्युलरिज्म हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने की छूट देता है।
यह बात अलग है कि देश धर्म की मौजूदगी को मानता है या नहीं। या फिर वह धर्म की मौजूदगी को तो मानता है पर अपने को उसे अलग रखता है- जैसा कि भारत में है। इस सिलसिले में यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि भारत हमेशा से एक धार्मिक समाज वाला देश रहा है और यहां रहने वाले अधिकतर लोग धर्म रहित समाज पर विश्वास नहीं रखते हैं। इसी के चलते भारत के लोग मार्क्स की उस थ्योरी पर विश्वास नहीं करते जो कहती है- ‘धर्म एक जहर है’। वे गांधीजी के इस कथन को मान्यता देते हैं- ‘धर्म नैतिकता के लिए उसी प्रकार आवश्यक है जैसे जल धरती में बोये जाने वाले बीज के लिए।
भारत की मूल धारणा
भारत की मूल धारणा यह रही है कि कोई भी धर्म किसी दूसरे धर्म से छोटा या नीचा नहीं है। भारत की इसी सोच का नतीजा है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन के बाद भी उसने अपने को सेक्युलर देश ही बनाए रखने का निर्णय लिया। यह है भारत की सोच। इस पर भी देश के एथोस (प्रकृति) के कुदरती बहाव के बारे में मतभेद की बात पर आश्चर्य होना स्वभावक है।
सेक्युलरिज्म और भारत की प्रकृति के बीच किसी किस्म के टकराव की गुंजाइश ही नहीं है। दूसरे शब्दों में हिन्दू संस्कृति का दूसरी संस्कृतियों को अंधेरे में ढकेलने का सवाल ही नहीं पैदा होता है- जैसा जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा है? दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों को सम्बोधित करते हुए 6 नवंबर 1947 को उन्होंने कहा था: ‘मेरे भारतवर्ष में हिन्दू राज के विरोध का मतलब मेरा हिन्दू संस्कृति के विरुद्ध उग्रता से नहीं है। भारत एक बहुसंख्यक हिन्दू देश है। ऐसे में स्वाभाविक है कि देश में हिन्दू सभ्यता दूसरी सभ्यताओं के आगे चलेगी। पर मैं भारतवर्ष को एक मध्यकालीन विचार धारा वाला धर्मतांत्रिक राज्य बनाए जाने के सख्त खिलाफ हूं।’
अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का चश्मा
इन सब बातों को देखते हुए भारत की प्रकृति को लेकर कोई विरोध होना ही नहीं चाहिए था। दुर्भाग्य से हम अभी भी भारत के विभाजन के समय वाली सोच से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। संभवत: इसीलिए हम देश को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक नजरिए से देखने से बाज नहीं आ पा रहे हैं- मशहूर जूरिस्ट एमसी छागला ने अपनी किताब, ‘रोजेज इन दिसंबर’ में इसे राष्ट्रीय एकता में बाधक बताया है।
अमेरिका में कोई व्यक्ति गुस्से से आंखें नहीं चढ़ाता जब वहां का राष्ट्रपति बाइबिल हाथ में लेकर शपथ लेता है। इसी प्रकार जब इंग्लैंड में पार्लियामेंट के ‘हाउस आफ लॉर्ड्स’ का अधिवेशन ‘लार्ड स्पिरिचुअल’ की कही गयी प्रार्थना से शुरू होता है और ‘हाउस आफ कॉमन्स’ में ‘स्पीकर चैपलिन’ से गाई प्रार्थना से… तब भी कोई इसका विरोध नहीं करता। इसके अलावा जब इंग्लैंड के महाराजा या महारानी की राजगद्दी के समय, आर्चबिशप आफ कैंटरबरी ‘वेस्टमिनस्टर अबे’ की एक सर्विस में, पवित्र किए हुए तेल से उनका अभिषेक करते हैं- तो इसमें भी कोई बुराई नहीं मानी जाती। फिर क्यों भारत में इसी तरह की रस्मों पर एक वर्ग के लोग एतराज करते हैं। पता नहीं वे इस बात पर क्यों राजी नहीं हो पा रहे हैं कि देश में उसका ऐथोस और सेक्युलरिज्म साथ साथ मौजूद रह सकते हैं।
(लेखक ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स इंडिया लिमिटेड (बेसिल) के वरिष्ठ सलाहकार हैं)