नवीन जोशी।
अभी तक यह माना जाता था कि मानव ने करीब 1,70,000 वर्ष (एक लाख सत्तर हजार साल) पहले पहली बार आग पर खाना पकाया था। दक्षिण अफ्रीका की एक गुफा में मिले जंगली कंद के जले हुए अवशेष मिलने से यह निष्कर्ष निकाला गया था। कंद के ये अवशेष एक लाख सत्तर हजार साल पहले के पाए गए। अब नई खोज से पता चला है कि हमारे पूर्वजों ने कोई 7,80,000 (सात लाख अस्सी हजार) वर्ष पूर्व पहली बार आग पर अपना भोजन पकाया था। हाल ही में इस्राइल में जॉर्डन नदी के किनारे एक जगह पुरातत्वविदों को मछलियों की दो प्रजातियों के भुने हुए दांत मिले हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि हमारे पुरखे 7,80,000 साल पहले आग का नियंत्रित उपयोग करते हुए खाना पकाना जानते थे। इस तरह आग पर खाना पकाने की शुरुआत की हमारी जानकरी करीब छह लाख वर्ष पीछे पहुंच गई है।
कॉलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ में आज प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि तेल अवीव विश्वविद्यालय के स्टेनहार्ट म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री और ओरानिम अकेडमिक कॉलेज के क्यूरेटर आइरिट ज़ोहार ने इस पुरातात्विक अध्ययन का नेतृत्व किया। आइरिट बताती हैं कि इस खोज का अर्थ यह भी है कि खाना पकाने के लिए आग का पहली बार उपयोग करने का श्रेय होमो सेपियंस (आधुनिक मनुष्य के सगे पूर्वज) की बजाय ‘होमो इरेक्टस’ (मनुष्य के विकास क्रम का और भी पुराना चरण)  को जाता है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जॉर्डन नदी के तट पर स्थित उत्खनन स्थल ‘गेशर बेनेट याकूव’ से मछलियों के जो भुने हुए अवशेष मिले हैं उनसे इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं कि उस जगह पर मछली पकाई और खाई गई थी।
How to Cook Over a Fire - Outside Online
विज्ञानी बहुत पहले से यह मानते आए थे कि आधुनिक मानव के लुप्तप्राय पुरखे ‘होमो इरेक्टस’ ने, जो 18 लाख वर्ष से ढाई लाख वर्ष पहले तक अफ्रीका और यूरेसिया में रहते थे, अग्नि की खोज कर ली थी और वे उसका नियंत्रित उपयोग करके अपना भोजन भी पकाने लगे थे। ‘होमो सेपियंस’ यानी हमारे सगे पूर्वज इस धरती पर दो लाख वर्ष पहले प्रकट हुए। 2004 में पुरातत्वविदों ने इसी स्थल पर मिले चकमक पत्थर, लकड़ी और अन्य वस्तुओं के आधार पर यह पहचान कर ली थी कि वे आग का नियंत्रित इस्तेमाल जानते थे। गेशर बेनेट याकूव  इलाके में प्रारम्भिक मनुष्य के निवास करने के प्रमाण मिलते हैं।
अध्ययन दल का नेतृत्व करने वाली जोहार और उनकी टीम ने इस उत्खनन स्थल से विभिन्न परतों में मिले मछलियों के 39,000 अवशेषों का अध्ययन-विश्लेषण किया है। सभी में आग के उपयोग अर्थात उन्हें पकाए जाने के प्रमाण हैं। मछलियों के इन अवशेषों में दो विशेष प्रजातियां सर्वाधिक पाई गई हैं। अगर ये मछालियां यहां प्राकृतिक तौर पर एकत्र हुई होतीं तो उनकी प्रजातियों में कहीं ज्यादा विविधता होती, ऐसा भी विज्ञानियों का मानना है। अवशेषों में मछलियों के दांत ही पाए गए हैं, बाकी कांटे नहीं मिले हैं। उनमें चूल्हे के भी निशानात हैं। मछलियों के कांटे नहीं मिलने का अर्थ विज्ञानी यह लगाते हैं कि मछलियों को नियंत्रित आंच पर देर तक पकाया गया होगा, जिससे दांत तो बच गए लेकिन कांटे गल गए। नेशनल हिस्ट्री म्यूजियम, लंदन में एक विशेष प्रकार के एक्स-रे से यह साबित हुआ कि मछलियों को 500 डिग्री सेल्सियस से कम आंच पर पकाया गया होगा, इसीलिए वे जली नहीं। 200 से 500 डिग्री तापमान में कांटे गल जाते हैं  लेकिन दांत साबुत रहते हैं।
सुश्री जोहार ने बताया कि जॉर्डन नदी के उस तट पर आज भी मछलियों की वे प्रजातियां पाई जाती हैं जिनके अवशेष प्राप्त हुए हैं, हालांकि अब उनका आकार छोटा मिलता है। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि सतत प्रवास के उस काल में भी मानव समाज नदियों के आस-पास बसता रहा था ताकि साल भर उसे भोजन मिलता रहे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह आलेख उनके ब्लॉग से साभार लिया गया है जो The Telegraph, Calcutta में 15 नवंबर 2022 को प्रकाशित G S Mudur की रिपोर्ट पर आधारित है)