मैनपुरी का गढ़ बचा पाएंगे या आजमगढ़-रामपुर वाला होगा हश्र।

#pradepsinghप्रदीप सिंह।

उत्तर प्रदेश के मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र का जो उपचुनाव हो रहा है वह महज एक सीट का चुनाव नहीं है। इसको इस रूप में मत देखिए कि एक सीट का उपचुनाव है, कोई जीता या हारा क्या फर्क पड़ता है। 14-15 महीने बाद 2024 में फिर से लोकसभा चुनाव होने हैं तो एक सीट का कोई महत्व नहीं है। इस सीट पर हार या जीत उत्तर
प्रदेश की राजनीति में कई चीजें तय करने जा रही है। मुस्लिम-यादव गठजोड़ की जो राजनीति 30 साल से चली आ रही है क्या वह चलती रहेगी? सपा और बसपा में कौन बीजेपी का प्रतिद्वंद्वी बनेगा यह भी तय होगा। मायावती जिस तरह की राजनीति कर रही हैं और असली बात, राजनाथ सिंह इस बार डिंपल यादव के बचाव में नहीं आ पाए हैं। वह किस्सा क्या है इसकी भी बात करूंगा लेकिन पहले इस चुनाव क्षेत्र की बात कर ले रहा हूं।

 

यह चुनाव क्षेत्र मुलायम सिंह यादव परिवार का एक तरह से गढ़ माना जाता है क्योंकि बगल में ही उनका पैतृक गांव सैफई है। सैफई सीट से शिवपाल यादव विधानसभा के सदस्य हैं। यह मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र में ही आती है। इस लोकसभा क्षेत्र की दूसरी सीट करहल है जहां से अखिलेश यादव विधानसभा के सदस्य हैं। तीसरी सीट है कुनही जहां से सपा का उम्मीदवार जीता है। बाकी दो विधानसभा सीटें बीजेपी के पास है। इस क्षेत्र की जो सामाजिक संरचना है उसमें यादव और शाक्य मतदाताओं की बहुलता है और दोनों में प्रतिद्वंद्विता चलती रहती है। यादव मतदाता करीब 4.5 लाख हैं और शाक्य मतदाताओं की संख्या 3 लाख से ऊपर है। कुल मिलाकर लड़ाई दो सामाजिक समूहों के बीच है जो उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिशा तय करेगी। इस सीट से मुलायम सिंह यादव पहली बार 1996 में लोकसभा पहुंचे थे। वह चार बार यहां से जीते और एक बार को छोड़कर कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। पहली बार 1996 में जीते और 1998 में लोकसभा भंग हो गई तो दोबारा चुनाव हुए। उसके बाद 2004 में चुनाव लड़े। 2004 में वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और इस उम्मीद में चुनाव लड़े कि शायद जो गठबंधन बनेगा उसमें उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना बन सकती है। लेकिन जब वह गुंजाइश नहीं दिखी तो लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद उनके भतीजे धर्मेंद्र यादव उपचुनाव लड़े और जीते। 2009 में मुलायम फिर से इस सीट से जीते और अपना कार्यकाल पूरा किया। 2014 में वह 2 सीटों से लड़े, आजमगढ़ और मैनपुरी। दोनों जगह से चुनाव जीते लेकिन मैनपुरी की सीट उन्होंने छोड़ दी। उसके बाद वहां से उनके भाई के पोते तेज प्रताप यादव चुनाव लड़े और जीते।

अखिलेश ने दिखा दी कमजोरी

मुलायम सिंह तेज प्रताप यादव को ही प्रमोट कर रहे थे। चुनाव क्षेत्र में लोगों से संपर्क करने और बाकी कामों के लिए उन्हीं का इस्तेमाल करते थे। एक तरह से मैनपुरी में उनके प्रतिनिधि वही थे। तेज प्रताप यादव की शादी लालू प्रसाद यादव की बेटी से हुई है। उपचुनाव के लिए उम्मीदवार तय करने का जब मौका आया तो अखिलेश यादव परिवार का संतुलन नहीं बिठा पाए। धर्मेंद्र यादव आजमगढ़ से लड़ना नहीं चाहते थे। उनको जबरन भेजा गया था और वह चुनाव हार गए। वहां अखिलेश यादव चुनाव प्रचार करने भी नहीं गए। उनका कहना था कि उपचुनाव में मैं चुनाव प्रचार नहीं करता। अब वह घूम-घूम कर चुनाव प्रचार कर रहे हैं और हर कोशिश कर रहे हैं। युद्ध और चुनाव में यह कहा जाता है कि अपने दुश्मन को अपनी कमजोरी नहीं दिखानी चाहिए। अखिलेश यादव ने शुरू से ही कमजोरी दिखा दी। जैसे ही चुनाव की अधिसूचना जारी हुई उन्होंने मैनपुरी के जिलाध्यक्ष को हटाकर आनंद शाक्य को सपा का जिलाध्यक्ष बना दिया। पहला संकेत तो उन्होंने यही दिया कि यह हमारा कमजोर पक्ष है। दूसरा, जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय महामंत्री केसी त्यागी से बयान दिलवाया गया कि मुलायम सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिए कोई और पार्टी अपना उम्मीदवार न खड़ा करे। अब सवाल यह था कि किससे यह अपील की गई, सिर्फ बीजेपी से, बीजेपी के अलावा किसी और से हो भी नहीं सकती थी क्योंकि बहुजन समाज पार्टी सैद्धांतिक तौर पर उपचुनाव नहीं लड़ती लेकिन आजकल वह रणनीति के हिसाब से इसका फैसला करती है। दूसरा, कांग्रेस पार्टी ने तो 2019 में मुलायम सिंह के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था इसलिए उपचुनाव में उम्मीदवार खड़ा करने का कोई अर्थ नहीं था। कुल मिलाकर यह था कि बीजेपी अपना उम्मीदवार खड़ा न करे, इसकी कोशिश करवाई अखिलेश यादव ने। यह उनकी कमजोरी का दूसरा पक्ष था। तीसरा पक्ष था परिवार। वह परिवार की एकता का प्रदर्शन नहीं कर पाए। डिंपल यादव के नामांकन में शिवपाल यादव और अपर्णा यादव नहीं गए। नामांकन के बाद रामगोपाल यादव ने जो बात कही वह अखिलेश यादव को नुकसान पहुंचाने वाली है। अपर्णा यादव के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह हमारे परिवार की सदस्य नहीं हैं। दूसरी पार्टी में चले जाने से परिवार की सदस्यता खत्म हो जाती है यह नया सिद्धांत रामगोपाल यादव ने दिया है।

शिवपाल की शरण में अखिलेश

Patch-up and tie-up: Akhilesh meets uncle Shivpal, announces UP polls 'alliance' | Cities News,The Indian Express

अखिलेश यादव की यह जिम्मेदारी थी कि परिवार का बड़ा होने के नाते वह इस बात का खंडन करते कि हमारे राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं लेकिन वह हमारे परिवार की सदस्य हैं, लेकिन उन्होंने खंडन नहीं किया। शिवपाल यादव नामांकन में नहीं आए तो उसके बाद उन्होंने स्टार प्रचारक की लिस्ट में उनका नाम रख दिया। उन शिवपाल यादव का जिनको पार्टी से निकाल दिया था, पांच साल से जिनसे अखिलेश बात करने को तैयार नहीं थे, जो शिवपाल यादव घूम-घूम कर कहते थे कि फोन पर भी अखिलेश बात करने को तैयार नहीं हैं। विधानसभा चुनाव के बाद सहयोगी दलों के विधायकों की जो बैठक हुई उसमें शिवपाल यादव को नहीं बुलाया गया। जबकि शिवपाल यादव उन्हीं की पार्टी के सदस्य हैं, वह सपा के सिंबल पर ही चुनाव लड़े थे। शिवपाल यादव के बारे में अखिलेश यादव कहते थे कि बीजेपी उनको ले क्यों नहीं लेती, उन्हीं शिवपाल यादव को स्टार प्रचारक बनाया, उन्हीं शिवपाल यादव के घर डिंपल यादव के साथ गए और उनसे मिलकर अनुरोध किया। उसके बाद सैफई में कार्यकर्ताओं की एक सभा हुई जहां मंच पर उन्होंने शिवपाल यादव के पैर छुए। शिवपाल यादव ने भी इसके बाद कहा कि परिवार में एकता है। यह चुनावी एकता कितने दिन चलेगी पता नहीं लेकिन इन सब बातों से अखिलेश यादव ने यह साफ कर दिया कि वह कमजोर हैं और डरे हुए हैं कि उपचुनाव हार न जाएं। इससे पहले आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा का उपचुनाव हार चुके हैं। अभी मैनपुरी लोकसभा सीट के साथ रामपुर विधानसभा सीट का भी उपचुनाव हो रहा जो आजम खान की सदस्यता रद्द होने के बाद खाली हुई है।

बसपा फैक्टर

अगर दोनों उपचुनाव समाजवादी पार्टी हार जाती है तो अखिलेश यादव के कैंप में यह चर्चा शुरू हो जाएगी कि क्या वह चुनाव जिताने की क्षमता रखते हैं क्योंकि दोनों सपा के गढ़ हैं। 2019 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव करीब 95 हजार वोटों से जीते थे, वह भी तब जब बसपा से गठबंधन था। जिस लोकसभा क्षेत्र की विधानसभा क्षेत्र से अखिलेश यादव विधायक हैं वह सीट हार जाएं, परिवार की सीट हार जाएं, पिता की सीट हार जाएं तो इसका संदेश बड़ा जाएगा। इस उपचुनाव में मुस्लिम-यादव और मंडल की राजनीति की भी परीक्षा होगी। इसलिए बहुत लोगों की नजर है इस पर। अब आइए सपा और बसपा की राजनीति के खेल पर। 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद से मायावती को यह बात समझ में आ गई है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति जिस मोड़ पर पहुंच गई है वहां सपा और बसपा में से एक ही सरवाइव करेगी। सरवाइव से मेरा मतलब है बीजेपी से लड़ने की स्थिति में। बीजेपी की प्रतिद्वंद्वी और नंबर 2 की पार्टी या तो सपा हो सकती है या बसपा। सपा अभी जिस जगह पर है बसपा उस पर कब्जा करना चाहती है। इसके लिए आप मायावती की रणनीति पर ध्यान दीजिए। आजमगढ़ और रामपुर में लोकसभा का उपचुनाव हुआ, दोनों समाजवादी पार्टी की गढ़ वाली सीटें थी। मायावती ने अपनी पार्टी की नीति के विपरीत जाकर आजमगढ़ में अपना उम्मीदवार उतारा। बसपा की नीति है कि वह उपचुनाव नहीं लड़ती है। मायावती को मालूम था कि उनका उम्मीदवार मैदान में नहीं होगा तो समाजवादी पार्टी जीत जाएगी। वहीं रामपुर में उन्होंने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया क्योंकि उनको मालूम था कि रामपुर में अगर उम्मीदवार खड़ा किया तो आजम खान जीत जाएंगे। कहां उम्मीदवार खड़ा करना है कहां नहीं बसपा अब इस रणनीति पर चल रही है।

सपा को कमजोर करने में जुटी हैं मायावती

मैनपुरी में बसपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है। सपा से जिस तरह का बसपा का झगड़ा है उसे देखते हुए यहां उम्मीदवार खड़ा नहीं करने का सीधा मतलब है कि उसका वोटर सपा के साथ नहीं जाएगा। वह या तो घर बैठेगा या भाजपा के उम्मीदवार के लिए वोट करेगा। मायावती की यह जो रणनीति है इसका एक मतलब लोग यह निकालते हैं कि वह भाजपा का समर्थन कर रही हैं। इसका इस बात से निष्कर्ष बिल्कुल मत निकालिए कि मायावती बीजेपी का साथ दे रही हैं, बल्कि वह समाजवादी पार्टी को कमजोर करना चाहती हैं। वह प्रदेश के मतदाताओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि सपा अब नीचे जा रही है वह बीजेपी से लड़ने की स्थिति में नहीं रह गई है। वह अपने घर नहीं बचा पा रही है इसलिए आप विकल्प के रूप में हमें देखिए। खासकर मुस्लिम मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि सपा बीजेपी से लड़ने की स्थिति में नहीं है। अगर बीजेपी से लड़ना है तो उसके लिए हम हैं। हमारे पास दलित वोट हैं। 9-10 फीसदी जाटव वोट हैं और उसके अलावा कुछ और दलित वोट मिलते हैं तो वह समाजवादी पार्टी के यादव वोट से बड़ा वोट बैंक बन जाता है। उसके साथ अगर मुस्लिम वोट बैंक मिलता है तो जो एमवाई समीकरण है उससे बड़ा समीकरण दलित-मुस्लिम का बन सकता है। उनके पॉलिटिकल सर्वाइवल का यही एकमात्र रास्ता है। अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक वह हर कोशिश करेंगी कि कैसे सपा को कमजोर किया जाए।

राजनाथ वाला रास्ता भी बंद

डिंपल यादव अपने राजनीतिक जीवन का तीसरा उपचुनाव लड़ रही हैं। पहले दो में एक में हार मिली और दूसरे में जीत। फिरोजाबाद से उनके खिलाफ कांग्रेस के राज बब्बर थे जो समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए थे। उन्होंने डिंपल यादव को हरा दिया। वह उनका पहला उपचुनाव था। दूसरा उपचुनाव उन्होंने 2012 में कन्नौज से लड़ा था। यह सीट अखिलेश यादव ने खाली की थी। मैंने ऊपर राजनाथ सिंह की बात की थी। डिंपल यादव दूसरी बार भी चुनाव हार जाएं, परिवार पर यह धब्बा न लगे इसके लिए मुलायम सिंह ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उस समय राजनाथ सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और लक्ष्मीकांत बाजपेयी प्रदेश अध्यक्ष थे। अब देखिए कि किस तरह से खेल हुआ। बसपा उपचुनाव लड़ती नहीं है तो बसपा से कोई खतरा नहीं था। दो अन्य उम्मीदवारों में एक निर्दलीय और एक किसी छोटी पार्टी से था। दोनों को साम दाम दंड भेद जो भी तरीका अपनाया गया हो उस तरीके से बिठा दिया गया। अब बची थी भाजपा। भाजपा ने अपने ही उम्मीदवार के साथ खेल कर दिया। नामांकन भरने का अंतिम समय था दोपहर 3 बजे। लखनऊ में भाजपा उम्मीदवार को नामांकन भरने के लिए फॉर्म दिया गया दिन के 11 बजे। उनके कानपुर पहुंचने से पहले ही आनन-फानन में लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और कहा कि हमारे उम्मीदवार को अखिलेश यादव ने जबरन रोक रखा है। उनको नामांकन भरने देने के लिए पहुंचने नहीं दे रहे हैं। वह नामांकन नहीं भर पाए और डिंपल यादव निर्विरोध चुनी गई। उत्तर प्रदेश के इतिहास में यह दूसरा मौका था जब ऐसा हुआ। इससे पहले 1952 में पुरुषोत्तम दास टंडन इलाहाबाद से निर्विरोध चुने गए थे। अब राजनाथ सिंह की स्थिति भाजपा में ऐसी नहीं रह गई है कि वह बीजेपी उम्मीदवार को नामांकन न भरने दें। इसलिए डिंपल यादव के लिए वह रास्ता खुल नहीं पाया।

क्यों इतना डरे हुए हैं अखिलेश यादव? किससे है डर?

हारे तो सारे समीकरण गड़बड़ा जाएंगे

कांग्रेस और बसपा लड़ नहीं रही है, निर्दलीय को वह मना लेते हैं, एकमात्र बीजेपी है जो लड़ती है। अगर उसका उम्मीदवार भी नहीं होता तो वह फिर से निर्विरोध जीत जातीं। अखिलेश यादव ने डिंपल यादव को चुनाव लड़ा कर बहुत बड़ा जोखिम लिया है। परिवार की सीट हार जाते हैं तो यह दाग तो लगेगा ही, अपनी पत्नी को भी दोबारा नहीं जीता पाए यह धब्बा भी लगेगा। 2019 में कन्नौज से नहीं जीता पाए जबकि उनका बसपा से समझौता था। चुनाव जीतने के लिए बसपा के वोट मिले इसलिए डिंपल यादव से कहा गया कि मंच पर सार्वजनिक रूप से मायावती के पैर छुएं। उन्होंने मायावती के पैर छुए और मायावती ने आशीर्वाद दिया। उसके बावजूद डिंपल यादव चुनाव नहीं जीतीं। भाजपा के सुब्रत पाठक वहां से सांसद चुने गए। यह जो तीसरा उपचुनाव है डिंपल यादव का यह उनका राजनीतिक भविष्य तय करेगा कि वह राजनीति में रहेंगी या उनके लिए आगे चुनाव लड़ना मुश्किल हो जाएगा लेकिन उससे ज्यादा समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के लिए। साथ ही इस समय जो विपक्षी एकता की कोशिशों में लगे हुए हैं, खासतौर से नीतीश कुमार की जो नजर उत्तर प्रदेश पर है कि अखिलेश यादव से समझौता करके यहां से चुनाव लड़ने का, यह सब समीकरण गड़बड़ हो सकते हैं अगर समाजवादी पार्टी मैनपुरी का उपचुनाव हार जाती है। बीजेपी के रघुवीर शाक्य बहुत मजबूत उम्मीदवार हैं। एक समय वह मुलायम सिंह के साथ ही थे। बताते हैं कि उनके शिवपाल यादव से बड़े अच्छे संबंध रहे हैं। शिवपाल यादव सचमुच बहू को आशीर्वाद देंगे या भीतरघात करेंगे किसी को पता नहीं है। सपा में चर्चा यह है कि अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव के बेटे का राजनीतिक करियर बनाने का जिम्मा लिया है। जबकि डिंपल यादव की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद उन्होंने कहा था कि मुझे तो मालूम ही नहीं है, मुझे तो मीडिया से पता चल रहा है। वहीं रामगोपाल यादव कह रहे थे कि उनसे पूछ कर उम्मीदवारी तय की गई है।
डिंपल यादव को उम्मीदवार बनाने के पीछे एक और कमजोरी है अखिलेश यादव की। वह यह तय नहीं कर पाए कि परिवार में किसको आगे बढ़ाना है, धर्मेंद्र यादव को या तेज प्रताप यादव को। मुलायम सिंह मैनपुरी में अपने उत्तराधिकारी के रूप में तेज प्रताप यादव को देखते थे लेकिन अखिलेश यादव ने उनके पक्ष में फैसला नहीं किया। अपनी प्रतिष्ठा, पत्नी की प्रतिष्ठा, पार्टी की प्रतिष्ठा, परिवार की प्रतिष्ठा और एमवाई समीकरण की राजनीति की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। उधर रामपुर में भी 45 साल बाद पहली बार आजम खान के परिवार का कोई सदस्य विधानसभा चुनाव में नहीं होगा। आजम के बगैर वहां सपा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिख रही है। अखिलेश यादव वहां चुनाव प्रचार के लिए जाएंगे या नहीं मुझे मालूम नहीं लेकिन यह जो उनका अहंकार था अभी तक कि मैं उपचुनाव में प्रचार के लिए नहीं जाता वह मैनपुरी ने तोड़ दिया है। मैनपुरी में उनको घर-घर जाना पड़ेगा अपनी पत्नी को जिताने के लिए। और तब भी नहीं जीता पाए तो पार्टी कार्यकर्ताओं के मन में अखिलेश के भविष्य को लेकर आशंका पैदा होगी कि वह कितनी दूर तक जा पाएंगे। ऐसे सारे सवाल उठेंगे। राजनीतिक परिघटना की दृष्टि से मैनपुरी का उपचुनाव बहुत महत्वपूर्ण है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)