डॉ. गोविन्द सिंह।
समूची पत्रकारिता के केंद्र में है- सत्य. यानी पत्रकारिता का अर्थ है- सचको प्रकाश में लाना. किसी घटना की सच्ची रिपोर्टिंग करना. यानी सच खोजना, सच बोलना, सच लिखनाऔरसच को स्थापित करना. फिर सवाल उठता है कि सच किसका, कौन- सा और कैसा? आँखों देखा, कानों सुना या किसी और के द्वारा रोपा-थोपा हुआ?
दो दृष्टियाँ
पत्रकारिता में सत्य को स्थापित करने दो दृष्टियाँ हैं. एक भारतीय और दूसरी पाश्चात्य. पश्चिम की दृष्टि कहती है कि आँखों देखे सच को ज्यों का त्यों बयान कर दो. यानी पत्रकार को तटस्थ होकर घटना का विवरण लिख देना चाहिए. इस हद तक तटस्थ कि अपना विवेक इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. यानी अपने विचार को अपने भीतर रख कर घटना का यथातथ्य विवरण प्रस्तुत करना चाहिए.तटस्थता को देखने के भी दो तरीके हैं: एक, शुद्ध वस्तुनिष्ठ. यानी सत्य के चित्रण में बिलकुल भी बाह्य हस्तक्षेप नहीं चलेगा. इसे आम तौर पर आजकल अमेरिकी दृष्टि माना जाता है. और दूसरी दृष्टि यूरोपीय है, जिसमें कुछ हद तक अपने विवेक के इस्तेमाल की छूट है. लेकिन मोटे तौर पर पश्चिमी दृष्टि घटनाओं को समतल धरातल पर देखती है. उन्हें उसी तरह से रिकॉर्ड करती है, जैसी कि वे घटती हैं. दूसरी तरफ भारतीय दृष्टि में सत्य को आगे प्रेषित करने में अपने विवेक और विचार का इस्तेमाल करना आवश्यक होता है. हर घटना रिपोर्ट करने की नहीं होती. सार-सार को गहि रहे, थोथा देहि उड़ाय. स्थूल जगत में घटनाओं का जो सागर उमड़ रहा है, उसमें से जो मतलब की घटना हो, जो अगली पीढ़ियों के लिए प्रासंगिक हो, उसे उचित शब्दों में व्यक्त कर दो. ख़ास करके जिस तक सच को पहुँचाया जाना है, उसकी रूचि-अरुचि का ध्यान रखा जाता है. श्रोता, पाठक या दर्शक के हित-अनहित का ध्यान रखा जाता है. यही नहीं आने वाली पीढ़ियों के हित-अनहित को भी ध्यान में रखना होता है. यानी सत्य एक अति पवित्र चीज है. वह ईश्वर के समान पवित्र है. वह ब्रह्म है. उसके व्यवहार की जिम्मेदारी भी हर किसी को नहीं सौंपी जा सकती.
आज का परिदृश्य
आज की भारतीय पत्रकारिता आम तौर पर सत्य के पश्चिम द्वारा बताये गए रास्ते पर चलती है. सत्य को देखने और उसे औरों के सम्मुख प्रस्तुत करने की पश्चिमी दृष्टि के साथ ही और भी अनेक तौर-तरीके हमने पश्चिम से सीख लिए हैं, क्योंकि आधुनिक पत्रकारिता के तौर-तरीके हमें पश्चिम से ही विरासत में मिले हैं. मसलन समाज में जो कुछ नकारात्मक है, गर्हित है, वही रिपोर्टिंग का विषय है, उसी को बाहर ले आइए, वही असली पत्रकारिता है. इसी तरह जो-कुछ अस्वाभाविक है, नाटकीय है, सनसनीखेज है, वही खबर है. बाक़ी चीजों का कोई ख़ास महत्व नहीं है, भलेही वे कितनी ही अच्छी क्यों न हों.
पाठक या दर्शक केवल उपभोक्ता नहीं
इसीलिए सत्य को प्रस्तुत करने के लिए अपने यहाँ अनेक हिदायतें दी गई हैं. मनुस्मृति कहती है:
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्। प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥
सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, किन्तु अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिये । ऐसा प्रिय भी नहीं बोलना चाहिए जो असत्य हो; यही सनातन धर्म है ॥
अर्थात पाठक या दर्शक केवल उपभोक्ता नहीं है, न ही पत्रकार या मीडिया कर्मी (जिसमें मीडिया स्वामी भी शामिल हैं) व्यापारी. जो पाठक को प्रिय हो, यह जरूरी नहीं कि वह उसके लिए हितकारक भी हो. इसलिए आँख बंद कर हर माल परोसने कि प्रथा बंद होनी चाहिए. मीडिया कर्मी को विवेकवान होना पडेगा.
इसी बात को भगवद्गीता में इस तरह से कहा गया है:
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।
अर्थात दूसरे को समझाने के लिये कही गई बात में यदि सत्यता, प्रियता, हितकारिता और अनुद्विग्नता -का अभाव हो तो वह वाणी सम्बन्धी तप नहीं है। जैसे सत्य वाक्य यदि अन्य एक, दो या तीन गुणों से हीन हो तो वह वाणी का तप नहीं है? वैसे ही प्रिय वचन भी यदि अन्य एक,दो या तीन गुणों से हीन हो तो वह वाणी सम्बन्धी तप नहीं है. तथा हितकारक वचन भी यदि अन्य एक,दो या तीन गुणोंसे हीन हो तो वह वाणी का तप नहीं है। तो फिर वह वाणीका तप कौन सा है? जो वचन सत्य हो और उद्वेग करनेवाला न हो तथा प्रिय और हितकर भी हो, वही वाणी सम्बन्धी परम तप है। यानी कहे जाने वाले शब्दों में तप यानी अनुशासन का होना अनिवार्य है.
धर्म और सत्य
दूर क्यों जाएँ, हमारे राष्ट्रीय घोष वाक्य सत्यमेव जयते का अर्थ है- “सत्य की सदैव ही विजय होती है”। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। वेदान्त एवं दर्शन ग्रंथों में जगह-जगह सत् असत् का प्रयोग हुआ है। सत् शब्द उसके लिए प्रयुक्त हुआ है, जो सृष्टि का मूल तत्त्व है, सदा है, जो परिवर्तित नहीं होता, जो निश्चित है। इस सत् तत्त्व को ब्रह्म अथवा परमात्मा कहा गया है। मुण्डक उपनिषद में वर्णित यह वाक्य पिछले ढाई हजार साल से हमारा आदर्श बना हुआ है. ‘रामायण’ में भगवान श्रीराम की लंका के राजा रावण पर विजय को असत्य पर सत्य की विजय बताया गया और प्रतीक स्वरूप आज भी इसे ‘दशहरा’ पर्व के रूप में सारे भारत में मनाया जाता है. ‘महाभारत’ में भी एक श्रीकृष्ण के नेतृत्व और पाँच पाण्डवों की सौ कौरवों और अट्ठारह अक्षौहिणी सेना पर विजय को सत्य की असत्य पर और अधर्म पर धर्मं की विजय बताया गया।यहाँ धर्मं और सत्य एक तरह से पर्यायवाची हैं. श्रीकृष्ण धर्मं की स्थापना के लिए बार बार जन्म लेने की बात करते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है, उन्होंने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। गाँधीजी ने कहा था कि- “सत्य ही ईश्वर है एवं ईश्वर ही सत्य है।”वे सत्य की स्थापना के लिए बार बार ईश्वर के अवतरण की बात कहते हैं. सत्य की अनुभूति अगर ज्ञान योग है तो इसे वास्तविक जीवन में उतारना कर्मयोग एवं अंततः सत्य रूपी सागर में डूबकर इसका रसास्वादन लेना ही भक्ति योग है।
सत्यम शिवम् सुंदरम
तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है: सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः।
अर्थात अर्थात सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में आलस्य मत करो। यह बात गुरुकुल से दीक्षा के बाद जीवन में उतरते हुए विद्यार्थियों से कही जाती थी. हमारे पत्रकारिता के शिक्षार्थियों पर भी यह बात उतनी ही लागू होती थी, जितनी तब थी.
भारत में सत्यम शिवम् सुंदरम नाम के ये तीन शब्द अपने आप में ही संपूर्ण परम ज्ञान है. ये शब्द पूरे ब्रह्माण्ड का सार हैं. ईश्वर सत्य है, सत्य ही शिव है, शिव ही सुन्दर है! सत्यम शिवम सुंदरम ! जब तक इसके अर्थ को जानने का प्रयास नहीं करेंगे, जान नहीं पायेंगे।सत्यम शिवम सुंदरम! इस गीत का यही संदेश हैकि जागो! और खोज में लगो, अपने भीतर के ज्योत को प्रज्वलित करो। जागने का उपाय यही है!
परमात्मा अर्थात परम आत्मा को ही सत चित आनंदकहा जाता है। परमात्मा ही सच्चिदानंद है।
(लेखक भारतीय जनसंचार संसथान (IIMC) नयी दिल्ली में प्रोफेसर और डीन- अकादमिक हैं)