एसआईआर का विरोध देश को तोड़ने की साजिश।

प्रदीप सिंह।
क्या भारत का संघीय ढांचा खतरे में है या उसे खतरे में डालने की कोशिशें हो रही हैं? जो कुछ देश में इस समय हो रहा है उसके संकेत शुभ नहीं दिखाई दे रहे हैं। 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने दो बातें कही थीं। पहली जो उनकी पार्टी के मेनिफेस्टो में थी कोऑपरेटिव फेडरलिज्म यानी सहयोगी संघीय ढांचा। दूसरी बात उन्होंने कही थी कि देश का विकास तभी होगा जब राज्यों का विकास होगा।

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प्रधानमंत्री बनने से पूर्व 13 साल तक वे गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे तो उनको मालूम था कि देश के विकास में राज्यों के विकास का कितना बड़ा योगदान होता है और यह केंद्र और राज्य के सहयोग से ही हो सकता है। इसलिए उन्होंने कोऑपरेटिव फेडरलिज्म की बात मेनिफेस्टो में भी रखी। याद कीजिए जीएसटी को लेकर कोशिशें अटल बिहारी वाजपेई और मनमोहन सिंह की सरकार में भी हुई थीँ, लेकिन बात बनी नहीं। आखिर 2016 में बनी तो कैसे बनी? सभी राज्यों को एक मंच पर लाकर सहमत कराने से। इसमें बड़ी भूमिका निभाई उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने। सभी राज्यों के वित्त मंत्रियों और दूसरे स्टेक होल्डर्स से बात कर वह सबको यह समझाने में कामयाब हुए कि जीएसटी कानून का बनना पूरे देश और हर राज्य के हित में है। इसमें आमदनी को लेकर राज्यों की जो शंकाएं थीं, उनको दूर किया गया। आज देखिए जीएसटी लागू होने और उसमें सुधार से राज्यों और केंद्र सरकार का रेवेन्यू बढ़ रहा है। तो यह एक क्रांतिकारी कदम था। लेकिन यह कदम सरकार इसीलिए उठा पाई कि सभी राज्य सहयोग करने को तैयार थे।

लेकिन, पिछले कुछ समय से जब से विपक्ष को यह लगने लगा कि भाजपा और नरेंद्र मोदी बहुत मजबूत होते जा रहे हैं और वह लगातार कमजोर होता जा रहा है, खासतौर से कांग्रेस… तो वैसे-वैसे इस संघीय ढांचे पर प्रहार करने की कोशिशें हो रही हैं। इसका पहला प्रयास हुआ जब तीन कृषि कानून बने। आप देखिए पहले इन कानूनों के प्रावधानों को लेकर सभी पार्टियां सहमत थीं। कांग्रेस पार्टी के खुद के मेनिफेस्टो में वही बातें थीं, जो सरकार कानून के रूप में लेकर आई, लेकिन विपक्षी दलों को लगा कि इससे बीजेपी को राजनीतिक फायदा हो सकता है तो एक तथाकथित किसान आंदोलन शुरू कराया गया। अराजकता फैलाने की कोशिश हुई। आखिर में सरकार को अराजकता को थामने के लिए उन तीनों कानूनों को वापस लेना पड़ा।

फिर दूसरा मौका आया सीएए (सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट) का। इसमें किसी का कोई नुकसान नहीं था। इसमें केवल यह व्यवस्था थी कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में जो रिलीजियस माइनॉरिटीज हैं, जिनको उनके धर्म के कारण प्रताड़ित किया गया। वे अगर शरण के लिए भारत में आते हैं तो उनको भारत की नागरिकता मिलेगी। इसके लिए 2014 की कट ऑफ डेट तय की गई थी। इनमें हिंदू, सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध और पारसी धर्म के मानने वालों को शामिल किया गया। यह किसी की नागरिकता छीनने का कानून नहीं था। लेकिन सड़क पर उतर कर इसका विरोध किया गया। मुद्दा बनाया गया कि यह भारत के मुसलमानों की नागरिकता छीनने का प्रयास है।

कई गैर भाजपा शासित राज्यों ने बाकायदा अपनी विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया कि हम सीएए अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगे। अब यह सीधे-सीधे केंद्र सरकार और संविधान की व्यवस्था पर हमला था। संघीय ढांचे पर हमला था। क्योंकि भारत का संविधान कहता है कि संसद से पास जो भी कानून है, वह पूरे देश में लागू होगा और उस कानून के खिलाफ कोई राज्य सरकार अपना कानून नहीं बना सकती। इसलिए केंद्र सरकार झुकी नहीं। तो सीएए अब बड़ी तेजी से लागू किया जा रहा है। खासतौर से पश्चिम बंगाल में जहां इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।

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अब सबसे ताजा मामला एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन ऑफ इलेक्टरल रूल्स) का है। एसआईआर करने का अधिकार चुनाव आयोग को भारत के संविधान ने दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि यह चुनाव आयोग का संवैधानिक अधिकार है और एसआईआर करने से उसको रोका नहीं जा सकता, लेकिन बिहार में एसआईआर के मामले में विपक्ष कोर्ट चला गया। बहाना यह बनाया गया कि हम इस संवैधानिक प्रक्रिया के विरोध में नहीं हैं, लेकिन चुनाव और एसआईआर के बीच में समय इतना कम है कि हमें ऐतराज है। तो बिहार में चुनाव आयोग ने अपनी दक्षता का परिचय दिया। चुनाव आयोग ने कहा कि 2003 में भी 30 दिन हमने एसआईआर कराया। अब भी पर्याप्त समय है। एसआईआर के बाद जो मतदाता सूची जारी हुई उस पर किसी राजनीतिक दल के किसी प्रतिनिधि ने एक भी शिकायत नहीं की। लेकिन विपक्ष को तो मुद्दा बनाना है।

अब जब चुनाव आयोग ने 12 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में एसआईआर की प्रक्रिया शुरू कराई है तो इसका भी विरोध शुरू हो गया है। खासतौर से दो राज्यों तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की सरकारें तो बुरी तरह बौखला गई हैं । तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन तो इसका विरोध करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुला रहे हैं। विपक्ष आरोप लगाता है कि वोटर लिस्ट में घपला है। यह एसआईआर उसी को संशोधित या परिष्कृत करने की एक प्रक्रिया है। आप उसका भी विरोध कर रहे हैं। इसके पीछे दो इरादे हैं। एक घुसपैठियों की रक्षा करना। जो इस देश के नागरिक नहीं हैं उनके नाम मतदाता सूची में बनाए रखना क्योंकि वे आपके जनाधार का बड़ा हिस्सा हैं। आपको सत्ता में लाने में मदद करते हैं। आपके लिए दंगा कराते हैं। इसलिए आपको उनकी जरूरत है और आप उनकी ओर से बिल्कुल निश्चिंत हैं कि वे कभी भाजपा को वोट नहीं देंगे। तो आप घुसपैठियों के नाम मतदाता सूची में शामिल करा रहे हैं और दूसरी जो सरकारी सुविधाएं हैं, वे भी उनको दिलवा रहे हैं। उसका एक पूरा तंत्र बन गया है। राशन कार्ड बनवाना, आधार कार्ड बनवाना, मतदाता सूची में नाम जुड़वाना यह सब बड़े संगठित तरीके से होता है।

केंद्र सरकार इसी को तोड़ना चाहती है। प्रधानमंत्री ने लाल किले से डेमोग्राफिक कमीशन बनाने की घोषणा की थी। क्योकि घुसपैठ के जरिए देश की डेमोग्राफी बदलने की कोशिश हो रही हैं। हिंदुओं की संख्या घटाने और मुसलमानों व ईसाइयों की संख्या बढ़ाने की कोशिश हो रही हैं। तो इन मुद्दों पर केंद्र सरकार के कानून या संविधान की व्यवस्था का विरोध करने का सीधा-सीधा मतलब है कि आप संघीय ढांचे का विरोध कर रहे हैं। आप केंद्र के अधिकार को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। यह पहली स्टेज होती है किसी भी देश में अराजकता फैलाने की और अराजकता के बाद दूसरा कदम होता है देश को तोड़ने का। एम के स्टालिन और ममता बनर्जी को एसआईआर को रोकने का कोई अधिकार नहीं है। ममता को तो लग रहा है कि एसआईआर से तो उनके पैर के नीचे से जमीन ही खिसक रही है। अगर एसआईआर पारदर्शी तरीके से हो गई तो मानकर चलिए कि पश्चिम बंगाल के 2026 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी लौट कर सत्ता में नहीं आने वाली इसलिए उनकी बौखलाहट बहुत ज्यादा है। ममता बनर्जी पिछले 14 साल से सत्ता में हैं। कब ऐसा हुआ कि वह सड़क पर उतरीं? लेकिन एसआईआर के खिलाफ उन्होंने मोर्चा निकाला। उन्होंने घुसपैठियों के खिलाफ तो कभी कोई मोर्चा नहीं निकाला।

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यह मामला केवल एसआईआर का नहीं है। इसके पीछे गहरी साजिश है। इसके पीछे साजिश है इस देश को कमजोर करने की। इस देश की डेमोग्राफी बदलने की। इस देश की एकता और अखंडता को खतरे में डालने की। माओवादियों का सफाया मोदी सरकार की आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर बड़ी उपलब्धि है। विपक्ष को इसका भी बड़ा कष्ट है कि जो एक साथी भारत को तोड़ने और अराजकता फैलाने के लिए मिल सकता था वह चला गया। अब दूसरा साथी  घुसपैठिया ही बचा है। जिसको बाहर से भी समर्थन और पैसा मिलता है और जो धर्म परिवर्तन कराने का धंधा चलाते हैं। विपक्ष को अब लग रहा है कि केंद्र सरकार घुसपैठियों के खिलाफ भी कदम उठाने जा रही है। इससे वह परेशान है।

एसआईआर का विरोध सामान्य रूप से मतदाता सूची में परिवर्तन का विरोध नहीं है। यह एक दूरगामी रणनीति के तहत हो रहा है। किसान आंदोलन, सीएए और अब एसआईआर को लेकर जो अराजकता फैलाने की कोशिश हो रही है उसका वास्तविक लक्ष्य है इस देश के जनतंत्र को कमजोर करना। इस देश की संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करना और अल्टीमेटली इस देश के संविधान को कमजोर करना। ये कोशिशें तब तक रुकने वाली नहीं हैं, जब तक इनके खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं होगी। जब तक सरकार और अदालतें मिलकर देश को बचाने के काम में नहीं जुटेंगी तब तक यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है। सवाल यह है कि क्या ऐसा होगा?

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)