के. विक्रम राव।
वह भारत के प्रथम भाषावार प्रदेश आंध्र के पहले मुख्य मंत्री रहे थे। जब हैदराबाद के उस्मानिया अस्पताल में उनका देहांत हुआ था, तो मृत्यु का कारण पता चला था कि वे कई दिनों से निराहार थे। फिर हैदरगुडा के उनके पड़ोसियों ने पाया कि उनकी रसोई में न ईधन था, न अन्न। उनका पोता हैदराबाद में बाबू की नौकरी करता रहा।
आंध्र केसरी टंगटूरि प्रकाशम (23 अगस्त 1872 – 20 मई 1957) बैरिस्टर व न्यायविद, राजनीतिक नेता, समाज सुधारक और उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादी थे। उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। टंगटूरि बाद में तत्कालीन आंध्र राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने, जिसे भाषाई आधार पर मद्रास राज्य के विभाजन द्वारा बनाया गया था।
प्रकाशम के राजनीतिक प्रशिक्षु
इस गांधीवादी स्वाधीनता सेनानी प्रकाशम के राजनीतिक प्रशिक्षुओं में रहे नीलम संजीव रेड्डि- छठे राष्ट्रपति, तथा बी.गोपाल रेड्डि- यूपी के सांतवें राज्यपाल। भारत के स्वतंत्र होने के पूर्व प्रकाशम अंग्रेजी तमिल और तेलुगू में छपने वाली पत्रिका स्वराज्य के संपादक-प्रकाशक थे। इस आजादी की आवाज को विदेशी साम्राज्यवादियों ने जुर्माना थोप कर बंद ही करा दिया था। प्रकाशम ने 1942 के ”भारत छोड़ो” सत्याग्रह को मिलाकर पांच वर्षों से अधिक वक्त ब्रिटिश जेल में गुजारा।
‘आंध्र केसरी’ की उपाधि मिलने का दिलचस्प वाकया
उन्हें ‘आंध्र केसरी’ की उपाधि मिलने से जुड़ा दिलचस्प वाकया है। साइमन आयोग के बहिष्कार में (3 फरवरी 1928) महात्मा गांधी की अपील पर देशभर में विरोध जुलूस निकले। मद्रास (अब चेन्नई) में भी विशाल जुलूस निकाला गया। ब्रिटिश पुलिस की गोली से एक युवक पार्थसारथी मारा गया। उसके शव को उठाने कुछ लोग आगे बढ़े लेकिन गोरे पुलिस अफसर ने चेतावनी दी कि जो भी शव के निकट आयेगा गोली से भून दिया जायेगा। सहमी भीड़ में 56 वर्षीय प्रकाशम भी थे। वे आगे बढ़े, कुर्ते के बटन खोलकर नंगा सीना तानकर बोले: ”चलाओ गोली”। सिपाही सहम गये। शव दे दिया। तभी से प्रकाशम को ”केसरी” (शेर) का खिताब मिला। जैसे जलियांवाला बाग के बाद लाला लाजपत राय को पंजाब केसरी और श्रीकृष्ण सिन्हा को बिहार केसरी। टंगटूरि को “आंध्र केसरी” के रूप में जाना जाता था जिसका अनुवाद ‘आंध्र का शेर’ होता है।
प्रकाशन सीएम के मजबूत दावेदार जबकि नेहरू की पसंद कुछ और
स्वाधीनता की बेला पर अविभाजित मद्रास राज्य (केरल, कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु मिलाकर) के वे प्रधानमंत्री (तब चीफ मिनिस्टर को यही कहते थे) चुने गये- (30 अप्रैल 1946 से 22 मार्च 1947)। तब वहां के गवर्नर थे जनरल आर्चिबाल्ड नेयी, उपसेनापति तथा विंस्टन चर्चिल के चहेते। कामराज नादार प्रकाशम के कनिष्ठ साथी रहे। बाद में कांग्रेस अध्यक्ष चयनित हो कर इन्हीं कामराज नादार ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाया था।
उस वक्त स्वतंत्रता के ठीक पूर्व मद्रास राज के मुख्यमंत्री के लिये प्रकाशम मजबूत दावेदार थे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी लार्ड माउंटबेटन के बाद प्रथम गवर्नर जनरल बने। सर्वप्रथम महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू राजगोपालाचारी को ही मुख्यमंत्री हेतु पंसद करते थे। पर प्रदेश कांग्रेस में बगावत की स्थिति पैदा हो गयी थी। कारण था कि राजगोपालाचारी ने 1942 के ”भारत छोड़ो” आंदोलन का विरोध किया था। जेल नहीं गये थे। उन्होंने पाकिस्तान की मांग पर मोहम्मद अली जिन्ना का समर्थन किया था। प्रकाशम तभी जेल से छूटे थे।
विलायत जाने से पहले दिया मां को वचन
उनकी एक घटना बड़ी यादगार है। मद्रास विश्वविद्यालय से लॉ डिग्री लेकर वे बैरिस्टरी पढ़ने वे लंदन जा रहे थे। विधवा मां सहमत नहीं थी। पर प्रकाशम ने मां को वचन दिया। ठीक जैसे गांधीजी ने अपनी मां को दिया था। लंदन में मांस, मदिरा, धूम्रपान का परहेज करेंगे। शाकाहारी ही रहेंगे। यूं भी प्रकाशम उच्च कोटि के तेलुगु नियोगी ब्राह्मण थे। उनके पिता की अल्पायु में मृत्यु के कारण उनकी विधवा मां छात्रों के लिये भोजनालय चलाकर घर चलाती थी। ओंगोल से पचास किलोमीटर दूर मेरा पुश्तैनी गांव (अब शहर) सागरतटीय चीराला है। मेरे पिता स्वाधीनता सेनानी-संपादक स्व. श्री के. रामा राव के प्रकाशम रिश्ते में मामा लगते थे। अधुना ओंगोल जनपद में उन्हीं के नाम पर प्रकाशम जिला रखा गया है।
”लॉ टाइम्स” का संपादन
प्रकाशम ने कानून पर विशेष पत्रिका ”लॉ टाइम्स” का संपादन किया। वे 1921 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में राष्ट्रीय महासचिव निर्वाचित हुए थे। उनकी वकालत का पहला मुकदमा था जब तिरुनलवेली (तमिलनाडु) के अंग्रेज अफसर मिस्टर एश की हत्या (1907) के आरोपी के बचाव के लिये वकील बनकर प्रकाशम ने उसे रिहा करवा लिया।
प्रकाशम अकाली सत्याग्रह में भाग लेने लाहौर गये। हिंसक मोपला मुसलमानों से हिन्दुओं की रक्षार्थ केरल गये थे। वे हिन्दु-मुसलमान दंगे को शांत कराने मुलतान (अब पाकिस्तान) भी गये थे। हैदराबाद में रजाकर नेता और असदुद्दीन ओवैसी के पूर्वज कासिम रिजवी को समझाने हैदराबाद गये थे। पर निजाम के मंत्री रिजवी हठी रहे, पाकिस्तान के समर्थक थे।
एक ही मलाल: अंग्रेजी राज में मलाई काटने वाले नेहरू युग में भी लाभार्थी
प्रकाशम को जीवन में एक ही मलाल रहा कि जो भारतीय जंगे आजादी के दौरान में अंग्रेजी साम्राज्य के लाभार्थी तथा झण्डाबरदार थे, आजादी के बाद नेहरू-युग में भी वे सभी नफाखोर बने रहे। एक बार की घटना है। बात 1956 के ग्रीष्मावकाश की है। मेरे पिता स्व. श्री के. रामा राव नेहरू सरकार के पंचवर्षीय योजना के वरिष्ठ परामर्शदाता थे। मैं दिल्ली गया था, तभी प्रकाशम जी किसी कारणवश दिल्ली आये। उस गरम दोपहर को वे अपने साथ मुझे ले गये- डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से भेंट के लिये। वापसी पर उपराष्ट्रपति के भव्य बंगले के फाटक पर प्रकाशमजी की टिप्पणी अत्यधिक मार्मिक थी। वे बोले : ”यह है सर एस. राधाकृष्णन, ब्रिटिश राज ने इन्हें उपकार हेतु सर ( नाइट) की उपाधि से नवाजा था। वे कभी भी शामिल नहीं रहे स्वाधीनता आंदोलन में। मुझे देखो। कितनी बार जेल भुगता। आंध्र के सभी लोग जानते है। मगर कहीं भी रहने का मेरा ठिकाना नहीं है।” फिर रुके, व्यथा से मुझसे कहा : ”बुलाओ टैक्सी। साउथ एवेन्यु चलना है।” तब मेरे पिताश्री का वही सरकार आवास था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)