उजड़ने-बसने की पीड़ा और सहने का धैर्य।
सत्यदेव त्रिपाठी।
दादीमाँ का मायका- यानी मेरे पिता-काका… आदि का ननिहाल और मेरा अजियाउर। दादी को आजी भी कहा जाता है- दक्षिण भारत में अज्जी।
हमारे यहाँ रिश्ते-नातेदारियाँ स्त्रियों के अपना घर छोड़कर अन्य घर जाने से बनती हैं– यानी स्त्री-संचालित है हमारा कुटुम्ब व समाज। जन्म का घर, जो होश सँभालते से ही अपना होता है, जिसे स्त्री अपने कठिन जाँगर से बना-सजा के रखती है, जहां बचपने से सारे अपने लोग रहते हैं… उस समग्र अपनापे व अधिकार को छोड़कर एक दिन वह किसी अजनवी घर भेज दी जाती है और वहाँ भी वैसा ही कर पाती है। यह प्रतिभा, यह कूबत स्त्री को ही दी है प्रकृति ने। या पुरुष-संचालित समाज ने उसे ऐसे साँचे में ढाल दिया है। चाहे जैसे हुआ हो, पर स्त्री-जाति ने ही इसे साधा है। इस उजड़ने-बसने की पीड़ा और सहने का धैर्य तथा उसे अपना बनाकर रह पाने की क्षमता के लिए समूचे मानव-समाज को उसका ऋणी होना चाहिए। और ऋषियों ने जो कहा है–‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’, इसके लिए उनका सिर्फ़ यह एक सुकृत्य ही काफ़ी है। बहरहाल,
स्त्री-संचालित होने के कारण हीहमारी सारी रिश्तेदारियों के नाम स्त्री के बनाये या स्त्री से बने रिश्तों से रखे गये हैं। नानी का घर ननिहाल, बहन का घर बहनिआउर, मौंसी का घर मौंसियान, फूआ (बुआ) का घर फूफुआउर… आदि। तो इसी क्रम में आजी का मायका अजियाउर। और हमारी आजी के मायके का गाँव है भूपालपुर– मेरे घर से 8-9 किमी. पूरब।
वहाँ 52 साल तक न जाने का मतलब ऐसा- जैसा दिलीपकुमार ने बहुत दिनों बाद पाकिस्तान से आने पर नूरजहाँ के लिए कहा था ‘तुम जितने दिन नहीं आयीं, हमने ठीक उतने ही दिन तुम्हारा इंतज़ार किया है’। उसी तरह मैं 52 साल नहीं गया, तो ठीक 52 साल ही रोज़ जाना चाहता रहा। बीच में एक ख़ास बात भी हुई थी, जिसके चलते वहाँ जाना बन रहा था। हमारे यहाँ सास के मायके जाने का एक रवाज है– बल्कि कहें कि रूढ़ि है। इससे पुण्य-लाभ जैसी कोई बात लोक में है… या वेद से ही आयी हो… , मुझे पता नहीं। तो मेरी दादी का यह मायका, मेरी माँ की सास का मायका हुआ। सो, मेरी माँ भूपालपुर आना चाहती थी– कम से कम एक बार। लेकिन मैं ला न सका और अब जब ला सकता हूँ, तो 16 साल पहले मां चली गयी।
लेकिन अजिअउरे आने की मेरी यह प्रबल मंशा शायद अब भी फलित न होती, यदि इस अजियाउर के मेरे एक भतीजे एडवोकेट विनोद तिवारी का बार-बार आग्रह न होता। पिछले 20 सालों से आज़मगढ़ में विनोद से भेंट होती रही– कभी मैं कोई क़ानूनी सलाह लेने कचहरी पहुँच जाता, कभी शहर गया रहूँ, तो यूँ ही मिलने चला जाता। और एक ख़ास बात– काशी विद्यापीठ में पढ़ाने आ जाने पर आज़मगढ़ के एकमात्र नाट्यसमूह ‘सूत्रधार’ के संचालक अभिषेक पंडित के बुलावे पर मैं प्राय: अपने गृह नगर आ जाता… तो एकाध बार कार्ड में मेरा नाम देखकर प्रिय विनोद वहाँ आये और मिले। यानी ऐसे कई तरह के आसंगों से यह सिलसिला चलता रहा, जिसे फ़ेस बुक ने ज्यादा गहरा भी दिया व फैला भी दिया। इधर उनका आग्रह यूँ भी सामने आया–‘एक बार आ जाइए… अभी आपको पहचानने वाले कई लोग मौजूद हैं’। फिर इसी के साथ नयी पीढ़ी से भी परिचय हो जायेगा। इससे यह रिश्तेदारी एक पीढ़ी और आगे चल लेगी… के आकर्षण से भी मेरा इरादा सक्रिय हो उठा। और इन सबके परिणाम स्वरूप पिछले 5 जून (2022) की सुबह रवाना हो लिया।
रास्ते में भूपालपुर के सम्बंधों का अतीत नुमायाँ होने लगा…
दर्जा 7 में पढ़ते हुए (1965) से मैं अपने बड़के बाबू–कुबेर त्रिपाठी उर्फ़ पुजारी- के साथ इस गाँव भूपालपुर पैदल जाता रहा। तब हमारे गाँव में ठीक से सायक़िलें भी नहीं हुआ करती थीं। बड़के बाबू रात को 3-4 बजे मुझे उठा के चला देते… और कई बार तो सूरज उगते-उगते हम भूपालपुर होते। तब तक वहाँ कुछ लोग सोते ही मिलते, जिन्हें हम जगाते। बता दूँ कि हमारे यहाँ ननिहाल जाने और रहने की परम्परा बड़ी सुदृढ़ और खूब रवाँ रही है। अपने ननिहाल में तो मैं 2-4-6 महीने रहता था और उन दिनों वहीं के स्कूल में नानी पढ़ने भेज देती। कुछ बच्चे तो ननिहाल से ही सारी पढ़ाई-लिखाई भी करते। महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपने ननिहाल ‘पंदहा’ (आज़मगढ़ शहर से बहुत दूर नहीं) में ही पले-बढ़े थे। और इस परम्परा के बड़े वाहक रहे मेरे बड़के बाबू भी, जो 85 साल तक जीवित रहे और अपने जीवन के अंतिम दिनों (जब तक चल-फिर पाते रहे) तक नियमित रूप से अपने ननिहाल भूपालपुर जाते रहे… और सप्ताह से कम तो कभी न रहते– कभी तो महीने भर भी रह जाते।
मेरी जानतदारी में इस घर के ज्येष्ठ पुरुष थे पंडित रामविलास तिवारी। वे मेरे पितादि के बड़े ममेरे भाई थे– यानी मेरे पितादि उनके छोटे फ़ुफेरे भाई थे। बड़े और हर फ़न में कुशल होने तथा अपने फ़ुफ़ेरे भाइयों के प्रति अगाध स्नेह… आदि के कारण वे मेरे घर के संरक्षक की तरह थे। इनकी चलती थी मेरे घर में। मैं उन्हें भी बड़का बाबू ही कहता। मेरे घर के सारे फ़ैसले इनसे पूछ के इनके बताये-अनुसार ही होते। एक उदाहरण दूँ– मेर पिता ज्योतिष के बड़े विद्वान थे, लेकिन मैं एक ही साल का था, वे मर गये। मेरे साधुवत बड़के बाबू और पहलवान काकाओं ने मुझे भी ज्योतिष पढ़ने के लिए उसी गुरु (पंडित-प्रवर रघुनाथ उपाध्याय) के पास भेजना शुरू किया, जहां से पिता ने पढ़ाई की थी। एक महीने ऐसा चला होगा कि ये बड़के बाबू यानी पंडित रामविलासजी मेरे घर आये। वह दृश्य आज भी मेरी आँखों के सामने वैसा ही जीवंत है, जब शाम को कौड़ा (अलाव) तापते हुए उन्होंने पूछा था– ‘अरे बचवा पढ़ने जाने लगा– कहाँ जाता है’? काका-बाबू ने बड़ी शान से बताया– ‘भइया, रघुनाथ पंडितजी के यहाँ जाने लगा है। हम चाहते हैं कि यह भी अपने पिता जैसा ही विद्वान बने… ’। सुनते ही वे चिल्लाए– ‘मूर्खो, बच्चे की ज़िंदगी ख़राब करोगे? कल से चुपचाप प्राइमरी पाठशाला, ठेकमा में पढ़ने भेजो’। अब यह तो मेरे बाबू-काकाओं के लिए ब्रह्म-वाक्य हुआ। बस, अगले दिन से मुझे ‘वृहत होड़ाचक्रम्’ व ‘शीघ्रबोध’ … आदि (ज्योतिष के शुरुआती) ग्रंथों से मुक्ति मिल गयी। (जारी)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)