कभी लगा ही नहीं कि अपने घर में नहीं हूँ।
सत्यदेव त्रिपाठी।
उस दौरान बड़की माई की देख-रेख में उनकी बड़ी बहू सिरताजी भाभी बाहर निकलने और हमारे खाने-पीने की देखभाल करने लगी थीं। उनकी स्नेहिल छबि आज तक नहीं भूलती। इतने वत्सल-ममतालु-प्रेमल लोगों के बीच मुझे कभी लगा ही नहीं कि अपने घर में नहीं हूँ। इसीलिए बहुत याद आता रहता है भूपालपुर- अजियाउर का सुख। आज के समय के लिए मज़ेदार उल्लेख यह भी कि जिस आजी को मैंने देखा नहीं, उसके मायके यूँ रहा, इतना रहा कि कोई अपने ननिहाल भी क्या रहेगा…! यूँ अपने ननिहाल तो मैं छह-छह महीने रहता, जो एक अलग मर्म है– अलग क़िस्सा, जिसे नानी पर लिखे विस्तृत लेख में बता चुका हूँ।
प्रसंगत: इतना और बता दूँ कि मेरी दादी का नाम था- कुलवंता देवी। उनकी बहन यानी मेरे पिता की मौंसी के यहाँ (अंदोईं) से भी हमारे अच्छे रिश्ते रहे अभी हाल-फ़िलहाल तक। यह सोचकर मुझे नरेश मेहता का उपन्यास ‘उत्तरकथा’ बेतरह याद आ रहा है, जिसमें ऐसे हीढेरों रिश्तों का मसृण जाल फैला हुआ है और जो वस्तुतः हमारी संस्कृति रही है। कुलवंता दादी ऐसी अन्नपूर्णा थीं कि रास्ते चलतों को भी बुलाके खिला-पिला देतीं। कोई आधी रात को भी आये, तो ताज़ा खाना बना के खिला देने में न उन्हें आलस्य होता, न थकान लगती। ऐसी ढेरों चर्चाएं मैंने अपने गाँव-देहात के लोगों से सुनी हैं। उनकी इस आदत का एक बड़ा लाभ भी मुझे मिला। जिस जनता इंटर कॉलेज ठेकमा-बिजौली में छठीं कक्षा से लेकर इंटर तक की मेरी पढ़ाई हुई, उसके मैंनेजर स्व. रामसेवक राय बहुत बड़े ज़मींदार ख़ानदान से थे। उनके पिता बाबू कोमल राय तपे हुए ज़मींदार थे। लेकिन उनके ख़ानदान में 6-7 मुसामातें- यानी नावल्द (नि:संतान) विधवाएँ- हुआ करती थीं, जो अपना हिस्सा अलगाने या बहुत सारा पैसा लेने… आदि को लेकर कोमल राय को तंग किया करती थीं। लेकिन उनके मरने पर सारा हिस्सा कोमल राय को मिलता, इसलिए वे उनसे बच-बचा के समय बिता रहे थे। इसी सिलसिले में बाबू साहब रात-रात भर खेतों-बागीचों… आदि में भटका करते और कभी देर रात मेरे दरवज्जे पहुँच गये। दादी ने सुनते ही भोजन बना डाला। ज़बरदस्ती खिलाया और कभी भी आते रहने का ऐसा आग्रह किया कि वे कभी-कभार आने भी लगे। यह बात बाबू कोमल राय ने अपने बेटे रामसेवक राय को बतायी थी। तो मेरे पढ़ने आने पर जब काका ने जाके मैंनेजर से फ़ीस-माफ़ी की अर्ज़ की और बात-बात में वे जान गये कि काका उसी पंडिताइन के बेटे हैं… तो बस, दर्जा सात से लेकर 12वीं तक मेरी फ़ीस माफ़ रही। इसी के लिए कहावत है- ‘बाढ़हिं पूत पिता के धर्मे’– पूर्वजों के किये पुण्यों से पुत्र आगे बढ़ते हैं। अगली पंक्ति पुत्रों के लिए अच्छी नसीहत भी है– ‘खेती उपजे अपने कर्मे’ यानी खेती अपने जाँगर से ही होती है।
दिमाग में चलती रीलें तब रुक गयीं, जब भूपालपुर की स्थानीय गोसाईं की बाज़ार से आगे गाँव की ओर चला। दिशा व भूगोल का पता था, लेकिन इन 52 सालों के दौरान चकबंदी व तमाम योजनाओं के तहत हुए विकासों ने परिवेश की कायापलट कर दी है– सब रास्ते बदल गये हैं। ऐसा मुंबई में भी हुआ है। जिस मुम्बई को किशोरावस्था से जवानी के दौरान जाने कितनी बार पैदल माप चुका हूँ, उसे आज हवाई पुलों (फ़्लाई ओवर ब्रिजेज) तथा नयी शैली की ढेरों बड़ी-बड़ी इमारतों ने ऐसा बदल दिया है कि सारे स्थल अजनवी लगने लगे हैं। विनोद ने दिशा-निर्देश दे दिये थे, लेकिन ‘सास्त्र सुचिंतित पुनि-पुनि पेखिय’ के अनुसार मैं आते-जाते लोगों से पूछ-पूछ के और रास्तों पर ध्यान दे-देके गाड़ी चलाने लगा, ताकि इधर-उधर बहक के लौटना न पड़े। विनोद ने बताया था कि वे पुराने घर को छोड़कर खेत में आके नया मकान बनवा के रह रहे हैं, जो गाँव में प्रविष्ट होते हुए पहले ही पड़ेगा। बग़ल में प्राइमरी स्कूल की पहचान (लैंड मार्क) भी बता दिया था। स्कूल दिखते ही जो आदमी सामने से आता दिखा, पास से उसका चेहरा देखते ही विनोद का घर पूछने के बदले सहसा पूछ लिया–‘तू प्रमोद हउआ’? वह तो अवाक्– मेरा मुँह देखने लगे। तब मेरे मुँह से निकला– ‘हमार घर सम्मौपुर हौ’ और प्रमोद झट से पाँव छूने की शैली में ‘चाचा प्रणाम’ करने लगे…, तो 52 साल की दीवाल पल भर में ढह गयी। भूपालपुर में कदम रखते ही गोया मेरा वही अपना अजियाउर मिल गया। इसे मराठी में कहने का मोह मान नहीं रहा– ‘जणू मला माँझी आजी साक्षात भेंटली’।
ये प्रमोद ऊपर बताये बीडीओ भइया के बड़े बेटे हैं– विनोद से थोड़ा छोटे। ये अपने छुटपन में मेरे यहाँ आते व कभी दो-चार दिनों रहने की भी याद है। जब कि विनोद के तो उन दिनों एक ही बार आने की याद है– जेठ की खड़ी दुपहरी में सायकल से। तब भी बहुत प्रगत (ऐडवाँस) ढंग से रहते विनोद– उस समय की भाषा में टीप-टॉप। ज्ञान व समझ भी अच्छी थी, जिसका सुपरिणाम है– आज की उनकी सही-सधी ज़िंदगी, उनकी वकालत, संयमित व्यावहारिक-सामाजिक जीवन। इसका प्रमाण यह कि गोसाईं की बाज़ार से गाँव के बीच एहतिहात वशजिन 7-8 लोगों से पूछा, सबने ‘विनोद’ पूछने पर– ‘अरे वही वक़ील साहब’? और विनोद वकील पूछने पर– ‘अरे वही तिवारीजी न’… की पूर्ण पहचान कराते हुए उन्हें बड़े आदर से याद किया तथा बड़े सलीके से रास्ता बताया।
ख़ैर, प्रमोद से मिलते ही पता लगा कि हम विनोद के घर के सामने ही थे। तब तक विनोद भी घर से बाहर आ गये। प्रमोद खेती के किसी काम से निकले थे। उन्हें जाना था, तो तय हुआ कि पहले यहाँ चाय पीके हम वहीं पुराने घर जाके सबसे मिलते हैं। फिर लौट के यहीं दोपहर का खाना-वाना खायेंगे। वही हुआ और चाय पीते हुए ही विनोद के साथ हुए हिसाब में तय पाया गया– कि मैं 52 साल बाद आ रहा हूँ।
पुराने घर पहुँचें कि तब तक प्रमोद से सुनकर मेरे आने की बात पूरा घर जान गया था, जिससे ‘अचानक’ वाला भाव ख़त्म हो गया, तो बाक़ियों- ख़ासकर मेरी पीढ़ी के मुझसे बड़े गौरी व उमा भइया- के पहचानने की परीक्षा न हो पायी, तो मैं वंचित रह गया पहचनवाने के अपने चिर वांछित जिज्ञासु-सुख से।
लेकिन कोई बात नहीं, क्योंकि जाते ही देख के अच्छा लगा कि उसी अपनी जगह पर पुराना घर गिराके सबके अलग-अलग नये घर बन गये हैं। सबसे पहले पड़ा राजदेव भइया (फ़ौज वाले) का घर और मिले उनके बड़े बेटे अशोक, जो तब मेरे सामने 5-6 साल के रहे होंगे। ज्यादा बातें उन लोगों की पढ़ाई, नौकरी-चाकरी आदि को लेकर हुईं। वहीं प्रमोद भी आके शामिल हो गये, तो सबके घर चलने में साथ रहे। अब लिखते हुए याद आ रहा कि प्रमोद के भाई विजय भी तब छोटे थे, जिनके बारे में मैं पूछ न सका। दूसरे नम्बर वाले घर पर गौरीशंकर भइया साक्षात मिले। मेरे लिए उनकी सराहना कुछ ताज्जुब के साथ मुखर हुई– ‘सत्देव आज यह रूप में मिलला’! इसका राज़ बाद में समझ में आया, जो शायद मेरे वेश (फ़्रेंच कट दाढ़ी व जींस के पैंट पर कुर्त्ते) में निहित था। और यह आश्चर्य तब के देखे किसी के लिए भी स्वाभाविक ही था, क्योंकि तब तो सादे कुर्ते-पाजामे या बुशर्ट-पाजामे में चुर्की (शिखा) वाले ‘सतदेव’ होते। लेकिन धूप के लिए कंधे पर अँगोछा तो तब भी होता।
हाँ, गौरी भइया की वैसी ही खूब सारी बातें सुनने मिलीं। उनके पास बातों का कभी टोटा नहीं होता और वही लाजवाब अदा, लेकिन मेरे बारे में उन्होंने कुछ ख़ास व ज्यादा न पूछा, जिसकी मुझे अपेक्षा थी। शायद सुन चुके रहे हों विनोद… आदि से, क्योंकि मेरे लिखे-पढ़े की बानगी विनोद लेते रहते हैं और सबसे साझा भी करते रहते हैं। ऐसा न भी हो, तो लिखने-पढ़ने की बातें न करना आज हमारे गँवईं समाज का स्थायी भाव हो गया है। वह कहावत अक्षरश: लागू हो रही है– ‘तीन चीज़ याद रही नून-तेल-लकड़ी’। इसी में पिले-पिजे हैं सभी। मज़ा आया देख के कि बेटे सहित गौरी भइया जम के यजमानी और खेती कर रहे हैं। इसका प्रमाण बना- दही के साथ गुड़ खाने को मिलना, जो गर्मी के लिए मुफ़ीद भी होता है और मुझे पसंद भी है। उनके बड़े बेटे राजेश ने बड़े सु-मन से उत्फुल्ल बातें करते हुए सब खिलाया-पिलाया और फिर बा-इजाज़त यजमानी के लिए निकल गये। उनका ‘राजेश’ नाम तो अब जाना, वरना तब मैं ‘गया’ नाम को ही असली नाम समझता था, जो असल में गया (बिहार का तीर्थ) में पैदा होने के कारण पड़ गया था। तब दो-तीन साल के इस बड़े दुलरुए बालक की किसी आयोजन में सफ़ेद कुर्त्ते-पाजामे में लोट-पोट करते हुए जो प्यारी-सी छबि मेरे मन में थी, वह इस गबरू जवान को देखकर गड्ड-मड्ड हो गयी। पर बेहद दुनियादार राजेश बड़ा भला लगा। (जारी)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)