जाते हुए असमंजस था… लौटते हुए परम संतोष।
सत्यदेव त्रिपाठी।
हरदीस से मिलना बड़े दिनों से लगी भूख की तृप्ति जैसा महसूस हुआ। यही सर्वाधिक आते-जाते थे मेरे यहाँ। अन्य नातेदारियों में भी इनसे बार-बार भेंट हो ज़ाया करती थी। हरदीसजी मेरी बड़ी बहन के घर भी आते-जाते थे। इनकी शादी भी मेरे गाँव के पास ही करायी थी मेरे बड़के बाबू ने ही। इनके ससुर मेरे स्वर्गीय पिता के सहपाठी हुआ करते थे, इसलिए वे मेरे ‘भागीरथी काका’ थे। भागीरथी काका के भी मेरे ख़्याल में 5-6 बेटियाँ ही थीं और हरदीसजी के भी बेटे न होकर 5-6 बेटियाँ ही हैं, जिसका मुझे पता था। इनमें से एक को उन्होंने अपने यहाँ बसा दिया है, जो हमारे यहाँ की वाजिब रवायत (चलन) है। उन्हें स्वस्थ-सुखी देखना विशेष सुखकारक रहा। बस, कान से न सुनायी देने के कारण पहले जैसी बतकही न हो पायी, वरना आधुनिक-शहरी असर से मुक्त यही खाँटी गंवई आदमी बचे हैं।
सबसे अंत में उमाशंकर भइया के घर पहुँचे। हैं तो मन-मस्तिष्क से ये भी विशुद्ध गँवई, पर बाहर से लगते नहीं। जैसा कि कहा गया– यही कहीं बाहर नहीं गये। तो उन दिनों हमेशा घर पे मिलते– तकनीकी अर्थ में यही आतिथेय (होस्ट) होते… ख़ातिरदारी में बड़े तत्पर। इस पीढ़ी के लोगों में हरदीस के अलावा इन्हीं की शादी में मैं बारात में गया था– खुटौली शादी हुई, जो तब साधनों के अभाव में बड़ा दूर लगा था, लेकिन मज़ा भी खूब आया था। उसी शादी में मेरे बड़के बाबू, जो इस घर के सदस्य की तरह और सबके सफ़रमैंना हुआ करते थे, के सर पे साफा बांध के, दूल्हे की तरह सजा के ‘व्याह में व्याह’ का स्वाँग खेला गया था। मेरे खेलवाड़ी बाबूजी ने भी मज़ा लेते हुए जिस तरह सहर्ष खेलने दिया था कि मुझे तब भी रसखान याद आये थे, अब भी आ रहे–‘मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी/ भावतो तोहिं कहा ‘रसखानि’ सो तेरे कहे सब स्वाँग भरौंगी’।
इसी उमा भइया के साथ उन दिनों सर्वाधिक बातें हुई थीं और यही सबसे कम बोलते थे– आज भी बहुत कम बोले। लेकिन सम्प्रेषण (कहने-सुनने) की फ़ितरत देखिए कि मैं इन्हीं को ज्यादा सुन सका– जबकि बोले ज्यादा गौरी भाई। बक़ौल ग़ालिब–
‘देखिए तक़रीर की लज्जत कि जो उसने कहा, मैंने ये समझा कि गोया वो भी मेरे दिल में है’
लिहाज़ा इसी प्रक्रिया में जान पाया कि एकाधिक बेटियों में से अंतिम की शादी इसी जुलाई में होने वाली है। बेटा एक ही है, जो अच्छी नौकरी में सपरिवार जौनपुर रहता है। माता-पिता व घर की सारी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाता है, पर उमा भइया की अपेक्षा कुछ ज़्यादा रहती है- पीढ़ी के अंतराल का यह मज़ेदार भेद भी सनातन है।
और इस तरह अजिअउरे के पुश्तैनी घर की परिक्रमा पूरी हुई। अब पुन: चलें उपसंहार के लिए भी इस यात्रा के उपक्रम- विनोद के आवास पर…
वहाँ पहुँचकर इस सुखद संयोग का पता चला कि उसी दिन विनोद की शादी की 50वीं सालगिरह थी। तो सोने में सुहागा ही हो गया। सपरिवार उनके साथ जलपान, भोजन, फ़ोटो आदि हुए। विनोद के पोते-पोती समेत तीन पीढ़ियाँ और उम्र उतनी ज़्यादा न सही, रिश्ते के अनुसार मुझे वरिष्ठ पीढ़ी के रूप में जोड़ लिया जाये, तो चार पीढ़ियों का फ़ोटो देखकर मैं तो कृतार्थ हो गया। पूरे परिवार ने पाँव छूके असीस लिये, तो मन भर-भर आया। कभी इसी घर में सबके पाँव छूते हुए मैं प्रविष्ट होता रहा, आज सिर्फ़ हरदीस-गौरी-उमा के सिवा सब मेरे पाँव छू रहे हैं। हम बड़े होते नहीं, लोग हमें अपने सश्रद्ध भावों से बड़ा बना देते हैं। यह अपनी संस्कृति का मूल मंत्र ही है कि आधी सदी से भूली-बिसरी दुनिया महज़ कुछ घंटों में फिर से यूँ जीवंत हो गयी- गोया कभी अंतराल हुआ ही न हो… एक अविस्मरणीय अनुभूति!
लेकिन मेरे लिए सबसे प्रिय प्रसंग अभी आया नहीं… शुरू तो हो गया था जब मैं पहली बार यहाँ चाय के लिए रुका था, लेकिन लिखते हुए उसे मैंने इस अंतिम सोपान के लिए बचा रखा था। और वह है विनोद के दोनो बेटों- विनीत-विवेक (तीनो में ‘वि’ का प्रास देखिए) से भेंट और थोड़ी ही देर में विनोद का मुझसे कहना– ‘मेरा बेटा आपसे कुछ बात करना चाहता है…’। सुन के मेरा तो वही हाल हुआ कि अंधे को क्या चाहिए- दो आँखें। एक बेटा बात करना चाहता है- तो एक आँख ही सही। और जब आके उसने मेरे बारे में जानने की बात की, तब तो क्या कहने– ‘आँखों का तारा’ ही हो गया। मामूली-सा लिखने-पढ़ने वाला मैं– और वह भी हिंदी का, जिसे अपने घर-खानदान-पड़ोस के बच्चे घास नहीं डालते… तो कौन न बलि-बलि जायेगा! और जब बच्चे से यह पता लगा कि रू-ब-रू (फ़ेसबुक) और ‘क्या हाल है’ (व्हाअट्सअप) की मेरी टिप्पणियों एवं प्रकाशित लेखों को विनोद के ज़रिए देख-देख के तथा उनसे ही मेरी जीवन-यात्रा थोड़ी-बहुत सुन-सुन कर बच्चा मुझसे बात करना चाह रहा है, तब तो मेरे मन ने यही कहा– ‘हाय अल्ला, ऐसे युवा भी इस युग में पाये जाते हैं’! ख़ानदान के बच्चों को तो बचपन से चाकलेट-टाफी खिला-खिला के कविताओं से परकाया, तब सिर्फ़ दो पोतियाँ (शिखा-चुनचुन) ही कुछ निकलीं! ऐसे में यह बालक तो एकलव्य ही सिद्ध हुआ। यह और अच्छा लगा कि उसे इस क्षेत्र में कैरियर नहीं बनाना है, सिर्फ़ रुचि के लिए जानना-सुनना है– यानी कला कला के लिए, तब तो गोया ‘फलमिच्छुदंडे’ (गन्ने में फल ही लग गये हों) ही सिद्ध हुआ। ख़ैर, यह बातचीत दो टुकड़ों में हुई– थोड़ी उस घर जाने के पहले और ज्यादा अब खाने के दौरान व बाद। और सुखद है कि इतनी बातों के बाद भी बच्चे की उत्सुकता अभी बरकरार है… तो अगले आगमनों में जारी रहने की सम्भावना व आश्वस्ति के साथ रवाना हुआ।
अभी जां था वहाँ से 5 किमी. आगे एक और बड़ी पुरानी रिश्तेदारी वाले गाँव ‘गौरा’ (मेंहनगर के पास) के लिए। वहाँ से दिवंगत बड़े भाई हरिशंकर तिवारी- जो बीसवीं शताब्दी में साठोत्तर काल के महत्त्वपूर्ण कवि-रचनाकार रहे- की रचनाओं को लेना था, जिसे मुम्बई-निवासी उनके सगे छोटे भाई प्रो. प्रेमशंकर तिवारी मेरी मदद से सम्पादित करके छपाना चाह रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य के कारणों से आ नहीं सकते।
भूपालपुर जाते हुए लम्बे अंतराल के बाद का असमंजस था, चिंता थी, कुतूहल था… अब लौटते हुए परम संतोष है, शांति है, अपार प्रसन्नता है। सुना हुआ याद था– ‘बिछड़े हुए मिलेंगे फिर, क़िस्मत ने ग़र मिला दिया…’ आज सच हो गया। खोते-बिसरते हुए एक अदद घर-संसार के पुनरुज्जीवित होने के परितोष से मन तृप्त था। सुखद स्मृतियों को जीने की आनंदानुभूति के साथ उत्फुल्ल होता-होता कब गौरा आ गया, पता ही न चला। (समाप्त)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)