डॉ. अजय खेमरिया

देश में उपभोक्ता आयोगों के अध्यक्ष की नियुक्तियों को लेकर इन दिनों सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका की सुनवाई जारी है। पिछले दिनों मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अध्यक्ष के रूप में चयनित होने के लिए लिखित परीक्षा के प्रावधान को जजों की गरिमा के विरुद्ध माना उन्होंने सरकार से इस पर जबाब मांगा है। रोचक तथ्य यह है कि लिखित परीक्षा के आदेश खुद सुप्रीम कोर्ट ने ही पिछले साल दिए थे। अब हाईकोर्ट और जिला जजों को जब सामान्य लोगों के साथ परीक्षा में बैठना पड़ा तो सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक गरिमा का ख्याल आ गया। वस्तुतः देश में उपभोक्ता अदालतें(आयोग) 2019 के नए एक्ट के अनुरूप खुद को खड़ा ही नही कर पाएं हैं। आम लोगों में अभी भी आयोगों को लेकर जागरूकता का अभाव है। शीर्ष अदालतें कानून के जमीनी प्रवर्तन के स्थान पर अनावश्यक रूप से आयोगों के गठन औऱ नियुक्तियों में हस्तक्षेप कर सरकारों को इस मामले में हीलाहवाली का मौका उपलब्ध करा रही है। बेहतर होगा नियुक्तियों का कार्यक्षेत्र सरकारों पर ही छोड़कर अदालतें कानून के समयबद्ध एवं त्वरित प्रवर्तन पर निगाहें रखें।

लिखित एवं मौखिक परीक्षा उपभोक्ता कानून की भावना के विरुद्ध

देश में उपभोक्ता अदालतें (आयोग) सरकार एवं न्यायपालिका के मध्य फंस गई हैं। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश डी वाई चन्द्रचूड की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने राज्य एवं जिला उपभोक्ता आयोगों में रिटायर्ड न्यायाधीशों की अध्यक्ष के रूप में नियुक्तियों से पूर्व आयोजित होने वाली लिखित एवं मौखिक परीक्षा को उपभोक्ता कानून की भावना के विरुद्ध माना है। समझा जा रहा है कि जल्द ही सरकार इस परीक्षा के प्रावधान को खत्म कर देगी। अलबत्ता पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने ही ऐसी परीक्षा के आदेश दिए थे। जिसके तहत सभी स्तर के आयोगों में नियुक्ति के लिए दो लिखित परीक्षा एवं हाईकोर्ट जज की अध्यक्षता वाले बोर्ड के जरिये साक्षात्कार अनिवार्य कर दिया गया था। कई राज्यों में इसी आदेश के अनुरूप नियुक्तियों की प्रक्रिया चल रही है। अब उच्चतम न्यायालय को यह लगने लगा कि हाईकोर्ट औऱ जिला जज के पद पर काम करने वाले लोग रिटायरमेंट के बाद परीक्षा दें, यह न्यायाधीश की गरिमा के विरुद्ध है।

आयोगों में बुरी तरह उलझी चयन प्रक्रिया

सच्चाई यह है कि इन उपभोक्ता अदालतों में शत प्रतिशत अध्यक्ष न्यायिक सेवा के रिटायर अधिकारी ही रहते हैं। देश में इस समय 35 राज्य आयोग एवं 649 जिला आयोग स्थापित हैं, जिन्हें 2019 के उपभोक्ता संरक्षण कानून के बाद काफी सशक्त बनाया गया है। इन आयोगों में सामाजिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को सदस्य रखे जाने का प्रावधान है। शीर्ष अदालतों द्वारा सरकार द्वारा निर्धारित चयन प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर पिछले साल संशोधन संस्थित किये गए थे, इसका नतीजा यह हुआ कि आयोगों में चयन प्रक्रिया बुरी तरह उलझ कर रह गईं। संसद के बजट सत्र में सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 35 राज्य आयोगों में केवल 13 पूर्णकालिक अध्यक्ष ही कार्यरत हैं। राज्यों में सदस्यों के कुल स्वीकृत 160  सदस्यों में से महज 83 ही पदस्थ हैं। इसी तरह 649 जिला आयोग अध्यक्ष में केवल 83 अध्यक्ष एवं 1324 जिला सदस्य में 251 ही कार्यरत हैं। यानी अधिकतर स्तर पर आयोग खाली पड़े हैं।

अदालत के रुख पर उठ रहे सवाल

असल में राज्य सरकारें तो पहले से ही इन अदालतों के सुचारू गठन और परिचालन में रुचि नहीं रखती हैं, ऐसे में चयन प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर शीर्ष अदालत ने सरकारों के लिए हीलाहवाली का मौका उपलब्ध करा दिया। बेहतर होता अदालत समयबद्ध नियुक्तियों औऱ उपभोक्ता मामलों के त्वरित निराकरण की निगरानी पर काम करतीं। इस मामले में अदालत के रुख पर इसलिये भी सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि परीक्षा से मुक्त नियुक्तियों की छूट केवल न्यायिक अधिकारियों को देने की बात हो रही है, जबकि हर स्तर के आयोग में समाजसेवा, वित्त,प्रबन्धन, शिक्षा क्षेत्र में 10 साल का अनुभव रखने वाले लोग सदस्य बनाये जाते हैं। शीर्ष अदालत ने इन सदस्यों के कार्यानुभव को कोई अधिमान्यता नहीं दी, जबकि मूल कानून में ऐसे अनुभवी सदस्यों को कार्य निष्पादन रिकार्ड के आधार पर पुनरनियुक्ति की पात्रता थी।

यह उठता है सवाल

सवाल यह कि अच्छे और अनुभवी या प्रतिभाशाली लोग चार साल के कार्यकाल के लिए इन आयोगों में क्यों आयेंगे? बेहतर होगा अदालत औऱ सरकार इस दिशा में भी काम करें। जमीनी तथ्य यह है कि  देश में अभी भी असंगठित क्षेत्र का कारोबार आम उपभोक्ताओं के लिए शोषण का जरिया बना हुआ है। दुनिया के सबसे बड़े बाजार और कारोबार के बाबजूद भारत में आम आदमी उपभोक्ता अधिकारों के प्रति सचेत नही हैं। 2023 में 5लाख 43हजार 592 मामले विभिन्न आयोगों में लंबित रहे हैं। 2022 में यह आंकड़ा 5 लाख 54 हजार एवं 2021 में 5 लाख 60 हजार था। जाहिर है नए कानून के लागू होने के बावजूद उपभोक्ता आयोग उपभोक्ताओं के लिए त्वरित न्याय देने में सक्षम नही हो पाए हैं।

ध्यान रखना होगा कि भारत में अनुचित व्यापार, मिथ्या प्रचार, सेवा में कमी जैसे मामलों में प्रति एक सौ में से बमुश्किल एक ग्राहक भी उपभोक्ता अदालतों में शिकायत नहीं करते हैं। सरकार ने नेशनल कन्जयूमर हेल्पलाइन जारी की इस पर 2022 -23 में 10लाख शिकायत दर्ज हुई, लेकिन 80 फीसदी मामलों में उपभोक्ता निराकरण से सन्तुष्ट नहीं हुए। उपभोक्ता जागरूकता के लिए सरकार ने उपभोक्ता कल्याण निधि बनाई है लेकिन अभी तक केवल 05 विश्वविद्यालय एवं 08 शैक्षणिक संस्थानों को ही इस मद से राशि मिल सकी। जागरूकता स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार जैसे राज्य में 2023 में मात्र 4168 मामले अदालतों में पेश किए गए। 2021 में तो यह आंकड़ा 2710 ही था। उत्तर प्रदेश में 2023 में 18972,2022 में 20409 और 2021 में महज 14983 ही रहा । राजधानी दिल्ली और मुंबई-महाराष्ट्र के भी कमोबेश ऐसे ही आंकड़े हैं जो सरकार ने राज्यसभा में प्रस्तुत किये हैं।

सालभर में आयोगों में केवल डेढ़ लाख ही केस आते हैं

दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि देश में औसत डेढ़ लाख केस ही सालाना विभिन्न आयोगों में आ पाते हैं। उसमें भी 5लाख से अधिक मामलों का बैकलॉग बना हुआ है। बेहतर हो शीर्ष अदालत सरकार के चयन मापदण्डों पर बार-बार हस्तक्षेप के स्थान पर उपभोक्ताओं के मध्य जागरूकता के साथ कानून में विहित समय सीमा में प्रकरणों का निस्तारण पर अपना एक निगरानी तन्त्र सक्रिय करें। क्योंकि उपभोक्ता अदालतों के गठन का उद्देश्य मूलतः सिविल मामलों की दुरूह प्रक्रिया से नागरिकों को निजात दिलाना था, इसीलिये 1986 का कानून बनाकर उपभोक्ता फोरम बनाये गए थे और आज के परिवेश में नया 2019 का कानून लागू किया गया है।

उपभोक्ताओं के लिए सुरक्षा कवच बन रहा नया कानून

नया कानून बदलते बाजार खासकर ई कॉमर्स कम्पनियों के जाल में उपभोक्ताओं को बेहतरीन सुरक्षा कवच भी है। बेशक अमेरिका ,इंग्लैण्ड,चीन  की तुलना में ई कामर्स कम्पनियों की भागीदारी कुल खुदरा कारोबार में अभी 6.5 फीसदी ही है लेकिन यह अगले पांच साल में 166 फीसद की दर से बढ़ रही है। 2028 तक ई कामर्स कारोबार अमेरिका औऱ चीन को पछाड़कर 160 बिलियन अमेरिकी डॉलर औऱ 2030 में इसके 350 बिलियन डालर होने का अनुमान है। देश मे ई कॉमर्स कैसे उपभोक्ताओं के शोषण का जरिया बन सकता है इसकी मिसाल यह है कि पिछले साल कुल शिकायत में से 57 फीसद मामले इन्हीं ई कॉमर्स कम्पनियों के थे। 2019 में यही आंकड़ा महज 08 फीसद ही था। अकेले फ्लिपकार्ट के विरुद ही 67 फीसदी मामले थे।

हालिया रिपोर्ट कहती है कि ई कॉमर्स मामलों में 19 फीसद रिफंड,16.4 त्रुटिपूर्ण माल/सेवा,12.2 गलत उत्पाद डिलीवरी,11.6 सेवा में कमी और 9.7फीसदी तो उत्पादों की डिलीवरी ही न करने की हैं। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि अगर देश में उपभोक्ता आयोगों की संरचना को मैदानी स्तर तक सशक्त नही बनाया गया तो न केवल परम्परागत अनुचित व्यापार संव्यवहार बल्कि ई कॉमर्स कम्पनियों की मनमानी औऱ शोषण का शिकार भारत का बहुसंख्यक समाज बनने जा रहा है।

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उपभोक्ताओं के मध्य वास्तविक जागरूकता जरूरी

सरकार  को भी चाहिए कि केवल “जागो ग्राहक जागो” के सरकारी प्रचार से हटकर देश मे उपभोक्ताओं के मध्य वास्तविक जागरूकता के प्रयास सामाजिक भागीदारी के साथ शुरू करे। जब आयोग सशक्त होंगे तो उपभोक्ताओं को त्वरित न्याय प्रदान कर सकेंगे, कमजोर और संसधानविहीन आयोग उपभोक्ता संरक्षण कानून 2019 के उद्देश्यों के साथ न्याय नहीं कर सकते हैं। शीर्ष अदालतों को भी इस व्यापक क्षेत्र में अपनी परिणामोन्मुखी भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है न कि ऐसे आदेश जारी करने जिनसे सरकारों के सामने दुविधा के साथ अधिकार क्षेत्र का सवाल खड़ा हो।

न्यायधीशों को ही छूट क्यों?

सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट को क्यों लगता है कि हाईकोर्ट औऱ जिला कोर्ट के जज अगर परीक्षा देंगे तो यह गरिमा के विरुद्ध है। अगर जजों की गरिमा इससे प्रभावित होती है तो सदस्यों के रूप में चयनित सामाजिक कार्यकर्ता भी अपने प्रमाणिक अनुभव से इन आयोगों में आते हैं। सदस्यों को केवल दो कार्यकाल के लिए पात्रता है, जबकि हर बार उन्हें परीक्षा देनी होगी । वहीं न्यायाधीश 67 साल तक अध्यक्ष रह सकते हैं। योग्यता और गरिमा का सवाल न्यायपीठ पर लागू होना चाहिए न कि केवल जजों पर। बेहतर होगा तीन स्तरों वाली यह परीक्षा या तो सभी को तय हो या किसी के लिए नहीं। इससे आयोगों की साख बढ़ेगी।
(लेखक जिला उपभोक्ता आयोग में सदस्य हैं)