क्या मध्यावधि चुनाव की तरफ बढ़ रहा है बिहार?

प्रदीप सिंह।
कुंठा व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व पर असर डालती है। वह उस तक ही सीमित नहीं रहती है। उसका असर उसके आसपास के लोगों पर भी पड़ता है। कुंठित व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ होता है और उसे हर जगह नकारात्मक चीजें ही दिखती हैं। उसे लगता है कि हर व्यक्ति उसके खिलाफ षड्यंत्र कर रहा है, हर व्यक्ति उसे नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है, उसके खिलाफ लोग बोल रहे हैं। अगर कुंठित व्यक्ति नेता हो और प्रमुख नेता हो और उसके हाथ में सत्ता की बागडोर हो- तो वह और ज्यादा खतरनाक होता है। खतरनाक सिर्फ अपने लिए नहीं होता, बल्कि वह अपनी पार्टी के लिए, अपने संगठन के लिए, उन संस्थाओं के लिए जिनका वह नेतृत्व करता है या फिर जो उन पर निर्भर हैं- सबके लिए खतरनाक होता है। इसके अलावा आम समाज पर भी उसका असर पड़ता है।
लोगों की समझ में नहीं आता कि वह व्यक्ति ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है, उसका कारण क्या है- सामने कुछ दिखाई नहीं देता है। उस व्यक्ति के मन में जो चीजें चल रही होती हैं उनमें से बहुत सी चीजें सच भी होती हैं और बहुत सी चीजों की वह कल्पना कर लेता है कि ऐसा हो रहा है उसके साथ। अगर उसकी स्थिति पहले बहुत अच्छी रही हो और अब वैसी न रह जाए तो उस स्थिति में कुंठा और ज्यादा गहरी हो जाती है। कुंठा का भाव अपना प्रभाव और ज्यादा बढ़ा लेता है।

करने लगता है बड़े-बड़े दावे

Days After Nitish Kumar's Outburst, A Win For Bihar Speaker, BJP

मैं बात कर रहा हूं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की। एक समय उन्हें सुशासन बाबू की उपाधि मिली थी। क्या उनका व्यक्तित्व था, पिछड़ों में बहुत पढ़े-लिखे बहुत आर्टिकुलेट, बात को बहुत सही ढंग से रखने वाले, सिद्धांत पर चलने वाले, जीवन में व्यवहारिकता का पालन करने वाले, सामाजिक राजनीतिक विषयों पर बेबाकी से राय रखने वाले और गठबंधन की राजनीति के कुशल कर्ता। शासन को चलाने की विधा में उनके मुकाबले बिहार में कई दशकों पहले तक कोई नहीं था लेकिन यह सब 2013 के बाद से बदल गया। 2013 के बाद से बदल गया- यह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि 2013 में उन्होंने एनडीए और भाजपा से अपना नाता तोड़ लिया- बल्कि इसलिए कह रहा हूं कि इसके बाद से उनके कुल व्यक्तित्व में गिरावट आई है- जिस तरह का व्यवहार और बातें करने लगे हैं, बड़े-बड़े दावे करने लगे हैं। दरअसल, कुंठित व्यक्ति दावे बहुत बड़े-बड़े करता है।

अपनी ही बातों से पलटना

Nitish Kumar, Lalu Prasad Yadav and a tale of two villages - Times of India

मैं दो उदाहरण देता हूं। एक, जब वे एनडीए छोड़ कर लालू प्रसाद यादव के साथ फिर मिल गए और 2015 में चुनाव जीतकर सरकार बनाई। मुख्यमंत्री बने तो बिहार विधानसभा के पटल पर बोलते हुए उन्होंने जोर-जोर से चिल्लाकर अपनी बातें कहीं। चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं थी। यह उनके स्वभाव में नहीं है।सामान्य तौर पर भी वो बातें कही जा सकती थीं। जब वे जोर से चिल्लाते हैं तो नेचुरल नहीं लगते। मुस्कुराते हुए अपनी बात कहने के कायल रहे हैं। लेकिन वह सब छूटता जा रहा है। उनके व्यक्तित्व का जो भी अच्छा था वह सब धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है। इसके लिए उनके अलावा कोई और जिम्मेदार नहीं है।उस समय उन्होंने एक बयान दिया था, “मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन कभी बीजेपी से हाथ नहीं मिलाऊंगा”।अपने इस बयान से पलटने में उन्हें सिर्फ चार साल लगे- 2017 में फिर बीजेपी के साथ आ गए। जब लालू के साथ थे तो कहा था, “आरएसएस मुक्त भारत बनाना है”। फिर आरएसएस वालों के साथ आ गए। अब उनकी मुश्किल यह हो गई है कि वह राजनीति करना चाहते हैं धर्मनिरपेक्षता की- सेक्युलरिस्ट के साथ वे खुद को सहज महसूस करते हैं- लेकिन सत्ता चाहते हैं बीजेपी के साथ जिसको वे सेक्युलर नहीं मानते।

सिद्धांत से समझौते से बदल जाता है व्यक्तित्व

सिद्धांत से जब आप इतना बड़ा समझौता करते हैं और सत्ता के लिए उसके साथ रहने को तैयार हैं जो सेक्युलर नहीं हैं तो फिर आपके व्यक्तित्व में यह बदलाव आएगा ही। मुसलमानों को साथ लाने के लिए क्या-क्या नहीं किया नीतीश कुमार ने। मुझे लगता है कि उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी तमन्ना थी कि मुसलमान लालू से टूट कर उनके साथ आ जाएं। मगर यह हुआ नहीं। यह हुआ नहीं तो उनकी पार्टी बिहार की नंबर एक पार्टी कभी बन नहीं पाई जब तक कि बीजेपी ने उनको नंबर एक बनने नहीं दिया। मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि बीजेपी ने जब उनको ज्यादा सीटें दी, ज्यादा सीटें जीतने का मौका दिया तभी उनकी पार्टी नंबर एक बन पाई। जैसे ही मामला बराबरी का आया उनकी पार्टी नीचे चली गई। 2005 और 2010 दोनों चुनाव में बीजेपी ने उनको 200 से ज्यादा सीटें दी। उसका नतीजा यह हुआ कि जेडीयू सिंगल लार्जेस्ट पार्टी बनी। 2015 में जब लालू प्रसाद के साथ समझौता किया तो बराबर-बराबर सीटें बंटी।नतीजे आने के बाद महागठबंधन में लालू प्रसाद की पार्टी बड़ी हो गई और नीतीश कुमार की पार्टी दूसरे नंबर पर। 2014 में लोकसभा का चुनाव उनकी पार्टी ने अकेले लड़ा था। तब सिर्फ बिहार की 40 में से 2 सीटें मिली थी उनकी पार्टी को। फिर भाजपा के साथ आने पर 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कहा कि अब हमारा जनाधार बढ़ गया है तो पहले वाला समझौता नहीं चलेगा। अब बराबर-बराबर लड़ेंगे। बराबर-बराबर सीटों पर लड़े तो एनडीए गठबंधन में भी  नंबर दो हो गए नीतीश बाबू। हालांकि, इस चुनाव में कुल मिलाकर उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर रही। उनकी पार्टी बड़ी पार्टी तभी बन पाई जब बीजेपी ने ज्यादा सीटें दी। 2014, 2015 और 2020 के चुनाव से पता चला की सुशासन बाबू की छवि कुछ भी हो, दावा जो भी हो, वह बिहार में अपने बूते अपनी पार्टी को कभी नंबर एक की पार्टी नहीं बना पाए। अब उनकी पार्टी और नीचे जा रही है।

विधानसभा में दिखी कुंठा

इन सब वजहों से उनमें कुंठा है। यह अभी 15 मार्च को विधानसभा में भी दिखा। विधानसभा में उन्होंने जिस तरह से स्पीकर के खिलाफ बोला- ऐसा नहीं है कि उन्होंने किसी तात्कालिक भावना में आकर ऐसी बातें कहीं- लगता है कि जैसे वह इसके लिए तैयार बैठे थे। मामला था लखीसराय का। लखीसराय विधानसभा इलाके से ही विधानसभा स्पीकर विजय सिन्हा आते हैं। यह विधानसभा क्षेत्र जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह के संसदीय क्षेत्र में आता है। नीतीश कुमार के लिए ललन सिंह का साथ देना और उन्हें यह बताना जरूरी था कि वे उनके साथ हैं, यह लोगों को दिखाना था। विधानसभा में प्रश्न उठाया गया कि लखीसराय में 50 दिनों में 9 हत्याएं हुई हैं। इसके अलावा सरस्वती पूजा का मामला था जिसमें प्रोटोकॉल के उल्लंघन पर पुलिस ने दबाव में केस तो दर्ज कर लिया लेकिन गिरफ्तारी की निर्दोष लोगों की। आरोपियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। भाजपा के विधायक विजय सरावगी ने इस मामले को उठाया और उस पर विधानसभा में चर्चा चल रही थी। प्रभारी गृह मंत्री विजेंद्र यादव उसका आधा-अधूरा और गोलमोल जवाब दे रहे थे। इस पर स्पीकर ने कहा कि आपका यह जवाब पूर्ण नहीं माना जाएगा, फिर से जवाब दीजिएगा। नीतीश कुमार विधानसभा स्थित अपने चैंबर में बैठकर पूरी कार्यवाही देख रहे थे। वहां से भागते हुए सदन में आए और उसके बाद जो हुआ, अगर आप लोगों ने वह वीडियो देखा है तो देखा होगा कि जिस तरह से वह चिल्लाए हैं और सबसे आपत्तिजनक बात जो उन्होंने विधानसभा स्पीकर के लिए कही कि “आप होते कौन हैं”।

सौती का रिस कठौती पर

उनका कहना था कि विधानसभा अध्यक्ष को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था। कहीं कोई घटना हुई, पुलिस जांच कर रही है, जांच की रिपोर्ट कोर्ट में जाएगी- इसका विधानसभा अध्यक्ष से क्या लेना-देना। अब आप देखिए कि कहीं कोई घटना हो रही है, खासकर तब जब विधानसभा अध्यक्ष के अपने क्षेत्र में और उस पर वह कुछ न बोलें, कुछ कहे नहीं। उन्होंने मुख्यमंत्री के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा लेकिन नीतीश कुमार तय करके बैठे थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में भी शायद यह कहावत है, “सौती का रिस कठौती पर”। सौती मतलब सौतन, रिस मतलब गुस्सा, कठौती का मतलब लकड़ी का वह बर्तन जिसमें आटा गूंथा जाता है। यानी नाराजगी किसी से और उसका गुस्सा किसी और पर निकालना। नीतीश कुमार की नाराजगी बीजेपी से है,  बीजेपी हाईकमान से है। उनको इस बात से नाराजगी है कि उनकी पार्टी गठबंधन में नंबर दो और बीजेपी से छोटी पार्टी हो गई। वह बड़े भाई से छोटे भाई की भूमिका में आ गए। बीजेपी ने कृपा कर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया है क्योंकि बीजेपी के पास कोई विकल्प नहीं था। बीजेपी को मालूम था कि अगर वह अपना मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश करेगी तो नीतीश कुमार उस समय मना नहीं करेंगे लेकिन ज्यादा दिन सरकार चलने भी नहीं देंगे। छोटी पार्टी होते हुए भी वे उसी तरह से सरकार चलाना चाहते हैं- बल्कि चला रहे हैं- जिस तरह से वह बड़ी पार्टी होते हुए चलाते थे। उनको यह कतई मंजूर नहीं है कि बिहार भाजपा अपनी रीढ़ की हड्डी दिखाए। वह चाहते हैं कि बिहार भाजपा हमेशा उनके सामने नतमस्तक रहे। पहले वह ऐसा करवा लेते थे क्योंकि दिल्ली से उनको समर्थन मिल जाता था। अपनी ही पार्टी को बीजेपी के बड़े नेता दबाते थे, अपनी पार्टी के नेताओं को ही दबाते थे और नीतीश कुमार का समर्थन करते थे। मगर अब माहौल बदल चुका है।

बदले माहौल में बीजेपी के साथ तालमेल में मुश्किल

Nitish Kumar's Journey From Trenchant Modi Critic To the Most Reliable Executor of 'Moditva'

2014 के बाद से जो माहौल है उसमें ऐसा नहीं होने वाला है। खासकर, बड़ी पार्टी होने के बाद झुक कर बात करे, यह पार्टी को मंजूर नहीं है और नीतीश कुमार को यह नई परिस्थिति मंजूर नहीं है। तो कुंठा का एक सबसे बड़ा कारण यह है कि एक तो उनकी पार्टी छोटी हो गई और जिस तरह से उनका हुक्मनामा, उनका रौब चलता था वह कम हो गया। बिहार में समस्या है, बिहार भाजपा में समस्या है, सरकार में कोई समस्या है तो उसका हल वह बिहार में नहीं दिल्ली जाकर लाते थे। बात सही हो या गलत फैसला हमेशा उन्हीं के पक्ष में होता था। यह उनकी आदत बन गई थी। 2015 में जब लालू प्रसाद यादव के साथ गए तो वहां भी यह नहीं चला। वहां भी यह भाव था कि हमारी पार्टी बड़ी है और आपकी पार्टी छोटी।  कृपा करके हमने आपको मुख्यमंत्री बनाया है क्योंकि हम लंबे समय से सत्ता से बाहर थे और हमें सत्ता में आना था। यह लालू प्रसाद का और आरजेडी का तर्क था। इसीलिए शहाबुद्दीन ने उनके लिए कहा था कि वे परिस्थितियों के मुख्यमंत्री हैं। यह बात उनके मन में हमेशा कौंधती होगी, कुरेदती होगी। उनको यह लगता होगा कि बीजेपी वाले भी यही मानते हैं कि उनको कृपा से मुख्यमंत्री बनाया गया है। हालांकि यह बात बीजेपी से कोई कहता नहीं है।

दूसरे क्षेत्रीय नेता उनसे आगे निकले

बात सिर्फ इतनी नहीं है। बात यह है कि नीतीश कुमार करें तो करें क्या। सेक्युलर खेमे में वह तन्खैय्या घोषित हो चुके हैं। भाजपाई खेमे में उनकी स्वीकार्यता पहले जैसी नहीं रह गई है। एक समय वह प्रधानमंत्री पद के विकल्प के रूप में देखे जाते थे। सेक्युलर पार्टियां जब विकल्प की बात करती थीं तो नीतीश कुमार का नाम आता था। अब उनका कोई नामलेवा नहीं है। उनसे आगे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी निकल चुकी हैं जो राष्ट्रीय विकल्प बनने का दावा पेश कर रही हैं। उनसे आगे अरविंद केजरीवाल निकल चुके हैं जो एक राज्य दिल्ली से निकलकर दूसरे राज्य पंजाब में भारी बहुमत से सरकार बना चुके हैं। वह भी अब राष्ट्रीय विकल्प बनने का दावा कर रहे हैं। राष्ट्रीय विकल्प बनने का दावा तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर भी कर रहे हैं जो गैर भाजपा गैर कांग्रेस गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इन सब प्रयासों में नीतीश कुमार कहीं नहीं हैं। उनको कोई पूछ नहीं रहा है। बीच-बीच में वह प्रशांत किशोर को बुला लेते हैं और वहां से खबर चलवाई जाती है कि बड़ी लंबी बात हुई प्रशांत किशोर से, दोनों की मुलाकात हुई, आगे की रणनीति पर चर्चा हुई। फिर उनके पत्रकार मित्र धीरे से यह खबर प्लांट करते हैं कि उनका नाम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए चल रहा है। मुझे नहीं लगता है कि कोई भी राजनीतिक दल इसके लिए  नीतीश कुमार के नाम पर सहमत होगा। यह कुंठा उस बात की है कि वे कहां थे और कहां पहुंच गए हैं।

स्पीकर से बुरा बर्ताव सही नहीं

tussle between nitish kumar and vijay kumar sinha in bihar assembly |असेंबली में अपनी ही सरकार के स्पीकर पर भड़क गए CM नीतीश कुमार, जानें क्या है मामला| Hindi News, देश

2005 से 2022 तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान, एक-डेढ़ साल का कार्यकाल छोड़ दीजिए जब जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री थे, 16 साल से ज्यादा समय से मुख्यमंत्री हैं। उपलब्धि के नाम पर सिर्फ शराबबंदी है जिसमें उनकी बदनामी ज्यादा हुई नेकनामी बहुत कम। नेकनामी सिर्फ इतनी हुई कि इससे महिलाओं के जीवन में बदलाव आया। लेकिन इसे लेकर जिस तरह का कानून उन्होंने बनाया उस पर सुप्रीम कोर्ट पूछ रहा है कि यह कानून बनाने से पहले इसके परिणामों पर आपने विचार किया था क्या? नीतीश सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है। पॉलिसी लागू हुए इतने साल हो गए फिर भी तुरंत जवाब देते नहीं बना। इसके लिए समय मांगा। इस कानून में कई संशोधन हो चुके हैं। अभी और संशोधन करने पड़ेंगे और किए जा रहे हैं। जनता दल यूनाइटेड की अपनी भी समस्या है। आरसीपी सिंह केंद्र में मंत्री बन गए हैं और ललन सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया है। इन दोनों के बीच में आपसी खींचतान है। दोनों के बीच में संतुलन बिठाना उनकी मजबूरी है। इसलिए वह अलग-अलग समय पर तरह-तरह के बयान देते रहते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि आरसीपी सिंह नीतीश कुमार से थोड़ा दूर चले गए हैं और भाजपा के करीब हो गए हैं। यह बात भी उनको फ्रस्ट्रेट करती है कि ऐसा कैसा सकता है। ललन सिंह को तो उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष बना दिया है लेकिन ललन सिंह को लगता है कि उन्हें इससे ज्यादा मिलना चाहिए था। ये सारे फ्रस्ट्रेशन मिलकर लखीसराय के बहाने बाहर आए। सदन में जिस तरह का व्यवहार उन्होंने स्पीकर के साथ किया है उसे किसी भी दृष्टि से सही नहीं ठहराया जा सकता है। आज तक किसी विधानसभा में इस तरह का नजारा देखने को नहीं मिला जब मुख्यमंत्री स्पीकर के खिलाफ बोले कि आप होते कौन हैं, इस तरह से चलाइएगा सदन। सदन किस तरह से चलाना है यह तो स्पीकर ही तय करेगा। यह मुख्यमंत्री तय नहीं करता है। विधानसभा में विधानसभा अध्यक्ष और लोकसभा में लोकसभा अध्यक्ष यह तय करता है कि सदन कैसे चलेगा। यह अलग बात है कि सबकी सहमति से चलता है, सबके सुझाव से चलता है। लेकिन सदन कैसे चलाया जाए यह मुख्यमंत्री विधानसभा में खड़े होकर स्पीकर से नहीं पूछ सकते।

जिस तरह की भाषा, जिस तरह का तेवर था उनका- उससे लग रहा था कि सामने कोई अपराधी खड़ा है और उसके खिलाफ उनका गुस्सा फूट रहा है। विधानसभा अध्यक्ष ने कोई गुनाह नहीं किया था, उनके खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की थी। नीतीश कुमार की कुंठा उन्हें कहां ले जाएगी। यह ले जा रही है बिहार में मध्यावधि चुनाव की ओर। आप मान कर चलिए कि यह सरकार पूरे पांच साल नहीं चलने वाली है। इसका एकमात्र कारण होगा नीतीश कुमार की कुंठा। यह दो महीने में होगा, चार महीने में होगा, पता नहीं लेकिन मध्यावधि चुनाव बिहार में होगा, ऐसा निश्चित जान पड़ रहा है।