दो वर्ग तैयार कर प्रधानमंत्री ने जाति की जकड़न को तोड़ा। 

प्रदीप सिंह। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनेता हैं समाज सुधारक नहीं हैं, लेकिन वह राजनीति के साथ-साथ समाज को बदलने का भी  काम कर रहे हैं। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत ही धीमी होती है। उसमें दशकों नहीं शताब्दियां भी लग सकती है, लेकिन नरेंद्र मोदी पुरानी व्यवस्था को गिराकर या उसका विध्वंस करके नहीं बल्कि एक नई रचना के जरिए सामाजिक  संरचना को बदलने की कोशिश कर रहे हैं। पिछली कुछ शताब्दियों से भारत की सामाजिक संरचना जाति पर आधारित हो गई है। आज इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल है कि भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी। आप जिन लोगों से कहेंगे वे मानेंगे नहीं और जो जाति व्यवस्था को चलाए रखना चाहते हैं, वे तो बिल्कुल नहीं मानेंगे। वे कहेंगे आप झूठ बोल रहे हैं। वे लोग जो खासतौर से सनातन विरोधी हैं और जो दिन रात मनुस्मृति को गाली देते हैं, उन्होंने दरअसल मनुस्मृति के बारे में कुछ जानने, समझने की कोशिश ही नहीं की है। 

भारतीय समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था, जाति व्यवस्था पर नहीं। दोनों का अंतर समझिए। वर्ण व्यवस्था एक मोबाइल डायनेमिक व्यवस्था थी जो गतिशील थी। यानी एक वर्ण के लोग दूसरे वर्ण में जा सकते हैं। जबकि जाति व्यवस्था एक जड़ व्यवस्था है, जिसमें गतिशीलता नहीं है। वर्ण व्यवस्था निर्धारित होती है आपके कर्म से और कर्म ऐसी चीज है, जो आप खुद अर्जित करते हैं। वो कोई आपको दे नहीं सकता। जबकि जाति व्यवस्था ऐसी है, जहां आपका स्थान तय होता है आपके जन्म से। जिसमें आपकी कोई भूमिका नहीं है। आप यह तय नहीं कर सकते या दुनिया का बड़े से बड़ा आदमी यह तय नहीं कर सकता कि वह किस घर, किस जाति या किस धर्म में जन्म लेगा। तो जो हमारे वश में नहीं है, उसको हमने स्थाई मान लिया और जो हमारे वश में है, उसको छोड़ दिया।

आज जो हमारे देश की समस्या है, उसका आधा कारण यही सोच है कि हमने एक साइंटिफिक सामाजिक व्यवस्था को छोड़कर एक अनसाइंटिफिक व्यवस्था को अपना लिया। किसी के जन्म से आप किसी के भविष्य या  वर्तमान के बारे में कैसे तय कर सकते हैं? लेकिन उसके प्रोफेशन से, उसके कर्म से तो तय किया जा सकता है कि उसे कहां होना चाहिए। तो वर्ण व्यवस्था आपके कर्म से आपके प्रोफेशन से तय होती थी और यह वर्ण व्यवस्था जैसे-जैसे जड़ होती गई वह जाति में बदल गई। फिर कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रह गई और बेहतर होने या आगे बढ़ने की लालसा भी धीरे-धीरे कम हो गई। फिर कुछ जातियों को अपमान सूचक बना दिया गया कि अगर आप इस जाति में पैदा हुए हैं तो आप अपमानित होने के लिए अभिशप्त हैं। अब कोई व्यक्ति यह नहीं तय करता कि वह किस जाति में पैदा हो। उसमें उसका किसी तरह का कोई दोष नहीं है, लेकिन उसको दोषी ठहरा दिया जाता है। तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या इससे पहले भी बहुत से लोगों के सामने यह प्रश्न रहा होग कि इस स्थिति को बदलें कैसे? इस परिवर्तन के बिना समाज या देश को आगे ले जाना बड़ा मुश्किल है। जब हम सोने की चिड़िया हुआ करते थे और हमारी सनातन संस्कृति का जो 10,000 साल या उससे ज्यादा का इतिहास है, उसमें हमारी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक संरचना जाति पर आधारित नहीं थी। इसीलिए हम इतनी तरक्की कर सके। नए-नए तरह के अनुसंधान कर सके। तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ तोड़ने के बजाय एक नई संरचना रचने की कोशिश की और उसी कोशिश के तहत उन्होंने दो वर्गों का निर्माण कर दिया है। पुरानी व्यवस्था को तोड़ने या उसको बदलने की अगर आप बात करेंगे तो एक तो उस जकड़न को तोड़ना बहुत कठिन है और तोड़ने की बात करते ही आप पर संकट का पहाड़ टूट पड़ेगा। आपकी नीयत कोई नहीं देखेगा। इसीलिए प्रधानमंत्री ने वह रास्ता अपनाया ही नहीं। उन्होंने जिन दो नए वर्गों का निर्माण किया वे हैं महिला और युवा।

अब आप इन दोनों वर्ग और जाति का अंतर समझिए। वर्ग में कास्ट न्यूट्रल है। महिला किसी भी जाति की हो सकती है। युवा किसी भी जाति का हो सकता है। लेकिन जैसे ही आप जाति में जाते हैं, विभाजन शुरू हो जाता है, अलगाव शुरू हो जाता है। वर्ग में जब तक रहते हैं, तब तक समरसता और एकता बनी रहती है। जब आप महिला को एक वर्ग के रूप में संबोधित करेंगे। उसके लिए नीतियां व कार्यक्रम बनाएंगे तो वे उसको जाति के चश्मे से नहीं देखेंगे। उसे उस वर्ग की भलाई के चश्मे से देखा जाएगा। यही बात है युवा वर्ग की। युवा वर्ग किसी भी देश या समाज का हो, सबसे बड़ा आकांक्षी वर्ग होता है। आसमान की ऊंचाइयां छूना चाहता है। उसको अगर आप जाति में बांटकर पहले से ही तय कर देंगे कि यह योग्य है, यह अयोग्य है तो फिर आपने एक बड़े वर्ग का विकास तो वहीं पर रोक दिया। और वर्ग में उसको रखकर देखिए। जैसे युवा वर्ग तो उसके लिए सारा आसमान खुला हुआ है। कुछ भी हासिल करने की उसको छूट है, क्षमता है अगर तो सब कुछ हासिल कर सकते हैं। उसका जाति से या उससे ज्यादा मैं कहूं उसके जन्म से कोई लेना देना नहीं है। यही  प्रधानमंत्री ने किया है। बिहार के बारे में माना जाता है कि वह जाति व्यवस्था की जकड़न में सबसे ज्यादा जकड़ा हुआ है। जैसे ही चुनाव आता है हर जगह बहस होती है कि बिहार के चुनाव तो जाति से तय होते हैं। यह मेरी नजर में बहुत बड़ा मिथक और बिहार के लोगों का अपमान है कि वे जाति से ऊपर सोच ही नहीं पाते।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों ने मिलकर यह साबित किया कि आप जाति से ऊपर उठकर वर्ग की बात कीजिए। वर्ग की बात करते ही जाति की जकड़न ढीली पड़ जाती है। फिर लोग जाति की बात नहीं करते। बिहार में महिलाओं को उद्योग के लिए सरकारी योजना के तहत जो ₹10,000 मिले,यह उनकी जाति देखकर और उनका मजहब देखकर नहीं दिया गया है। इसी तरह केंद्रीय योजनाओं चाहे वह उज्जवला गैस की योजना हो, शौचालय की योजना हो, प्रधानमंत्री आवास की योजना हो, आयुष्मान भारत की योजना हो, जनधन योजना हो, उसका लाभ भी जाति देखकर नहीं दिया गया। खाते खोलने में किसी बैंक में किसी मैनेजर या किसी कर्मचारी ने खाता खुलवाने वाले से यह नहीं पूछा कि कि तुम्हारी जाति क्या है पहले यह बताओ तब तय करेंगे कि तुम्हारा खाता खुलेगा कि नहीं।

मैं मानता हूं कि यह एक सामाजिक क्रांति है, जो सतह पर चुपचाप हो रही है। यह इसलिए हो पा रही है कि इसमें व्यवधान पैदा करने वालों की अभी तक एंट्री नहीं हुई है। और उससे बड़ी बात है कि उनको मौका नहीं मिला है। इन योजनाओं में ऐसी कोई कमी नहीं छोड़ी गई है जिससे आरोप लगाया जा सके कि आप इस जाति के लोगों के साथ या इस मजहब के लोगों के साथ पक्षपात कर रहे हैं। जब कोई भी सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्था पारदर्शी और भेदभाव रहित होती है तो उसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। तो ये जो दो वर्ग प्रधानमंत्री ने बनाए हैं, इसको साबित और स्थापित करने के लिए उन्होंने बिहार को चुना और इसमें उन्हें नीतीश कुमार जैसा साथी भी मिल गया। अब बहुत से लोग कह सकते हैं कि नीतीश कुमार या आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू भाजपा का समर्थन सत्ता के लिए कर रहे हैं, लेकिन मेरा मानना है कि यह स्थिति का सरलीकरण है और इन दोनों नेताओं के विवेक का अपमान है। सत्ता तो इनको दूसरे खेमे में भी मिल सकती थी बल्कि ज्यादा बारगेनिंग कर सकते थे, लेकिन उन्होंने वह रास्ता नहीं चुना। उन्होंने देखा कि मोदी जिस रास्ते पर देश को ले जा रहे हैं वह एक नए समाज के निर्माण का रास्ता है। राष्ट्र के विकास का रास्ता है। सत्ता इधर भी है, सत्ता उधर भी है, लेकिन इधर कई पीढ़ियों के बारे में सोचा जा रहा है। उधर सिर्फ आज के लिए और अभी के लिए सोचा जा रहा है। तो जब आप कोई अच्छा काम करने चलते हैं और उसमें अच्छे लोगों का साथ मिलता है तो उस काम की प्रक्रिया तेज हो जाती है। वही हो रहा है। बिहार का यह जनादेश इसी बात का संकेत है।

हमें बिहार या दूसरे प्रदेश के लोगों का इस तरह से अपमान करना बंद देना चाहिए कि वे जाति से ऊपर कभी उठ ही नहीं सकते। वे देश हित के बारे में नहीं सोच सकते। जैसा बिहार के जनादेश ने दिखाया है, उसे इससे आप पहले भी अलग-अलग राज्यों में देख चुके हैं। उत्तर प्रदेश के बारे में भी धारणा कमोबेश यही थी। 2014 से जो शुरुआत हुई वह 2017 में मेरा मानना है कि अपने शिखर पर पहुंची और उस शिखर पर बनी हुई है। 2024 में जरूर उसको एक झटका लगा लेकिन ऐसे लंबे सफर में बीच-बीच में व्यवधान आते ही रहते हैं और आते ही रहेंगे। आपको उनसे लड़कर आगे बढ़ना ही पड़ेगा। तो बिहार का जनादेश है केवल एक राज्य में सरकार बनाने या किसी को सत्ता में लाने का जनादेश नहीं है। यह देश के समाज की संरचना को बदलने की दिशा में उठाए गए कदम की ओर आगे बढ़ने का जनादेश है। देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए उठाए जा रहे कदमों का समर्थन है। ये जो इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं ने एनडीए को वोट दिया है वह इसलिए कि वे 20 साल से देख रही हैं कि यह सरकार क्या कर रही है। बिहार में जब-जब भाजपा और जनता दल यूनाइटेड साथ आते हैं तो महिलाओं के समर्थन का प्रतिशत बढ़ जाता है। इसका सीधा  मतलब है कि उन्हें इन दोनों की नीयत पर भरोसा है। नेतृत्व पर भरोसा है।

विपक्षी दल की मति तो इस कदर भ्रष्ट हो गई है कि उनको जो सामने है, वह दिखाई ही नहीं दे रहा है या वे देखना नहीं चाहते हैं। देश एक बड़े परिवर्तन के रास्ते पर चल पड़ा है। इसके रास्ते में जो भी आएगा वह ध्वस्त होता जाएगा। यह देश अब पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता। उसकी महत्वाकांक्षा दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। उसका जो वर्तमान है वह चाहता है कि उसका भविष्य उससे अच्छा हो। उसको समझ में आ रहा है कि इस दिशा में कौन काम कर रहा है, कौन सोच रहा है। जब यह महिला और युवा वर्ग बनकर समाज में सामने आते हैं तो एक नई ऊर्जा का उत्सर्जन करते हैं और यह नई ऊर्जा ही समाज को और देश को बदलती है। इस बदलाव का हमेशा सकारात्मक प्रभाव होता है। लेकिन यह समझने के लिए भी आपको एक सामान्य समझ की जरूरत होती है। अगर आप में उसका अभाव है तो आप यह परिवर्तन नहीं देख पाएंगे। तब आप छिद्रान्वेषण पर आ जाएंगे कि इसमें यह कमी है। यही विपक्ष कर रहा है।

बीते लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सीटें कम हो गई थीं। वह 303 से 240 पर आ गई लेकिन भाजपा के किसी एक नेता ने नहीं कहा कि इस चुनाव में बेईमानी या धांधली हुई। लेकिन उसके बाद जो राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए हैं, उसमें हारने वाले विपक्षी दलों ने क्या कहना शुरू कर दिया। जो लोग अपनी हार को स्वीकार नहीं करना चाहते, जो अपनी अक्षमता को ढकना चाहते हैं, वे ही इस तरह की बात करते हैं। बिहार के जनादेश ने साबित किया है कि असंभव कुछ भी नहीं है। बड़े से बड़ा परिवर्तन आप कर सकते हैं अगर आपकी नीयत ठीक हो और आपका लक्ष्य सही हो। बिहार चुनाव के नतीजे को केवल एक गठबंधन के जीतने या दूसरे के हारने की दृष्टि से मत देखिए। वो बहुत तात्कालिक बात है। आप यह देखिए कि लोगों की सोच क्या है? लोग राजनीतिक दलों और सरकारों से अपेक्षा क्या करते हैं, तो आपको पता चलेगा कि लोगों की जो अपेक्षा है वह पूरी तरह से रचनात्मक है। इस जनादेश ने एक बड़े सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की नींव रखी है। अब आगे इस नींव पर बड़ी अट्टालिका खड़ी करने की जरूरत है और वह तभी हो पाएगा जब ऐसा दूसरे राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर भी होगा और मुझे लगता है कि ऐसा होगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)