गीता प्रेस के आधार स्तम्भ स्वामी रामसुखदास
डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
वैसे तो साधू-संत कोई वसीयत लिखते नहीं, परन्तु स्वामी रामसुखदासजी (1904-2005) ने अपनी वसीयत लिखी। उसको गीता प्रेस ने प्रकाशित किया और आज वह दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली वसीयत हो गई है। इसकी अब तक हिन्दी में साढ़े सात लाख से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी हैं। इसका बंगला में भी अनुवाद हो चुका है। हो सकता है कि भविष्य में अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद हो। गीता प्रेस की इस पुस्तक का शीर्षक है: ‘एक सन्त की वसीयत’।
सन् 2020 तक यह पुस्तक 37 बार पुनर्मुद्रित हो चुकी है और तब तक इसकी 7 लाख 45 हजार प्रतियां छपीं थीं। सन् 2022 तक यह पुस्तक 40 बार पुनर्मुद्रित हुई और इसकी 7 लाख 68 हजार प्रतियां प्रकाशित हुईं। कहने का मतलब यह है कि इस पुस्तक की मांग लगातार बनी हुई है। और यह सब तब है जब कि यह पुस्तक इंटरनेट में तमाम स्थानों पर फ्री में पढ़ी जा सकती है या डाउनलोड की जा सकती है।
यह बताने के पहले कि स्वामीजी ने अपनी वसीयत में क्या लिखा है, यह जान लेना जरूरी है कि स्वामी रामसुखदासजी थे कौन?
गीता प्रेस के तीन प्रमुख आधार स्तम्भ
सन् 1923 में स्थापित गीता प्रेस गोरखपुर के तीन प्रमुख आधार स्तम्भ रहे। गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयाल गोयन्दकाजी (1885-1965), श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी (1892-1971) और स्वामी रामसुखदासजी (1904-2005)। इस संस्था के अब एक सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। गीता प्रेस इन्हीं महापुरुषों के त्याग और तपस्या का फल है। इनके अतिरिक्त भी गीता प्रेस के लिए अनेक ज्ञात और अज्ञात लोगों ने त्याग और तपस्या की है।
स्वामी रामसुखदास जी ‘कल्याण’ के तीसरे सम्पादक थे
गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित हिन्दी मासिक ‘कल्याण’ के पहले सम्पादक थे – श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी। वह भाई जी के नाम से जाने जाते थे। वह अगस्त 1926 से 1971 तक अपने ब्रह्मलीन होने तक इस पत्रिका के सम्पादक रहे। इसके बाद मार्च 1971 से जून 1974 तक श्री चिम्मनलाल गोस्वामी जी ‘कल्याण’ के सम्पादक रहे। गोस्वामी जी का शरीर शांत होने के बाद स्वामी रामसुखदास जी ‘कल्याण’ के तीसरे सम्पादक हुए। वह जून 1974 से जुलाई 1976 तक ‘कल्याण’ के सम्पादक रहे हैं। इसके बाद ‘कल्याण’ के चौथे सम्पादक हुए श्री राधेश्याम खेमकाजी (1935-1921)। उन्होंने अपनी अन्तिम सांस तक अर्थात लगभग 38 वर्षों से ‘कल्याण’ के सम्पादक का दायित्व निभाया। वर्तमान में ‘कल्याण’ के पांचवे सम्पादक हैं- श्री प्रेमप्रकाश लक्कड़।
स्वामी जी की फोटो खींचना निषेध था
स्वामी रामसुखदास जी के कुछ फोटो इंटरनेट पर इधर-उधर उपलब्ध हैं। परन्तु वास्तव में वे फोटो उनके नहीं हैं। स्वामी रामसुखदास जी फोटो नहीं खिंचवाते थे। उनका एक छायाचित्र उनकी अनुपस्थिति एक व्यक्ति ने बनाया था। वह जब इस लेख के लेखक को उपलब्ध हुआ, तो उसे उन लोगों को भेजा गया जिन्होंने स्वामी रामसुखदास जी को उनके जीवन काल में वास्तव में देखा था। उन लोगों ने इस बात की पुष्टि की कि वह छाया चित्र स्वामी रामसुखदास जी का ही है।
इस लेख के लेखक ने स्वयं कभी स्वामी रामसुखदास जी को नहीं देखा था। इस कारण उस छायाचित्र की पुष्टि कराना आवश्यक था।
वह छायाचित्र पाठकों की जानकारी के लिए इस लेख के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है।
‘एक सन्त की वसीयत’ का प्रकाशन
स्वामीजी हाराज त्याग और वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे। साधकों के कल्याण और अनुसरण के लिए ‘एक सन्त की वसीयत’ पुस्तक गीता प्रेस, गोरखपुर, ने प्रकाशित की है। इसका शीर्षक है: ‘एक सन्त की वसीयत’। यह वसीयत साधकों के लिए आदर्श है।
अपनी वसीयत में स्वामी रामसुखदास जी ने बहुत कम स्थानों पर ‘मैं’ या ‘मैंने’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। इन शब्दों के स्थान पर उन्होंने ‘यह शरीर’ या ‘इस शरीर’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।
वसीयत में उन्होंने क्या लिखा
अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा है:
जिस प्रकार इस शरीर की जीवित-अवस्था में मैं चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध करता आया हूं, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिए। इस शरीर की जीवित-अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अन्तिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूं।
इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर) से सम्बन्धित घटनाओं की जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किए जाने चाहिए।
अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊं जूते आदि) को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिए तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमंडलु आदि) को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिल्कुल नहीं रखना चाहिए …।
इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक सभा आदि नहीं करनी चाहिए …।
वसीयत पर स्वामी जी के हस्ताक्षर हैं
स्वामी जी महाराज की आज्ञा से और उनकी वसीयत को देहरादून के श्री राजेंद्र कुमार धवन ने लिखा था। उस पर साक्षी गणों के हस्ताक्षर भी हैं और स्वामी जी महाराज ने उस वसीयत के प्रत्येक पृष्ठ पर स्वयं भी हस्ताक्षर किए थे। श्री धवनजी भी के लेखक रहे हैं।
हस्तलिखित वसीयत की प्रति कहां है?
इस हस्तलिखित वसीयत की एक प्रति आनन्दाश्रम, रानी बाजार, बीकानेर, राजस्थान में संरक्षित है। मूल वसीयत की फोटोकापी इस लेख के लेखक के पास है।
मेरी स्मृति में कोई संस्था या बिल्डिंग न बनाई जाए
अपनी वसीयत में स्वामी जी महाराज ने लिखा:
मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गोशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएं नहीं बननी चाहिए। अपने जीवन काल में भी मैंने अपने लिए कहीं भी किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं दी है।
इस शरीर के शान्त होने के बाद … बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का निषेध समझना चाहिए।
जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहां स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनाना चाहिए, यहां तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूं। अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसा उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसा ही उपेक्षित रहना चाहिए। अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गंगाजी में प्रवाहित कर देना चाहिए।
भगवान श्री रामजी की ही जीवनी सर्वश्रेष्ठ है
अपनी वसीयत में स्वामी जी महाराज ने लिखा:
वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो सांगोपांग हो अर्थात जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण, दुर्गुण, सदाचार, दुराचार, आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो। आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छिपाकर गुणों का ही मिथ्यारूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह सांगोपांग तथा पूर्णरूप से सत्य होती नहीं है। वास्तव में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है। अत: उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिए और उसी के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए। जिसको हम महात्मा मानते हैं, उनका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अत: उन उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिए।
मेरे विचार
‘एक सन्त की वसीयत’ पुस्तक के पृष्ठ संख्या 12-13 पर ‘मेरे विचार’ शीर्षक से स्वामी सुखदासजी के कुछ विचार भी दिए गए हैं जो कि इस प्रकार हैं:
मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नाम से इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करने से यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय।
श्रीजयदयाल गोयन्दकाजी थे भगवत्प्राप्त महापुरुष
मेरे दीक्षा गुरु का शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० 1987 में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक तत्त्व प्राप्ति के सिवाय कुछ नहीं करना है । किसी से कुछ माँगना नहीं है । रुपयों को अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जाएगा । इसके बाद मैं गीता प्रेस के संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका के सम्पर्क में आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।
व्यक्तिपूजा का कड़ा निषेध
मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। यदि किसी हेतु से सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिए नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयाई रहा हूँ, व्यक्ति का नहीं ।
मेरा सदा से यह विचार रहा है कि लोग मुझ में अथवा किसी व्यक्ति विशेष में न लगकर भगवान में ही लगें। व्यक्ति पूजा का मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।
मेरा कोई आश्रम नहीं : मेरा कोई शिष्य नहीं
मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसी को अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें और रिकार्ड की हुई वाणी ही साधकों का मार्ग-दर्शन करेंगी । गीता प्रेस की पुस्तकों का प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संग का मैं सदैव समर्थक रहा हूँ।
भिक्षा से ही शरीर-निर्वाह करता हूँ
मैं प्रसाद या भेंट रूप से किसी को माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षा से ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।
सत्संग-कार्यक्रम के लिए चन्दा इकट्ठा करने का विरोध
सत्संग-कार्यक्रम के लिए रुपये चन्दा इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ।
मैं किसी को भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता हूं
मैं किसी को भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।
मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्त्व देता हूँ ।
रुपये और स्त्री — इन दो के स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।
जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदि के प्रचारके लिए प्रकाशित की जानेवाली सामग्री कैलेण्डर आदि में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेस की पुस्तकों के प्रचारके सन्दर्भ में यह नियम लागू नहीं है ।
मैंने सत्संग प्रवचन में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें ।
भक्तियोग सर्वश्रेष्ठ
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग – तीनोंमें मैं भक्तियोग को सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेम की प्राप्ति में ही मानवजीवन की पूर्णता मानता हूँ।
जो वक्ता अपने को मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, … उसको ठग समझना चाहिए। जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है।
102 वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन
अपने जीवन के अंतिम सवा चार वर्षों के दौरान स्वामी जी महाराज गीता भवन, स्वर्गाश्रम, हरिद्वार में ही रहे। लगभग 102 वर्ष की आयु में 3 जुलाई 2005 को बृह्ममहूर्त प्रात: तीन बज कर चालीस मिनट पर उनका शरीर शान्त हो गया।
स्वामी रामसुखदासजी महाराज जैसे महापुरुषों के त्याग और तपस्या से ही मानव कल्याण के लिए सनातन धर्म का गीता प्रेस जैसा उत्कृष्ट संस्थान बन पाया है। अपने एक प्रवचन में उन्होंने कहा, “गीता प्रेस जैसी संस्था में यदि झाड़ू देने का काम भी किसी को मिल जाय, तो भी उसका भाग्य कितना बड़ा है।“ पुस्तक: गीता के परम प्रचारक द्वितीय संस्करण; प्रकाशक: श्री विश्वशान्ति आश्रम, झूसी, प्रयागराज; पृष्ठ 130)
अपने जीवन काल में स्वामी जी ने अनेक पुस्तकें लिखीं: श्रीमद्भागवद्गीता साधक संजीवनी, गीता-दर्पण, गीता माधुर्य, आदि। उनके प्रवचन भी प्रकाशित हुए हैं। उनकी पुस्तकें गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित हैं। उनकी अनेक पुस्तकों का अनुवाद अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में हो चुका है। स्वामी जी महाराज के प्रवचन उन्हीं की आवाज में गीता सेवा ट्रस्ट के ऐप https://gitaseva.org/app पर भी नि:शुल्क सुने जा सकते हैं। ‘एक सन्त की वसीयत’ पुस्तक भी इस ऐप पर फ्री में पढ़ी जा सकती है।
कम से कम समय में तथा सुगम से सुगम उपाय से मनुष्य मात्र का कल्याण कैसे हो, यही उनका एकमात्र लक्ष्य था और इसीमें उनका जीवन समर्पित था। इस विषय में उन्होंने अनेक नये-नये विलक्षण उपायोंकी खोज की। आध्यात्मिक मार्ग के गूढ़, जटिल तथा ऊँचे से ऊँचे विषयोंका उन्होंने जन-साधारण के सामने बड़ी ही सरल रीति से विवेचन किया, जिससे साधरण व कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी उसे सुगमता से समझ सके और अपने जीवन में उतार सके।
उनका कहना था कि मनुष्य जिस वर्ण, आश्रम, धर्म, सम्प्रदाय, वेश-भूषा देश आदि में है। वहीं रहते हुए वह अपना कल्याण कर सकता है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)