जोरावर सिंह ने फेंका था वायसराय हार्डिंग पर बम

रमेश शर्मा।
धरती के कुछ विशिष्ठ क्षेत्रों  का अपना गुणधर्म होता है। राजस्थान की माटी ऐसी ही है जिसके कण कण में बलिदान कई अमर गाथाएँ छिपी हैं। परिवार के किसी एक नहीं पूरे कुटुम्ब के बलिदान की कहानियाँ हैं राजस्थान में। ऐसे ही बलिदानी वीर हुए क्राँतिकारी केशरी सिंह बारहाट। उनके भाई जोरावर सिंह वारहाट और पुत्र प्रताप सिंह बारहाट और पुत्री भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।

देश के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले क्राँतिकारी जोरावर सिंह बारहठ (12 सितंबर 1883 – 17 अक्टूबर 1939) का जन्म उदयपुर रियासत के गांव देवखेड़ा में हुआ। यह गांव भीलवाड़ा की शाहपुरा तहसील के अंतर्गत आता है। उनके पिता कृष्ण सिंह बारहठ इतिहासकार एवं साहित्यकार थे। वे अपनी रचनाओं से राष्ट्रभक्ति और परंपराओ की श्रेष्ठता का जोश जगाया करते थे। जोरावर सिंह की प्रारंभिक शिक्षा उदयपुर में हुई और उच्च शिक्षा के लिये जोधपुर गये। परिवार संपन्न और प्रतिष्ठित था। उसकी गणना राजस्थान के पुराने राजपरिवारों में होती थी। उनका विवाह भी राजसी परिवार में हुआ था। लेकिन वे परिवार में न डूबे।

यह राजस्थान की मिट्टी की विशेषता है कि उन्होंने व्यक्तिगत हितों और परिवार से ऊपर राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा को महत्व दिया। जोरावरसिंह परिवार का राजसी वैभव और गृहस्थी का आकर्षण छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गये। नवविवाहिता पत्नी ने भी सहर्ष विदा किया। देश को दासत्व से मुक्ति के लिये जोरावरसिंह ने क्रांति पथ चुना। वे आर्य समाज से जुड़े हुए थे। उनके घर क्रान्तिकारियो का आना जाना था। इसलिये इस राह पर चलने में उन्हें कोई कठिनाई न हुई।

ठाकुर जोरावर सिंह बारहट – Charans.org (चारण समागम)

सहज ही वे क्रातिकारियों की टोली के विश्वस्त सहयोगी बन गये। तभी दिल्ली में  वायसराय हार्डिंग पर हमले की योजना बनी। इसके लिये 23 दिसंबर 1912 तिथि निर्धारित हुई। तय हुआ कि वायसराय हॉर्डिंग्स का जुलूस दिल्ली के चांदनी चौक से गुजरे तब बम से हमला किया जाय। यह योजना सुप्रसिद्ध क्रन्तिकारी रासबिहारी बोस ने बनाई थी और योजना को मूर्तरूप देने का दायित्व जोरावरसिंह बारहट और उनके बेटे प्रतापसिंह बारहट को सौंपा गया। वायसराय हाथी पर अपनी पत्नी के साथ बैठा था। उसके चारो ओर सुरक्षा का कड़ा प्रबंध था। आसपास अन्य समर्थक चल रहे थे।

चांदनी चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक भवन की छत पर भीड़ में जोरावर सिंह और प्रतापसिंह बुर्के में थे। जैसे ही जुलूस सामने से गुजरा, जोरावरसिंह ने हार्डिंग पर बम फेंका, लेकिन पास खड़ी महिला के हाथ से टकरा जाने से निशाना चूक गया और हार्डिंग बच गया। उसका एक सुरक्षा कर्मी इस हमले में मारा गया। यह हमला इतना अप्रत्याशित था जिसकी कल्पना ब्रिटिश गुप्तचरों तक को न थी। बम फटते ही अफरा तफरी मच गई। सुरक्षाकर्मी वायसराय की सुरक्षा में लग गये। उन्हें हाथी से उतारकर घेरे में ले लिया गया। इस अवसर का लाभ उठाकर जोरावर सिंह ,प्रतापसिंह वहां से सुरक्षित निकल गए।

इस घटना की प्रतिक्रिया दिल्ली से लंदन तक हुई। सुरक्षा कर्मियो का पूरा स्टाफ बदल दिया गया। संभावित क्रान्तिकारियो के घरों पर छापे पड़े। गिरफ्तारियाँ हुईं। लेकिन जोरावर सिंह तक किसी का हाथ न पहुँच सका। वे नाम बदलकर मध्य प्रदेश में साधु के वेश में रहने लगे। उन्होने अपना शेष जीवन साधु वेश में बिताया। वे पूरे मालवा क्षेत्र में अमरदास बैरागी के नाम से जाने गये। वे अधिकतर भ्रमण पर ही रहते थे। किन्तु फिर भी उनका अधिकांश जीवन उज्जैन में बाबा महाकाल की सेवा में बीता। अंत में 17 अक्टूबर 1939 को उन्होंने संसार से बिदा ली। वे बीच बीच में अपने घर भी गये पर साधु संत समूह के साथ अतिथि बनकर ही जाते और लौट आते। जिससे उन पर किसी को संदेह न होता था। उनका अंतिम संस्कार साधु रूप में ही हुआ। निधन का संदेश  उनके घर भी पहुंचा। आगे चलकर उनकी पुत्री भी स्वाधीनता सेनानी बनी। वह 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में जेल भी गई। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)