जिस तालिबान से बीस साल लड़ा उसी को सत्ता सौंप चलता बना अमेरिका।

प्रमोद जोशी।
अफगानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। राष्ट्रपति अशरफ ग़नी, उपराष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह और उनके सहयोगी देश छोड़कर चले गए हैं। फौरी तौर पर लगता है कि सरकार के भीतर उनके ही पुराने सहयोगियों ने उनसे सहयोग नहीं किया या वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए तालिबान से मिल गए हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वहाँ की अंतरिम व्यवस्था पर विचार-विमर्श चल ही रहा है। इसमें कुछ समय लगेगा। यह व्यवस्था इस बात की गारंटी नहीं कि देश में सब कुछ सामान्य हो जाएगा। उधर देशभर में अफरा-तफरी है। काबुल हवाई अड्डे पर भारी भीड़ जमा है। लोग भागना चाहते हैं, पर हवाई सेवाएं बंद हो गई हैं। भीड़ को काबू करने के लिए गोलियाँ चलानी पड़ीं, जिसमें पाँच लोगों की मौत की खबर है। तमाम लोग बेघरबार हो गए हैं। वे नहीं जानते कि उनके परिवार का क्या होगा।


तालिबान ने कहा- अमन लाएँगे

बीबीसी हिन्दी के अनुसार तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़े और फ़तह का एलान करने के एक दिन बाद एक नया वीडियो जारी किया है। इस वीडियो में तालिबान के उपनेता ने कहा है कि अब अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के लिए कुछ करने और उनकी ज़िंदगी बेहतर करने का समय आ गया है। तालिबान के लड़ाकों के साथ बैठे मुल्ला बरादर अखुंद ने इस वीडियो में कहा है- “अब आज़माइश का वक़्त आ गया है, हम सारे देश में अमन लाएँगे, हम लोगों की ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए जहाँ तक बन पड़ेगा प्रयास करेंगे।”

चेहरा बदलने की कोशिश

फिलहाल तालिबान अपने चेहरे को सौम्य और सहिष्णु बनाने का प्रयास कर रहे हैं, पर उनका यकीन नहीं किया जा सकता। इस सौम्यता के पीछे दो कारण हैं। एक, वे अपने कठोर व्यवहार की परिणति देख चुके हैं, जिसके कारण वे अलग-थलग पड़ गए थे। दूसरे वे अभी वैश्विक-मान्यता चाहते हैं। अपने पहले दौर में उन्हें केवल तीन देशों ने मान्यता दी थी। हालांकि अपने अंतर्विरोधों के भार से वे खुद ढह गए और अमेरिका ने उनपर हमला कर दिया।

डबल गेम तो नहीं खेल रहा तालिबान

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ऐसा नहीं भी हुआ होता, तब भी वह व्यवस्था ध्वस्त होती, क्योंकि मध्ययुगीन समझ के साथ कोई व्यवस्था आज नहीं चल सकती है। फिलहाल उन्हें वैश्विक-मान्यता दिलाने में अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, जिसके साथ उन्होंने सम्पर्क बनाकर रखा है। इसके अलावा वे चीन और रूस के सम्पर्क में भी हैं। हो सकता है वे डबल गेम खेल रहे हों। बहरहाल इंतजार कीजिए।

चारों तरफ असमंजस

इस पूरे प्रकरण में अमेरिका की साख सबसे ज्यादा खराब हुई है। ऐसा लग रहा है कि बीस साल से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ने के बाद अमेरिका ने उसी तालिबान को सत्ता सौंप दी, जिसके विरुद्ध उसने लड़ाई लड़ी। ऐसा क्यों हुआ और भविष्य में क्या होगा, इसका विश्लेषण करने में कुछ समय लगेगा, पर इतना तय है कि पिछले बीस वर्ष में इस देश के आधुनिकीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह एक झटके में खत्म हो गई है। खासतौर से स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नई दृष्टि से सोचने वाले युवक-युवतियाँ असमंजस में हैं। तमाम स्त्रियाँ इस दौरान, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, पुलिस अधिकारी और प्रशासक बनी थीं, उनका भविष्य गहरे अंधेरे में चला गया है।

तीन महत्वपूर्ण पहलू

Taliban capture Kabul, marking final victory as Afghanistan collapses

फिलहाल इस मामले के तीन पहलुओं पर विचार करना होगा। एक, वहाँ की नई राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था किस प्रकार की होगी, सत्ता में तालिबान की भागीदारी किस प्रकार की होगी और उनका बर्ताव कैसा होगा और तीसरे भारत की भूमिका क्या होगी? इस परिवर्तन का काफी प्रभाव भारत की भूमिका पर पड़ेगा। इस घटनाक्रम में पाकिस्तान की भूमिका कितनी गहरी है, इससे भी भारत की भूमिका का निर्धारण होगा।

दुनिया से शांतिपूर्ण रिश्ते

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार तालिबान के प्रवक्ता मोहम्मद नईम ने कतर के मीडिया हाउस अल जज़ीरा से कहा कि हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ शांतिपूर्ण रिश्ते रखना चाहते हैं और उनके साथ किसी भी मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार है। तालिबान अलग-थलग हो कर नहीं रहना चाहता। उन्होंने यह भी कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में किस तरह की शासन व्यवस्था होगी इसके बारे में जल्द स्पष्ट हो जाएगा। उन्होंने कहा कि शरिया क़ानून के तहत महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तालिबान सम्मान करता है।

स्त्रियों की चिंता

तालिबानी की विजय की खबर आने के बाद मलाला युसुफज़ई ने ट्वीट किया, ‘अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण होने से हम स्तब्ध हैं। मुझे स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार-समर्थकों को लेकर चिंता है। वैश्विक, क्षेत्रीय और स्थानीय शक्तियों को चाहिए कि वे फौरन युद्धविराम कराएं, जरूरी मानवीय सहायता मुहैया कराएं और शरणार्थियों तथा नागरिकों की हिफाजत करें।’ मलाला युसुफज़ई कौन है? वही जिसे तहरीके तालिबान ने इसलिए गोली मारी थी, क्योंकि वह पढ़ना चाहती थी और लड़कियों की पढ़ाई की समर्थक थी।

तालिबान के अंतर्विरोध

तालिबान के अंतर्विरोध अब देखने को मिलेंगे। वे यदि पत्थरों और कोड़ों से सजा देने और स्त्रियों को घर में कैद करने वाली व्यवस्था को लागू करेंगे, तो उन अफगान नागरिकों को परेशानी होगी, जिन्होंने पिछले 20 साल में एक नई व्यवस्था को देखा है। खासतौर से 20 साल से कम उम्र के बच्चों को दिक्कत होगी। तालिबान प्रवक्ता दावे कर रहे हैं कि हम वैसे नहीं है। यदि वे आधुनिक बनने का प्रयास करेंगे, तो पूछा जा सकता है कि उन्होंने सत्ता में भागीदारी को अस्वीकार क्यों किया, चुनाव लड़कर सरकार बनाने को तैयार क्यों नहीं हुए? क्या वे आधुनिक शिक्षा की व्यवस्था करेंगे, क्या स्त्रियों को कामकाज का अधिकार देंगे?

कई मुस्लिम देशों में स्त्रियाँ आधुनिक

The Many Dangers of Being an Afghan Woman in Uniform - The New York Times

दुनिया के अनेक मुस्लिम देशों में स्त्रियाँ अपेक्षाकृत आधुनिक हैं। तुर्की, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान के अलावा पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया की लड़कियाँ भी मुसलमान हैं। यह भी सही है कि अमेरिका को अंततः हटना ही चाहिए, पर उसके लिए तालिबान की नहीं शांति का माहौल बनाने की जरूरत थी। अभी देखना होगा कि अंतरिम व्यवस्था कैसी बनेगी और सरकार कैसे चलेगी। तालिबान को दुनिया के साथ बनाकर रखना होगा और अपने नागरिकों की हिफाजत करनी होगी। अभी सबसे पहले उन लोगों को काबू में करने की चुनौती होगी, जिनके हाथों में बंदूक है। उन्हें अनुशासित करना आसान नहीं होगा।

अमेरिका को अपने हितों की फिक्र

अमेरिका ने तालिबान के साथ समझौता अपने हितों को देखते हुए किया है। डोनाल्ड ट्रंप ने इसकी शुरुआत की और जो बाइडेन प्रशासन ने इसे कार्य रूप में परिणत किया। मान लिया कि अमेरिका इस युद्ध के भार को लम्बे समय तक वहन नहीं कर सकता था, पर जिस तरीके से उन्होंने अपनी सेना यहाँ से हटाई है, वह भी अविश्वसनीय है। लगता नहीं कि उन्हें अफगान नागरिकों और आसपास के देशों के हितों की फिक्र है।

भारत पर प्रभाव

भारत पर इसका क्या असर होगा, इसपर हमें ठंडे मन से विचार करना होगा। खासतौर से सुरक्षा पर। यदि इस सरकार को वैश्विक मान्यता मिली, तो हमें भी उसके साथ रिश्ते रखने होंगे और अपने हितों की रक्षा के लिए तालिबान के साथ सम्पर्क स्थापित करना होगा। विदेश-नीति अंततः राष्ट्रीय हितों की रक्षा का नाम है। दूसरी तरफ तालिबान कुछ भी कहें, उनपर विश्वास नहीं किया जा सकता। हमारी समझ है कि वे पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की सलाह और निर्देशों पर चलते हैं। भविष्य में वे किस रास्ते पर जाएंगे, पता नहीं। लश्करे-तैयबा और जैशे-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन उनके साथ कदम मिलाकर चलते रहे हैं। ये आतंकवादी गिरोह हमारे कश्मीर में भी सक्रिय हैं। नब्बे के दशक में पाकिस्तान ने तालिबानी आतंकवादियों का इस्तेमाल कश्मीर में किया था। पाकिस्तान अपनी सुरक्षा को गहराई प्रदान करने के लिए और कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए तालिबान का इस्तेमाल करेगा।

आईएसआई, तालिबानी मुजाहिदीन और कश्मीर

Taliban enter Afghanistan capital Kabul

दिसम्बर 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान के अपहरण में तालिबान ने पाकिस्तान की मदद की थी। विमान का अपहरण करके पाकिस्तानी आतंकवादी उसे कंधार ले गए थे। वहाँ तालिबानी नेतृत्व ने दबाव डालकर पाकिस्तानी आतंकवादियों को रिहा कराया था, जिनमें मसूद अज़हर भी था, जो जैशे-मोहम्मद का प्रमुख है। 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद से पाकिस्तानी आईएसआई की कोशिश कश्मीर में उत्पात मचाने की है, पर वे इसमें सफल नहीं हो पा रहे हैं। अफगानिस्तान में सफल होने के बाद आईएसआई तालिबानी मुजाहिदीन का इस्तेमाल कश्मीर में करने का प्रयास करेगी।

तालिबान को लेकर संदेह

सैकड़ों-हजारों वर्षों से भारत पर पश्चिमी सीमा से हमले होते रहे हैं। हमें पश्चिम के अपने निकटतम पड़ोसी पाकिस्तान और अब अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर बारीकी से नजर रखनी होगी। इन्हीं तालिबानियों ने बामियान की बुद्ध-प्रतिमाओं को तोप के गोलों से उड़ा दिया था। वे भारत के शत्रु ही साबित होंगे। अफीम की खेती का कारोबार और तेजी से शुरू होगा, जो तालिबानी कमाई का एक जरिया है। संयुक्त राष्ट्र के एक मॉनिटरिंग ग्रुप की एक रिपोर्ट के अनुसार, जब तालिबान सत्ता में नहीं था, तब भी ग्रामीण इलाकों में अपने प्रभाव क्षेत्र में वह पॉपी (अफीम) की खेती करवाता था, जिसपर उगाही से उसे अकेले 2020 में 46 करोड़ डॉलर की आमदनी हुई थी। तालिबान को इसी किस्म की उगाही से काफी धनराशि मिलती है। इन सब बातों के अलावा तालिबान की सामाजिक समझ, आधुनिक शिक्षा और स्त्रियों के प्रति उनके दृष्टिकोण को लेकर भी संदेह हैं।

भारतीय निवेश

भारत ने पिछले 20 वर्ष में अफगानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर पर करीब तीन अरब डॉलर का पूँजी निवेश किया है। सड़कों, पुलों, बाँधों, रेल लाइनों, शिक्षा, चिकित्सा, खेती और विद्युत-उत्पादन की तमाम योजनाओं पर भारत ने काम किया है और काफी पर काम चल रहा था। सलमा बाँध और देश का संसद-भवन इस सहयोग की निशानी है। इन दिनों काबुल नदी पर शहतूत बाँध पर काम अभी हाल में शुरू हुआ था। फिलहाल इन सभी परियोजनाओं पर काम रुक गया है और हजारों इंजीनियरों तथा कर्मचारियों को वापस लाने का कम चल रहा है।

भारत की परियोजनाएं

भविष्य में क्या होगा, पता नहीं। काबुल में भारत के दूतावास के अलावा अफगानिस्तान के चार शहरों- जलालाबाद, मज़ारे शरीफ, हेरात और कंधार में भारत के वाणिज्य दूतावास हैं। फिलहाल चारों बंद हैं। पाकिस्तान इन कार्यालयों को ही नहीं, भारत की विकास-परियोजनाओं को अफगानिस्तान में बंद कराने का प्रयास करता रहा है। सीपैक की तरह इन परियोजनाओं से भारत को कोई आर्थिक लाभ मिलने वाला नहीं है। ये परियोजनाएं केवल मित्रता को प्रगाढ़ बनाने का काम करती हैं।

कारोबार के लिए रास्ते की जरूरत

भारत को मध्य एशिया से कारोबार के लिए रास्ते की जरूरत है। पाकिस्तान हमें रास्ता देगा नहीं। हमने ईरान के रास्ते अफगानिस्तान को जोड़ने की योजना बनाई थी। भारत ने ईरान में चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन का विकल्प तैयार किया। हमारे सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है।

भारत की भूमिका

भारत-ईरान और अफगानिस्तान ने 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था, जिसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक कॉरिडोर बनाने की बात थी। भारत ने अफगानिस्तान को इस रास्ते से गेहूँ भेजकर इसकी शुरुआत भी की थी। इस प्रोजेक्ट को उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर के साथ भी जोड़कर देखा जा रहा है, जिसमें रूस समेत मध्य एशिया के अनेक देश शामिल हैं। यह कॉरिडोर मध्य एशिया के रास्ते यूरोप से जुड़ने के लिए बनाने की योजना है। अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम के अलावा दो और तथ्य भारत की भूमिका को निर्धारित करेंगे। एक, भविष्य में ईरान के साथ हमारे रिश्तों की भूमिका और दूसरे इस क्षेत्र में चीन की पहलकदमी।

चीन की खामोशी

अभी तक चीन इस पूरे मामले को खामोशी के साथ देख रहा है। उसकी दिलचस्पी भी अफगानिस्तान में है, पर वह केवल इसलिए ताकि उसके शिनजियांग प्रांत के वीगुर उग्रवादियों को प्रश्रय न मिले। तालिबान ने हाल में चीन के साथ संवाद बढ़ाया है। उधर अमेरिका-ईरान और चीन-ईरान रिश्तों की भूमिका भी भारतीय हितों को प्रभावित करेगी। अमेरिका के साथ ईरान के खराब रिश्तों की कीमत भारत को चुकानी होती है। हमें देखना होगा कि संतुलन किस प्रकार बैठाया जाएगा।
(लेखक ‘डिफेंस मॉनिटर’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक हैं। आलेख ‘जिज्ञासा’ से)