स्वामी विवेकानंद के भाई क्रांति-योद्धा भूपेन्द्र नाथ दत्त।

सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी भूपेन्द्र नाथ दत्त का जन्म 4 सितम्बर,1880 को कलकत्ता में हुआ। उनकी प्रारंम्भिक शिक्षा ‘मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूशन’ नामक विद्यालय में हुई। वे छात्र जीवन में ही स्वत्व जागरण और अंग्रेजों के विरुद्ध वैचारिक वातावरण बनाने की गतिविधियों से जुड़ गये थे। 1902 में अनुशीलन समिति में सक्रिय हुए। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन की घोषणा की। इसके विरुद्ध पूरे बंगाल में बंग-भंग आन्दोलन आरंभ हुआ जो पूरे भारत में फैला। समाज जागरण के लिये उन्होंने 1907 में “युगान्तर” पत्रिका आरंभ की। बंगाली भाषा की यह पत्रिका एक प्रकार से क्रान्ति का उद्घोष थी। भूपेन्द्रनाथ जी ने इस पत्रिका’ में अपने लेखन के माध्यम से न केवल बंगाल विभाजन का विरोध किया अपितु अंग्रेजों द्वारा भारतीय नागरिकों के शोषण को भी प्रमुखता से उजागर किया। उन्होंने अपने एक आलेख में स्पष्ट लिखा कि “अंग्रेज इस तरह नहीं मानने वाले। उन्हे ईंट का जवाब ईंट से और लाठी का जवाब लाठी से देना होगा” ‘युगान्तर’ में अपने लेखों के कारण वे गिरफ्तार कर लिये गये। उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा चला और एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई।

Bhupendranath Datta - Wikipedia

1908 में रिहा हुए  जब वे कारागार से बाहर आये। इस समय तक अंग्रेजों का दमन-चक्र और तेज हो गया था और इसका सामना करने केलिये सशस्त्र क्रांति के लिये युवकों के संगठन भी सामने आ गये थे। दूसरी ओर अंग्रेजों ने विश्वासघाती भी तैयार कर लिये थे। ताकि क्राँतिकारियों का दमन किया जा सके। अंग्रेजों को जिस किसी पर संदेह होता उसे मुकदमे में फंसा दिया जाता। भूपेन्द्रनाथ पर भी ‘अलीपुर बम कांड’ में शामिल होने का दूसरा मुकदमा दर्ज हो गया। किन्तु वे बंदी बनाये जाने से पहले वेष और नाम बदलकर अमेरिका चले गये। अमेरिका जाकर वहाँ “इंडिया हाउस” में रहे और आगे की पढ़ाई आरंभ की। अमेरिका के ब्राउन विश्वविद्यालय से उन्होंने एम ए की डिग्री प्राप्त की। उन दिनों अमेरिका में कई भारतीय क्रान्तिकारी रहते थे जो भारत को अंग्रेजों से मुक्ति के लिये समर्थन जुटा रहे थे। उनमें लाला हरदयाल मुख्य थे। 1913 में गदर पार्टी की स्थापना हुई तो भूपेन्द्र नाथ जी इसके सदस्य बन गये।

1914 में प्रथम महायुद्ध आरम्भ हो गया। अमेरिका में रह रहे क्राँतिकारियों को लगा कि इस समय यदि दबाब बना तो भारत अंग्रेजों से मुक्त हो सकता है। क्राँतिकारियों का एक समूह अमेरिका से जर्मनी गया। इस दल में भूपेन्द्र नाथ भी थे। उन दिनों क्रान्तिकारियों ने बर्लिन में इंडियन इंडिपेंडेंस समिति नामक एक संस्था बनाई। 1916 में भूपेन्द्रनाथ इस इंडियन इंडिपेंडेंस समिति के सचिव बने। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि भारत की स्वतंत्रता के लिए जर्मनी में एक सेना का संगठन करना चाहिए और उस सेना को जर्मनों की सहायता से भारत पर आक्रमण करना चाहिए।

1914 में एक अन्य संस्था “जर्मन यूनियन फ्रेडरिक इंडिया” का गठन हुआ। भूपेन्द्र नाथ जी इस संस्था के भी सदस्य बने और 1920 जर्मन ऐंथ्रोपोलॉजिकल सोसाइटी से भी जुड़े।1923 में उन्होंने जर्मनी की हैम्बर्ग विश्वविद्यालय से उन्होंने नृविज्ञान में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 1924 में में वे जर्मन ऐशियाटिक सोसाइटी में सक्रिय हुए। 1925 में भारत लौटे और काँग्रेस से जुड़ गये। 1927 में काँग्रेस की बंगाल प्रांतीय और 1929 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की कार्यकारिणी के सदस्य बने। भूपेन्द्र नाथ जी 1936 में आरंभ हुए  किसान आंदोलन में सक्रिय रहे। वे 1937 में बंगाल कृषक सभा के अध्यक्ष बने। वे लगातार चार वर्षों तक इस पद पर रहे। इसके साथ दो बार अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहै। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हुए ।

1943 में भीषण अकाल पड़ा। भूपेन्द्र नाथ जी ने पीड़ितों की सहायता के लिये धन, अन्न एकत्र करने का अभियान चलाया और सामूहिक भोजनालय खोले। लोगों में आवश्यक सामग्री वितरण की। द्वितीय विश्व युद्ध के अंग्रेजों की भारत से विदाई का वातावरण बना लेकिन वे जाते जाते भारत विभाजन की नींव रख रहे थे। भूपेन्द्र नाथ जी भारत विभाजन के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि सभी भारतीयों को मिलकर रहना चाहिए। धार्मिक आस्था व्यक्तिगत है और राष्ट्रीय भाव सामूहिक। धर्म और आस्था से देश और समाज प्रभावित न हो। भारत विभाजन पर सहमति देने के लिये उन्होंने काँग्रेस की खुलकर आलोचना की और काँग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। आरंभिक समय उन्होने स्वयं को विभाजन से पीड़ितों की सेवा में लगाया और फिर जीवन की अंथिम श्वाँस तक समाज सेवा में ही समर्पित। और 26 दिसम्बर 1961 को कोलकाता में उन्होंने देह त्यागी।