apka akhbarअमीश त्रिपाठी ।

एक फ़ेलोशिप प्रोग्राम के सिलसिले में यूएस में काफ़ी समय रुकने के बाद वापस लौटा था। शुरू में ही मैं बता दूं कि अमेरिकी, कमोबेश, बहुत स्नेहशील और मिलनसार होते हैं। जिनसे मैं मिला, वे भी काफ़ी व्यावहारिक लोग थे। इसलिए जब एक चिंतित अमेरिकी ने मुझसे एक सवाल किया तो उसे सुनकर मुझे हैरानी हुईः “आप इसे ‘एक श्वेत व्यक्ति का दायित्व’ कह सकते हैं, लेकिन क्या आपने विचार किया है कि भारत में यूरोपीय औपनिवेशिक शासन के कुछ सकारात्मक परिणाम रहे हो सकते हैं, जैसे हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे को मिटाने से रोकना?”


 

मेरे चेहरे के उलझन भरे भावों को देखकर उस व्यक्ति ने पूछाः “लेकिन क्या आज़ादी के बाद भारत में धार्मिक नरसंहार बहुत आम नहीं हैं?”

अंग्रेज़ीभाषी मीडिया को विवादास्पद बातें पसंद

इसने मुझे सोच में डाल दिया। उसकी ऐसी धारणा क्योंकर बनी कि भारत सीरिया या इराक़ की तरह है? ध्यान से देखने पर, उसे इल्ज़ाम नहीं दिया जा सकता। वह भारत के बारे में पश्चिमी प्रेस की रिपार्ट पढ़ता है, जिन्हें बेपरवाह पश्चिमी पत्रकार लिखते हैं- बेपरवाह इसलिए कि उनमें से अधिकांश ने न तो कोई भारतीय भाषा सीखी है, न ही वे उस बुलबुले से बाहर जीते हैं जो भारत में अंग्रेज़ीदां कुलीन दायरे ने बना रखा है। वे अक्सर भारत को सांप्रदायिक पलीते की तरह दर्शाते हैं। ये पश्चिमी पत्रकार हमारे कुलीन अंग्रेज़ीभाषी मीडिया की मदद से अपनी राय बनाते हैं, जो एक ऐसी दुनिया है जिसमें धर्मनिरपेक्षों के साथ ही धार्मिक कट्टरपंथियों ने भी पारंपरिक तौर पर बेढंगेपन से मज़बूत जगह बना रखी हैः पहले वालों ने इसलिए कि वे इस ग्रुप के अंदरूनी लोग हैं और बाद वालों ने इसलिए कि हमारे अंग्रेज़ीभाषी मीडिया को विवादास्पद बातें पसंद आती है। इन धर्मनिरपेक्ष-कट्टरपंथी पत्रकारों में से अनेक भारत में ‘बड़े पैमाने पर’ धार्मिक हिंसा होने के बारे में सुलगते लेख लिखते हैं। ‘जेनोसाइड’, ‘हॉलोकॉस्ट’ और ‘पोग्रोम’ जैसे शब्दों का खुले हाथ से प्रयोग होता है। दूसरी ओर धार्मिक-कट्टरपंथी ऐतिहासिक या सांप्रदायिक ठेस (यह लक्षित समूह के धर्म पर निर्भर करता है) के भाव को भुनाते हैं और बेरहमी से बदला लेने की हुंकार भरते हैं। क्या डर के इन सौदागरों का कोई मुद्दा है?

आंकड़े क्या कहते हैं

कॉरपोरेट दुनिया की एक कहावत हैः ईश्वर में हमें विश्वास है! बाकी चीज़ों के लिए, मुझे आंकड़े दिखाएं।

Communal Violence: Locating the Role of State and Changing Nature of Violence | SabrangIndia

तो मैंने कुछ रिसर्च की। भारत में धार्मिक हिंसा के बारे में आंकड़े क्या कहते हैं? याद रखें, यह डेटा विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच आय की असमानता, या गरीबी की ओर ले जाने वाले धार्मिक भेदभाव के बारे में नहीं है। यह डेटा पिछले पचास साल में हुई धार्मिक हिंसा पर है।

सांप्रदायिक दंगे मानव त्रासदी हैं, हॉलोकॉस्ट नहीं

हां, हमारे यहां सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। वे मानव त्रासदी रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं है। इन त्रासदियों को रोकने के लिए, और जब वे होते हैं तो शीघ्रता से न्याय दिलवाने के लिए हमें अपने प्रशासनिक सिस्टम को चुस्त करना होगा। 1960 के दशक के मध्य से भारत में सांप्रदायिक हिंसा (वे घटनाएं जिनमें पांच से अधिक जानें गई हों) की लगभग साठ घटनाएं हुई हैं, जिनमें कुल 13,000 (स्रोतः आउटलुक पत्रिका) से अधिक जानें गई हैं। मैं फिर कहता हूं कि वे भयानक हादसे थे। किसी भी मायने में मैं धार्मिक हत्याओं के पीड़ितों की तकलीफ़ को कम नहीं आंकूंगा। लेकिन क्या उनमें से कोई हॉलोकॉस्ट था, जिसमें हज़ारों, बल्कि लाखों लोग मारे गए हों? नहीं। हॉलोकॉस्ट वह है जो हिटलर ने जर्मनी में किया था (1940 के दशक में साठ लाख मौतें), जो चर्चिल ने जानबूझकर आज़ादी से पहले के पूर्वी भारत में करवाया था (1940 के दशक में पंद्रह से चालीस लाख मौतें), भारत-विभाजन के दंगे (दस लाख मौतें), या पूर्वी पाकिस्तान, जिसे आज हम बांग्लादेश के नाम से जानते हैं, में पाकिस्तान के ज़ुल्म (1970 के दशक में दस से तीस लाख मौतें)। यह उसका सटीक ब्योरा है जो हाल-फ़िलहाल सीरिया में हो रहा है (160,000 से 400,000 मौतें, और अभी भी जारी)। अरे, जब कोलंबस ने उत्तरी अमेरिका में क़दम रखा था तब वहां के देसी अमेरीकियों की आबादी लगभग एक करोड़ थी। जेनोसाइड के खत्म होने तक वह घटकर दस लाख से भी कम रह गई।

एक बार फिर, भारत में होने वाली सांप्रदायिक हिंसा के शिकारों के दुख-तकलीफ़ को कमतर किए बिना, हमें अपने द्वारा प्रयोग किए जाने वाले शब्दों को लेकर सावधान रहना होगा। यह मानते हुए कि यह असंबद्ध मुद्दा है, यूएस सीडीसी के अनुसार, केवल 2010 में, यूनाइटेड स्टेट्स में बंदूक़ों से जुड़ी मृत्यु संख्या 30,000 से ज़्यादा थी। यूएस में उस एक साल में बंदूक़ से होने वाली मृत्युओं की संख्या भारत में पिछले पचास साल में हुई धार्मिक हिंसाओं की कुल मृत्यु संख्या से दोगुनी से ज़्यादा है।

भारतीय महिलाएं सुनियोजित उत्पीड़न

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मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भारत में सब कुछ ठीक है। मुझे अपने देश पर गर्व है, लेकिन गर्व को अपनी समस्याओं के प्रति हमें अंधा नहीं बनाना चाहिए। आजकल भारत में विवेकहीन हत्याएं हो रही हैं। लेकिन इसकी वजह सांप्रदायिक तनाव नहीं है। भारत में हर साल पांच लाख कन्या भ्रूण नाजायज़ तरीक़े से गिरा दिए जाते हैं, यानी पांच लाख लड़कियों की हर साल गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। यह हर साल सांप्रदायिक हिंसा में होने वाली मृत्यु दर से 185,000 अधिक है। एक बड़ी संख्या में लड़कियां सुनियोजित कुपोषण के कारण मर रही हैं जिसका उन्हें शिकार बनाया जाता है। यहां तक कि जब वे बड़ी हो जाती हैं, तो भारतीय महिलाएं सुनियोजित उत्पीड़न और हिंसा झेलती हैं। और केवल सरकार ही नहीं, बल्कि हमारा सारा समाज उनका दमन करता है। अगर हम भारतीय ज़िंदगियों को बचाना चाहते हैं, अगर हम किसी हॉलोकॉस्ट और घोर अन्याय को रोकना चाहते हैं तो हमें इस दिशा में ध्यान देना चाहिए। सभी धार्मिक/ भाषायी/ जातीय/ सामाजिक खंडों में भारत में अब तक का सबसे ज़्यादा दमित समूह औरतें हैं।

‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘धार्मिक’ चरमपंथियों का हित

ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म को लेकर भय पैदा करना हमारे ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘धार्मिक’ चरमपंथियों का हित साधता है। मैं मानता हूं कि धार्मिक संघर्ष एक समस्या है! मैं जोड़ना चाहूंगा, यह एक वैश्विक समस्या है जिससे सारी मानवजाति जूझ रही है। लेकिन मुझे वाक़ई नहीं लगता कि भारत धार्मिक हिंसा की दलदल में धंस जाएगा। भले ही हमारे कुछ समुदाय एक-दूसरे के साथ पूरे तालमेल के साथ न रह पाते हों, फिर भी हमने, कमोबेश, व्यापक हिंसा में लिप्त हुए बिना साथ जीना सीख लिया है।

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उन सभी भयानक शब्दों के बावजूद जो भारत में धार्मिक लोगों का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, भारतीयों का एक विशाल बहुमत आप और मेरे जैसे लोग हैं: बेहद धार्मिक, घोर उदारवादी और अपने धर्म के लिए मरने या मारने के लिए अनिच्छुक। आंकड़े इसका स्पष्ट सुबूत हैं। दुख की बात है कि बात जब हमारी लड़कियों और स्त्रियों की आती है तो हम इतने अ-हिंसक नहीं होते। अगर हम वाक़ई भारत की अवधारणा को प्यार करते हैं तो अपने उदारवाद पर बल देने के लिए धर्म पर हमला करने की बजाय हमें स्त्रियों के दमन के मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए।

कभी-कभी, आंकड़ों को बोलने देना, और शानदार जुमलों को सुर्ख़ियां बटोरने देने से बचना ही बेहतर होता है। आप नहीं जानते कि उन जुमलों के पीछे क्या एजेंडा छिपा है।

(लेखक प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। स्रोत : ‘अमर भारत : युवा देश, कालातीत सभ्यता’, प्रकाशक- वैस्टलैंड पब्लिकेशंस लि.)


संस्कृति की धरोहर को आगे बढ़ाती है मातृभाषा