आशुतोष मिश्र ।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने प्रशांत आर्थिक साझेदारी, टीपीपी को समाप्त करके बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भ्रष्टतंत्र पर प्रबल प्रहार किया है। यह भूमंडलीकरण के ध्वस्तीकरण के आक्रामक अभियान का आरंभ है।


 

अमेरिका की अकेली इसी कार्यवाही से वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा बिखर जाएगा। इसके बाद इसी तरह के अमेरिकी-यूरोपीय,  उत्तर अमेरिकी और कनाडा-यूरोपीय आर्थिक समझौतों वाले टीटिप,  नाफ्टा और सीएट का विखंडन हो सकता है। ट्रंप इन आर्थिक समझौतों के साथ इसी तरह के नाटो  जैसे सैनिक गठबंधनों पर हमला करते रहे हैं इसलिए इनके भी बुरे दिन आ सकते हैं। यह अमेरिकी राजनीति के खोखलेपन की मिसाल है कि एक तरफ ट्रंप ऐसे गठबंधनों को तोड़ने की घोषणा कर रहे हैं और दूसरी ओर ऐसे ही आर्थिक संगठनों के कार्यक्रमों  में सम्मिलित होते  रहे हैं।

अमेरिका की भयंकर बेरोजगारी

Unemployment benefits: Another 6.6 million Americans filed for initial unemployment benefits last week - CNN

यह हो सकता है कि इस तरह के नीरस आर्थिक समाचारों में आपको दिलचस्पी न हो लेकिन वास्तव में अमेरिकी राजनीति की वर्तमान उथल-पुथल और ट्रंप की विचित्र विजय के पीछे यही कारण अहम था। अमेरिका की भयंकर बेरोजगारी की जड़ यही है। इस आर्थिक मामले का इतना राजनैतिक महत्व है कि इस समझौते को ‘गोल्ड स्टैंडर्ड’ कहकर महिमामंडित करने वाली हिलेरी क्लिंटन ने आखिरकार चुनाव में स्वयं भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस समझौते से बहुराष्ट्रीय कंपनियों-बैंकरों ने अपनी मुनाफाखोरी को सुनिश्चित कर लिया है। ऐसे ही समझौतों ने अमेरिकी उद्योगों, विशेषतः मैनुफैक्चरिंग को नष्ट किया है। इन कंपनियों ने इन समझौतों से यह भी पक्का कर लिया है कि वे अमेरिका को क्या, किसी भी देश को कोई टैक्स नहीं देंगे और किसी विवाद की स्थिति में अपने मनपसंद अंतर्राष्ट्रीय  पंचाट से अपने पक्ष में फैसला करवा लेंगे। ये कंपनियां टैक्स चोरी के लिए इन्वर्ज़न टैक्स, रेजीडेंसी टैक्स आर्बिट्राज और ट्रांसफर प्राइसिंग जैसे तरीकों का प्रयोग करते हैं। इन्होंने समझ लिया है कि एक लाख करोड़ डाॅलर टैक्स देने से अच्छा है कि एक हजार करोड़ डाॅलर घूस देकर मामला निपटा लिया जाए।

 इन आर्थिक समझौतों से अमेरिका को विशेष समस्या इसलिए है क्योंकि बत्तीस करोड़ से भी अधिक आबादी वाला बड़ा देश है। छोटे देश मुक्त व्यापार, टैक्स हेवन और पर्यटन, जुआखोरी, वेश्यावृत्ति से भी अपनी अर्थव्यवस्था चला सकते हैं लेकिन अमेरिका जैसे विशाल देश में रोजगार के लिए मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र ही सबसे सटीक साधन हो सकता है। मैनुफैक्चरिंग का महत्व इसलिए भी है क्योंकि अमेरिका में उपभोग का मानदंड बहुत ऊंचा है। इस तरह कम से कम अमेरिका के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह किसी सामग्री का उत्पादन न करे लेकिन वह हर सामग्री का अनियंत्रित उपभोग करता रहे। यह भी सम्भव नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां अमेरिकी सरकार की सारी सैनिक राजनयिक शक्ति का दुरुपयोग करके पूरी दुनिया के देशों पर अपनी दबंगई बनाए रखें लेकिन वे स्वयं अमेरिकी सरकार को कोई टैक्स न दें। इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि अगर आम अमेरिकियों को भयंकर बेरोजगारी का सामना न करना पड़ता तो जनता इस लूट-खसोट का राजनैतिक विरोध नहीं करती।

अत्यधिक अहम है आर्थिक आयाम

अमेरिकी पूजीवाद की इस विनाशकारी भूमिका पर डोनाल्ड ट्रंप के मुख्य रणनीतिकार, स्टीव बेनन ने बहुत सटीक टिप्पणी की  है। उनका मानना है कि पूंजीवाद नागरिकों की उद्यमिता की प्रवृत्ति से पैदा हुआ था और उसमें धार्मिकता या नैतिकता की हल्की छौंक भी थी। फिर इस पूंजीवाद पर क्रोनी कारपोरेट का कब्जा हो गया। पहले विकसित विश्व तीसरी दुनिया के दास देशों से कच्चा माल लूटता था और फिर उत्पादित सामान को उसी तीसरी दुनिया में मनमाने मुनाफे से बेचता था। विकसित विश्व की बड़ी फैक्ट्रियों में इतना रोजगार था कि वे तीसरी दुनिया से भी श्रमिक बुलाते थे। (जर्मनी के उद्योगपति स्टेशनों पर तुर्क श्रमिकों का बैंड बाजे  के साथ स्वागत करते थे)।

आभासी अमीरी

 लगभग चालीस साल पहले इस परिदृश्य में परिवर्तन हुआ। अमेरिकी श्रमिक महंगे हो गए इसलिए अमेरिकी सामान भी महंगा हो गए। पूंजीपतियों ने भूमंडलीकरण का नारा देकर अमेरिकी उत्पादन-तंत्र को नष्ट कर दिया। एक अमेरिकी काॅमेडियन की टिप्पणी है- हम कोई चीज पैदा नहीं करते, हम केवल डाॅलर पैदा करते हैं। फिर इस डाॅलर को डेरीवेटिव सट्टेबाजी में पतला करते-करते सौ डाॅलर बना दिया जाता है। पूरी अर्थव्यवस्था आभासी अमीरी से आप्लावित हो जाती है लेकिन बेरोजगारी की मार से बेहाल व्यक्तियों का पेट इस वर्चुअल रियल्टी से नहीं भरा जा सकता। इसका राजनैतिक निहितार्थ पिछले चुनाव में दिखायी दिया। अमेरिका के सम्पन्न पूर्वी ओर पश्चिमी तटीय क्षेत्रों- न्यूयार्क, केलिफोर्निया और वाशिंगटन में हिलेरी की जीत हुयी। यह क्षेत्र फील गुड वाला शाइनिंग अमेरिका है। दूसरी ओर परिवर्तनवादी प्लेटफार्म वाले ट्रंप को विस्कांसिन, ओहायो, मिशिगन और पेनसिल्वेनिया वाले उस क्षेत्र में जीत मिली, जहां का पूरा उत्पादन तंत्र नष्ट हो चुका है। इसीलिए इस क्षेत्र को रस्ट बेल्ट कहा जाता है। इससे पहले हुए चुनावों में इन नष्टप्राय प्रदेशों में ओबामा को भारी जीत मिली थी। इसी तरह ब्रैक्सिट के जनमत संग्रह में लंदन जैसे शाइनिंग इंग्लैंड ने यथास्थितिवाद का समर्थन किया, जबकि वहां के निर्धन हो चुके रस्ट बेल्ट ने परिवर्तन का समर्थन किया।

विकसित देश अंदर से दो देशों में बंट गए

यह साफ दिखता है कि अमेरिका हो या इंग्लैंड सभी विकसित देश अंदर से दो देशों में बंट गए हैं। मीडिया और बौद्धिक तंत्र इन देशों के चमकदार हिस्सों की चकाचैंध से अंधा हो गया है। इन देशों के बहुसंख्यक प्रजाति के गरीब बेरोजगार हो गए। क्षेत्रों और लोगों को अपने असंतोष को व्यक्त करने पर पूरा मीडिया उन्हें नस्लवादी, इसाई कट्टरपंथी, यहूदी-इस्लाम विरोधी और अंधराष्ट्रवादी कहकर अपमानित करता रहा है। बदले में इसी जनता ने मतदान के अपने जनतांत्रिक हथियार से इनके घमण्ड को चकनाचूर कर दिया। सत्तर साल पहले एक अमेरिकी पादरी, कफ़लिन ने कहा था कि अमेरिका में केवल एक ही दल है, जिसका नाम है ‘अमेरिकन बैंकर्स पार्टी।’ इसके दो गुट हैं। एक गुट को डेमोक्रेटिक पार्टी और दूसरे गुट को रिपब्लिकन पार्टी का खोखला नाम दिया गया है। उस पादरी को और उसके रेडियो स्टेशन को यहूदी-विरोधी कहकर कुचल दिया गया लेकिन उसी सच्चाई के सहारे अमेरिकी जनता ने दोनों दलों के नेतृत्व को नफरत से नकारते हुए डोनाॅल्ड ट्रंप को एक तरह से निर्दलीय और अराजनैतिक विजयी बनाया।

डोनाल्ड ट्रंप ने  कहा था कि उनका उद्देश्य अमेरिकी उत्पादन तंत्र को पुनर्जीवित करना है ताकि लोगों को रोजगार मिल सके। उन्होंने अमेरिकी कंपनियों से कहा  कि वे विदेशों में जमा अपने धन को अमेरिका वापस लायें और अवस्थापना तथा उत्पाद के क्षेत्र में लगाएं। इसके लिए उन्हें करों में भारी छूट मिलेगी। ट्रंप का मानना है कि सभी बहुपक्षीय व्यापार समझौतों में बाकी देश बेइमानी से अपना सामान अमेरिकी बाजार में पाट रहे हैं लेकिन वे देश अमेरिका के लिए अपना बाजार खोलने को तैयार नहीं हैं। इसी तरह सिलिकन वैली की कंपनियां वीसा नियमों का दुरूपयोग करके उन रोजगारों के लिए भी बाहर से सस्ते कर्मचारी बुलाती हैं, जिन नौकरियों के लिए स्थानीय स्तर पर ही अमेरिकी कर्मचारी उपलब्ध हैं। आरलेंडो के डिज़्नीलैंड तक ने ऐसी बेइमानी की है। इसके अतिरिक्त निकटवर्ती मैक्सिको वगैरह के डेढ़ करोड़ लोग अवैध रूप से अमेरिका में घुसकर अमेरिकी नागरिकों की बेरोजगारी को बढ़ा रहे हैं और साथ में बलात्कार जैसी घिनौनी घटनाओं में भी संलिप्त हो रहे हैं।

बदहाली से उपजा असाधारण असंतोष

एक आम अमेरिकी के मन में अपनी आर्थिक दुरावस्था को लेकर असाधारण आक्रोश है। दोनों दलों के मठाधीशों ने इससे जनता का ध्यान हटाने के लिए युद्धोन्माद पैदा करने की कोशिश की। हिलेरी ने हमेशा इस्लामी आतंकवाद के मामले तक में इस्लाम शब्द का प्रयोग करने से परहेज किया। हालांकि उन्हें ओरलेंडो हत्याकांड के आतंकी, उमर मतीन के पिता को सार्वजनिक मंच पर अपने बगल में बैठाने में कोई संकोच नहीं हुआ। दूसरी ओर ट्रंप ने बार-बार कहा कि अमेरिका को इस्लामी आतंक से खतरा है। यह सच है कि अमेरिकी जनता को कभी युद्ध से बड़ी नैतिक समस्या नहीं हुयी क्योंकि लूट के माल में सस्ते पेट्रोल आदि के माध्यम से उसे भी थोड़ा हिस्सा मिलता था। मलाई तो उसे नहीं मिली लेकिन वह दोना चाटने में भी प्रसन्न रहती थी। आखिर इसी संगठित हिंसा के सहारे इन गोरे आक्रांताओं, विशेषतः रेडनेक, यांकी या वास्प कहे जाने वाले अंगे्रजों ने पूरे अमेरिका के मूल निवासियों, रेड इंडियंस या फ़र्स्ट नेशंस को मारकर इस हाल में पहुंचाया है। दो विश्वयुद्धों ने ही अमेरिका को महाशक्ति बनाया है। वास्तव में युद्ध जबर्दस्त मुनाफा देने वाला अमेरिका का बिज़नेस माॅडल बन गया है। इस लालच में वह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लगातार एक साथ कई देशों में युद्ध करता रहा है और साथ-साथ नए युद्धों की तैयारी भी करता रहा है। अमेरिका को युद्ध शब्द से ही प्रेम है। उसकी सरकार गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को ‘वाॅर ऑन पावर्टी’ का नाम देती है। उसने प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल होने के लिए ‘युद्ध समाप्त करने के लिए युद्ध’ करने (वाॅर टु एंड दि वाॅर) का नारा दिया।

सिमटता सेवायोजन, ब्लैकमेलर बैंक

बदलाव यह हुआ है कि अमेरिकी जनता निर्धनता की मार झेल रही है। आम अमेरिकी को यह समझ में आने लगा है कि इन युद्धों की कीमत उसको कंगाल करके वसूली जा रही है, जबकि इन युद्धों से पूंजीपति मालामाल हो रहे हैं। इन युद्धों और उसके बाद के निर्माण कार्यों में अमेरिकी कंपनियों को भारी मुनाफा होता है। इन कंपनियों में रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं की तो सीधी हिस्सेदारी होती है जबकि डेमोक्रेटिक नेता इनमें दलाली खाते हैं। इन युद्धों में जो खर्च सीआईए, पेंटागन या एनएसए जैसी सरकारी संस्थाओं के नाम पर दिखाया जाता है, उसका भी बड़ा हिस्सा आउटसोर्सिंग के द्वारा इन्हीं निजी कंपनियों के पास जाता है। एक आम अमेरिकी अल्पशिक्षित ही होता है लेकिन उसको कुछ यह भी समझ में आने लगा है कि दोनों दलों की  सरकारों ने मानवाधिकार और जनतंत्र स्थापित करने या आतंकवाद तथा जनसंहारक शस्त्रों को समाप्त करने जैसे झूठे बहानों से लीबिया, ईराक और सीरिया जैसे देशों को नष्ट कर दिया जिसकी प्रतिक्रिया में आतंकवाद को बढ़ावा मिला। आर्थिक दुर्दशा ने अमेरिकी मानसिकता में यह बुनियादी बदलाव किया है। डोनाॅल्ड ट्रंप ने जनता की इसी दुखती रग पर हाथ रखा और पिछ्ला चुनाव जीते।

अमेरिका का यह आर्थिक पराभव

 यक्ष प्रश्न यह है कि आखिर अमेरिका का यह आर्थिक पराभव कैसे हुआ? समस्या की संक्षिप्त समीक्षा आवश्यक है। इसकी शुरूआत पचास साल पहले उस कालखंड में हुई , जब औद्योगिक व्यवस्था चरम पर पहुंच कर उत्तर-औद्योगिक युग में पहुंच गयी। इस नए दौर में उत्पादन के स्थान पर तृतीयक या सेवा क्षेत्र का महत्व बढ़ गया। इन नए क्षेत्रों में सेवायोजन की संभावनाएं कम थीं। उसके साथ ही मशीनीकरण के बाद अब रोबोटीकरण तथा आर्टिफिशियल इंटिलीजे़न्स का महत्व बढ़ने लगा ओर रोजगार उसी अनुपात में घटने लगे। वास्तव में इस समय अमेरिका में होटल-हाॅस्पिटल जैसे क्षेत्रों में ही रोजगार बचे हैं, जहां का काम अमेरिका के बाहर भेजा ही नहीं जा सकता। सेवायोजन की कमी अपने आप में एक भयानक समस्या है लेकिन उसके कारण कुछ और उतनी ही बड़ी समस्याओं का जन्म हुआ। अमेरिका में शिक्षा बहुत मंहगी है जिसे सस्ते ऋण के सहारे सुलभ करवाया गया है। नौकरियों में कमी होने से यह शिक्षा-ऋण भी बट्टे खाते में जाने लगा। अकेले यही कर्ज एक ट्रिलियन या एक हजार अरब डाॅलर के आस-पास है। बेरोजगारी बढ़ने से पेंशन व्यवस्था भी चरमरा गयी। पहले दस लोग नौकरी करते थे जिससे दो लोगों के पेंशन की व्यवस्था होती थी। अब नौकरियां कम हो गयीं और दूसरी ओर  पेंशन   नधारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। माना जा रह है कि अमेरिका में शिक्षा-ऋण और पेंशन बमों का विस्फोट होने जा रहा है।

संकट में है सामाजिक सुरक्षा

अमेरिकी राजनीति का एक आयाम सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाओं से जुड़ा है। इन मामलों में दोनों दलों के बीच दो ध्रुवों  की स्थिति है जबकि ट्रंप इन दोनों दलों के दायरे से बाहर हैं। इन दोनों दलों के दृष्टिकोण की तुलना के लिए एक मिसाल दी जाती है। अगर कोई व्यक्ति नदी के किनारे से 10 मीटर दूरी पर पानी में डूब रहा हो तो डेमोक्रेट्स उसको बचाने के लिए 20 मीटर लम्बी रस्सी फेकेंगे ताकि अगर उसको ज्यादा लम्बी रस्सी की आवश्यकता हो तो उसे फिर से रस्सी मांगना न पड़े। दूसरी ओर रिपब्लिकन सरकार उसे 5 मीटर लम्बी रस्सी देगी और उससे आशा करेगी कि वह स्वयं बाकी 5 मीटर तैर कर तट पर आये। डेमोक्रेटिक सरकारें वंचित वर्ग को कई प्रकार की सहायता देती हैं जिनको वेल्फेयर, डोल या इंटाइटिल्मेन्ट  कहा जाता है। ओबामा ने लगभग 2 करोड़ गरीबों को मुफ्त भोजन का वाॅउचर दिया है। रिपब्लिकन मानते हैं कि इससे परजीविता को प्रोत्साहन मिलता है। सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य की इन नीतियों  से डेमोक्रेटिक पार्टी ने वंचित वर्ग के बीच अपने जनाधार को सशक्त किया है। ट्रंप की सोच रही है  कि इन योजनाओं को बदला अवश्य जाये लेकिन इनकी मूल भावना को बनाये रखा जाये। अन्ततः यह प्रसंग भी अमेरिका की आर्थिक स्थिति से ही सम्बन्धित है क्योंकि एक अमीर देश ही अपने नागरिकों को यह सुविधा दे सकता है।

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष और ‘आईडेटिटी, स्ट्रेंथ एण्ड वीकनेस ऑफ़ अमेरिकन कैथोलिक्स’ के लेखक हैं)

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