‘पैक्स अमेरिकाना’ की उधड़ती परतें

समीर सरन।

दो दशक पहले छेड़ा गया “आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध” एकध्रुवीय दुनिया में अमेरिका का सबसे ऊंचाइयों वाला लम्हा था। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वां इमारतों से विमानों के टकराने को ज़्यादातर लोगों ने वैश्वीकरण की आत्मा पर चोट के रूप में देखा। वैश्वीकरण की इस परियोजना को अमेरिका और उसके यूरोपीय साथियों ने तैयार किया और आगे बढ़ाया था। आतंक के ख़िलाफ़ इस जंग को लेकर पी-5 के अंदर और बाहर मोटे तौर पर एक-राय थी। उस समय के ये हालात अमेरिका की असली ताक़त का प्रदर्शन कर रहे थे। बहरहाल वो एक अलग वक़्त था, और वो एक अलग ही दुनिया थी।


वापसी के हड़बड़ी और गड़बड़ियों भरे फ़ैसले

September 11, 2001: Terrorist Attacks on World Trade Center and Pentagon |  Jewish Website

उसके बाद अमेरिका ने कई दौर देखे। वो तमाम तरह की समस्याओं में उलझा रहा। इनमें 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट शामिल है। 2016 के बाद से अमेरिका के घरेलू परिदृश्यों की जटिलता और वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था की फूट दुनियाभर के सामने तमाशा बन गई। इसमें पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के शपथ ग्रहण तक का मौका शामिल है। दरअसल, दोनों ही नेता हक़ीक़त में देश की सिर्फ़ आधी आबादी का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। कोविड-19 से निपटने को लेकर अमेरिका के ढीले-ढाले और स्वार्थी रवैए ने विश्व मंच पर उसके नैतिक और ज़ेहनी ताक़त को कमज़ोर किया है। सबसे अहम बात ये कि अभी इन मामलों की आंच ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के हड़बड़ी और गड़बड़ियों से भरे फ़ैसले ने विश्व शांति के तथाकथित अमेरिकी प्रयासों यानी पैक्स अमेरिकाना  की परतें उधेड़कर रख दी हैं। हालांकि, ये मुद्दा सिर्फ़ राजनीतिक नहीं है बल्कि निरंतर चली आ रही अमेरिकी नीतियों का नतीजा है।

विमर्श के बजाय ट्रोलिंग

ऐसा नहीं है कि इन तमाम क़वायदों से सिर्फ़ अमेरिका की माली ताक़त पर ही बुरा असर पड़ा है। उदारवादी व्यवस्था को टिकाए रखने वाली संस्थाओं के नीचे की ज़मीन भी हिल रही है। अमेरिकी मीडिया और शिक्षा जगत का पक्षपातपूर्ण रवैया जगज़ाहिर हो चुका है। आज का अमेरिका एक ऐसा देश बन गया है जहां व्यापक राष्ट्रीय विमर्श के बजाय ट्रोलिंग ही आम जनजीवन का हिस्सा बन गया है। बात चाहे कोरोना वैक्सीन की बाट जोह रहे विकासशील देशों के अरबों लोगों की हो या अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी जंगों में जान जोख़िम में डालने वाले हज़ारों अफ़ग़ान की, पश्चिमी दुनिया ने इन सबके प्रति बेहद उदासीनता वाला रुख़ दिखाया है। ऐसे  माहौल में अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था को लेकर नैतिकता भरी दलीलों का शायद अब किसी पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ने वाला।

काबुल के पतन का सबक

Kabul Airport Blast Death Toll Rises To 90

पहले से ही ये तमाम देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संघर्ष और प्रतिस्पर्धा का एक नया दौर झेलने की तैयारी कर रहे हैं। एशियाई देशों की राजधानियों से इन मसलों पर नज़र बनाए रखने वाले लोग अब आगे और भी ज़्यादा चौकन्ने और शक़्की हो जाएंगे। इनमें से कुछ देश आतंकी संगठनों को पनाह देने और पालने-पोसने की तालिबानी हसरतों का सबसे पहला शिकार होने वाले हैं। इससे भी अहम बात ये कि काबुल का पतन इन देशों को ये याद दिलाता रहेगा कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी शक्तियों की रस्साकशी के बीच फंसने का उनके लिए अंजाम क्या हो सकता है।

चीन का शक्तिशाली किरदार उभरने के आसार

Beware the fallout of America's exit from Afghanistan

अफ़ग़ानिस्तान में आख़िरकार चीन की भूमिका क्या होगी ये फ़िलहाल अनिश्चित है। हालांकि अमेरिका के निकल जाने से पैदा हुए खालीपन को भरने के लिए चीन के पास कोई न कोई योजना ज़रूर है। हालांकि, चीन का मॉडल बिल्कुल जुदा है। वो मेज़बान मुल्क के संसाधनों के दोहन पर आधारित है। इतना ही नहीं चीन का ये सिस्टम उसकी करतूतों में मदद पहुंचाने वाले हुक्मरानों के लिए कई तरह के लुभावने फ़ायदे पहुंचाने की व्यवस्था पर भी टिका है। कबीलाई और सामंती समाजों में चीन का ये मॉडल बेहतर तरीके से काम करता है। चीनी सिस्टम के विकल्प के तौर पर जो मॉडल है वो इन समाजों को उदारवादी राष्ट्र और मुक्त बाज़ारों में बदलने की क़वायद करता दिखता है। कम से कम अल्पकाल में चीन के अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान (Af-Pak) और पश्चिम एशिया की आर्थिक और सैन्य व्यवस्थाओं को आकार देने वाले शक्तिशाली किरदार के तौर पर उभरने के पूरे-पूरे आसार हैं।

(ओआरएफ वेबसाइट पर छपे आलेख के कुछ अंश। लेखक भारत के अग्रणी थिंक टैंक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के प्रेसिडेंट हैं)

पूरा आलेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं:

https://www.orfonline.org/hindi/research/the-unravelling-of-pax-americana/