स्मरण: अजित राय
राहुल देव।
अजित राय के आकस्मिक निधन से जिन असंख्य लोगों के भीतर, और मित्र-संसार में एक अहम जगह ख़ाली हो गई है उनमें मैं भी हूँ।
उससे पहली भेंट मुंबई से दिल्ली जनसत्ता में आने पर नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में किसी दिन हुई थी जब वह मिलने आया था। उसकी नैसर्गिक ऊर्जा, ऊष्मा, लिखने का उत्साह और नए विषयों पर लेखन के लिए तुरंत तैयार हो जाने की प्रवृत्ति, तथा साथ ही उसके लिखे-छपे हुए की जीवन्तता देखकर ही शायद मैं अपने मन में पक रही एक पत्रकारीय योजना का पहला प्रयोग उसके साथ करने के लिए तैयार हुआ। उसे असाइनमेंट दिया – आजतक के संस्थापक-प्रमुख सुरेन्द्र प्रताप सिंह पर रविवारी जनसत्ता की आवरण कथा लिखो।
योजना थी कि हिंदी पट्टी के हिंदी के अपने देशज जीवित नायकों को चिन्हित करके उनपर व्यक्ति चित्रों की श्रंखला चलाना। पत्रकारिता अपने आरंभिक ९ साल अंग्रेज़ी अख़बार और पत्रिकाओं में गुज़ार चुकने के कारण हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकारिता के बहुत से अंतरों से अनुभव के स्तर पर परिचित था इसलिए यह बात सालती थी कि हिंदी पत्रकारिता अपने भौगोलिक इलाक़े तथा विभिन्न कार्यक्षेत्रों में जन्मी सक्रिय, सफल तथा बड़ी हस्तियों को वैसी पहचान, स्थान और सम्मान नहीं देती जैसी अंग्रेज़ी पत्रकारिता देती थी और है।
यही बात मुंबई में रहते हुए मराठी समाज और पत्रकारिता में देखी। एक बड़े मराठी लेखक, रंगकर्मी, कवि, संस्कृतिकर्मी की महाराष्ट्र में जैसी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता होती है उसकी हिंदी में न तब कल्पना की जा सकती थी न अब की जा सकती है। बांग्ला में भी यह देखा है। वे अपने समाज के ‘एलीट’ होते हैं। हिंदी के बड़े से बड़ी जीवित या दिवंगत साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्वों को हिंदी के विराट भाषा समाज में कितने लोग जानते-मानते-सराहते हैं इस पर टिप्पणी की ज़रूरत नहीं है। साहित्य-संस्कृति-ललित कलाओं की अपनी-अपनी छोटी दुनिया के बाहर व्यापक हिंदी समाज अपने सितारों-‘सेलेब्रिटीज़’-एलीट के नाम पर मनोरंजन की दुनिया के सितारों को ही जानता है। उसका अपना कोई देशज एलीट नहीं है।
संक्षेप में मैं हिंदी के अपने ‘एलीट’ तैयार करना चाहता था जिनकी कम से कम अपने भाषा संसार और समाज में पहचान, प्रतिष्ठा, प्रभाव और प्रसिद्धि किसी भी दूसरी बड़ी और सशक्त भाषा के समाज के समान हो।
अजित ने कई दिन लगा कर, सुरेंद्र जी सहित कई लोगों से बात करके वह आवरण कथा लिखी। रविवारी जनसत्ता का पूरा पहला पन्ना उसे दिया गया। इसके कुछ समय बाद ही एसपी को गंभीर स्ट्रोक-पक्षाघात हुआ। वे उससे उबर न सके।
संयोग ऐसा हुआ कि इस दुर्घटना के कुछ ही दिनों बाद में एसपी की जगह आजतक चला गया। वह कथा बाद में कभी।
उसके बाद से अजित से संबंध बना रहा। कार्यक्रमों में अक्सर भेंट होती रही। वह सीढ़ियाँ चढ़ता रहा। उसके जन्मदिन की एक या दो मस्ती वाली दावतों में भी गया। उसकी मित्र मंडली, कार्यक्षेत्र, परिचय बढ़ते रहे। वह हिंदी से राष्ट्रीय, फिर अंतरराष्ट्रीय हो गया। उसकी ऊष्मा, ऊर्जा और उत्साह बने रहे। देश-विदेश में उसकी यात्राएँ, फ़िल्म समारोहों में भागीदारी बढ़ती रहीं। हिंदूजा परिवार से नज़दीकियाँ उसके द्वारा पोस्ट की गई तस्वीरों में दिखती रहीं। दोस्त बनाने की उसकी सहज प्रतिभा निखरती रही।
इसके साथ-साथ उसने फ़िल्मों के विविध तत्वों की अपनी समझ, जानकारी और अंतर्दृष्टि का भी विकास किया। फ़िल्मों के बारे में मेरी समझ लगभग वैसी ही है जैसी क्रिकेट, अंतरिक्ष विज्ञान और कोडिंग के बारे में। यानी शून्यवत्। इसलिए उसकी फिल्सी समझ, लेखन की गुणवत्ता पर टिप्पणी नहीं कर सकता। मेरे मन में छाप यह है कि बिना अच्छी-खासी विषयगत गंभीरता, गहराई और गुणवत्ता के, केवल जनसंपर्क कौशल और नेटवर्किंग से इतना कुछ हासिल नहीं किया जा सकता।
एक शुद्ध हिंदी के पत्रकार के रूप में अजित ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी जो पहुँच, परिचय और प्रतिष्ठा बनाई वह उसकी एकदम मौलिक उपलब्धि है। अपने स्वभाव की मस्ती, फक्कडाना अंदाज, अपने अँगोछे के साथ हिंदी को उसने कुछ ऐसे स्थानों, घरानों में पहुँचाया जहाँ अब तक शायद उसका ऐसा प्रवेश नहीं हुआ था।
वह स्वयं हिंदी का एक अंतरराष्ट्रीय पत्रकारीय एलीट बन चुका था। किसी हिंदी अख़बार में एक पूरे पन्ने का विषय बनने लायक़। (साभार)