बालेन्दु शर्मा दाधीच।
हाल ही में एक खबर पढ़कर दिल बैठ सा गया। अमेरिका की वर्सेल नामक आईटी कंपनी ने दस लोगों की सेल्स टीम का इस्तेमाल अपने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मॉडल की ट्रेनिंग के लिए किया। जब एआई प्रवीण हो गई तो उन्हीं दस में से नौ लोगों को टीम से निकाल दिया। ये सभी लोग, जाने या अनजाने में, खुद को ही रिप्लेस करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद कर रहे थे, और इसके पीछे कंपनी की नई एचआर स्ट्रेटेजी थी।
हममें से कितने लोग हैं जो आज भी यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस दुनिया बदलने जा रही है! बहुतों को भरोसा है कि एआई अलाँ काम नहीं कर सकेगी या फलाँ इंसानी हुनर के सामने नहीं टिक सकेगी। और नतीजतन, वे मानते हैं कि उनकी नौकरी या कारोबार के लिए ‘सब चंगा सी।‘ मसलन ‘वाइब कोडिंग’ के बारे में अब ऐसी टिप्पणियाँ होने लगी हैं कि वह एक बुलबुला साबित हुई है और सॉफ़्टवेयर इंजीनयिरों को परेशान होने की जरूरत नहीं है। ‘वाइब कोडिंग’ का मतलब है जब एआई खुद ही प्रोग्रामिंग का कोड भी लिखने लगे। तुरत-फुरत निष्कर्ष निकाल लेने वाले लोग यह भूल जाते हैं जनरेटिव एआई ने अभी शुरूआत ही की है। आज ज्यादातर सॉफ्टवेयर इंजीनियर इसका प्रयोग कर रहे हैं और उनकी कंपनियाँ भी उन्हें ऐसा करने के लिए कह रही हैं। इस प्रक्रिया में कर्मचारी का थोड़ा, मगर नियोक्ता का बहुत फायदा है और कई तरह का फायदा है।
क्लाउड कंप्यूटिंग की टॉप कंपनियों में से एक सेल्सफोर्स ने ऐलान किया था कि 2025 में वह सॉफ्टवेयर इंजीनियरों की भर्ती नहीं करेगी। वजह? एआई ने इंजीनियरिंग का आउटपुट इतना बढ़ा दिया है कि नए लोगों की ज़रूरत ही नहीं है। जरा सोचिए, सेल्सफोर्स की एआई इस स्तर तक कैसे पहुँची होगी? भारत का ही उदाहरण देखिए। ‘दुकान’ नामक स्टार्टअप के सीईओ ने कुछ महीने पहले कहा था कि उन्होंने अपनी कस्टमर सपोर्ट टीम के 90 प्रतिशत लोगों की छुट्टी कर दी है क्योंकि उनका काम अब एआई एजेंट (एप्लीकेशन) करने लगा है।
आपने बहुत सारी अंतरराष्ट्रीय और भारतीय एआई कंपनियों (अमेजन, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, विप्रो, इन्टेल, आईबीएम आदि) में छँटनियों की खबरें पढ़ी होंगी। लाखों की संख्या में कर्मचारी प्रभावित हो रहे हैं। माइक्रोसॉफ़्ट के सीईओ सत्य नडेला मंजूर कर चुके हैं कि उनकी कंपनी में 20 से तीस फीसदी कोडिंग एआई के जरिए की जाने लगी है। मेटा के सीईओ मार्क जकरबर्ग ने कहा था कि सन् 2026 आते-आते उनके यहाँ 50 फीसदी तक प्रोग्रामिंग कोड एआई लिखने लगेगा। क्लॉड नामक जनरेटिव एआई मॉडल बनाने वाली एंथ्रोपिक के सीईओ दारियो अमोदी तो और भी आगे चले गए हैं। उनके मुताबिक अगले छह महीने में 90 फीसदी कोडिंग एआई से होने लगेगी। अगर यह बात दूर की कौड़ी लगे तो भी आगे की दिशा तो बता ही रही है। याद रहे, यही तो ‘वाइब कोडिंग’ है, जिसे कुछ उत्साही लोग, फटाफट कुछ साबित करने की जल्दी में, खारिज करने में लगे हैं!
पीएम ने किया एआई का दुरुपयोग रोकने के लिए वैश्विक समझौते का आह्वान
आज हम एक कमाल की दुविधा से जूझ रहे हैं और वह यह कि एआई का इस्तेमाल करें या न करें। इस्तेमाल न करना कोई विकल्प नहीं रह गया है क्योंकि ऐसा करना आपको डिजिटल डायनोसोर बना देगा। दूसरी तरफ, इस्तेमाल करने की अपनी दुविधाएँ हैं, कम से कम उन लोगों के लिए जिनके लिए इसका प्रयोग उनके काम तक सीमित है। जो एआई में अपनी दक्षता को बहुत आगे तक ले जाने के इच्छुक नहीं हैं या जिनकी सीमाएँ इसमें आड़े आ जाती हैं।
हाल ही में IBM ने अपने दफ्तरी कामों के लिए होने वाली हजारों कर्मचारियों की भर्तियों को रोक दिया है क्योंकि उसे लगता है कि एआई एजेंट इन कामों को कर लेंगे। इंग्लैंड में दूरसंचार के क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी ब्रिटिश टेलीकॉम (बीटी) ने कहा है कि वह सन् 2030 तक करीब 55 हजार नौकरियों की कटौती करने जा रही है जो कि उसके कर्मचारियों की कुल संख्या का करीब 40 फीसदी है। बीटी ने इसके पीछे रिस्ट्रक्चरिंग समेत बहुत सारे कारण बताए हैं और कहा है कि एआई की वजह से खत्म होने वाली नौकरियों की संख्या 10 हजार है। दसियों दर्जन दूसरी बड़ी कंपनियाँ भी छँटनियाँ कर चुकी हैं या करने वाली हैं। और इसके पीछे सिर्फ आर्थिक मंदी या ट्रंप के टैरिफ नहीं हैं। नए तकनीकी बदलाव एक अहम कारण है।
वर्सेल, जिसका जिक्र मैंने इस लेख के शुरू में किया, का उदाहरण दिखा रहा है कि कैसे कर्मचारी खुद ही अपने रिप्लेसमेंट के लिए रास्ता तैयार कर रहे हैं। इस कंपनी के एआई एजेंट ने उसके सबसे सफल सेल्स रिप्रजेंटेटिव्ज के कामकाज के तरीके, फैसले करने के ढंग, ग्राहकों से संपर्क के ढर्रे, डॉक्यूमेंटेशन, प्लानिंग, सेल्स पिच आदि को करीब छह हफ्ते तक समझा, गुना और सीखा। दस सदस्यों वाली सेल्स टीम में इल एजेंट को भी शामिल कर लिया गया। बाद में वर्सेल ने कहा कि दस में से नौ लोगों को दूसरे काम में लगाया जा रहा है। अब टीम में दो सदस्य हैं, एक इंसान (सुपरवाइजर) और एआई।

ऊबर को देखिए। वह अब अपने ड्राइवरों को थोड़ा अतिरिक्त पैसा कमाने का मौका दे रहा है। ये लोग एआई से जुड़े ‘माइक्रोटास्क’ पूरे कर सकते हैं, जैसे फोटो खींचना, ऑडियो क्लिप रिकॉर्ड करना आदि। इनके जरिए उबर अपने एआई मॉडलों को प्रशिक्षित कर सकेगी। ऊबर को पता है कि भविष्य ड्राइवर-लैस कारों का है।
अपने यहाँ बेंगलुरु और हैदराबाद में बीपीओ कंपनियाँ चुपचाप एआई को टियर-1 सपोर्ट, डेटा एंट्री और बेसिक कोडिंग जैसे कामों में प्रशिक्षित कर रही हैं। जो बात भारतीय आईटी-सेवाओं को विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाती थी अब वही लार्ज लैंग्वेज मॉडलों के पास उपलब्ध हैं, जैसे अंग्रेजी बोलने में प्रवीणता, आईटी की अच्छी जानकारी, सस्ता श्रम, अनुशासन और अधिक बचत आदि-आदि। बात सेल्स एंड मार्केटिंग, इंजीनियरिंग, कस्टमर सर्विस और परिवहन तक सीमित नहीं है। बात मीडिया, मेडिकल, लीगल, कंसलटेंसी, अकाउंटिंग, मनोरंजन, अनुवाद और ऐसे ही दर्जनों दूसरे क्षेत्रों तक पहुँचेगी। क्रिएटिव, मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग की अग्रणी कंपनी डब्लूपीपी ने अपनी क्रिएटिव टीम के 40 फीसदी लोगों को पिंक स्लिप पकड़ाई है।
पिछले दिनों मैंने ‘रेडिट’ (Reddit) पर एक ग्राफिक-डिज़ाइनर ने लिखा कि कैसे उसने अपनी कंपनी में उत्साह से एआई टूल अपनाए, अपने टेम्पलेट्स, अपनी शैली, अपनी शॉर्टकट्स आदि को शेयर किया। फिर उसे निकाल दिया गया क्योंकि उसके जैसा ही काम एआई करने लगी थी। वह भौंचक्का रह गया क्योंकि “एआई का काम निःसंदेह मेरे ही जैसा लग रहा था।”
भारत में अदृश्य श्रम-बल बहुत बड़ी संख्या में एआई प्रणालियों को प्रशिक्षित करने में जुटा है। हजारों डेटा एनोटेटर्स, कंटेंट मॉडरेटर, क्वालिटी चेकर्स आदि-आदि अक्सर 15,000-25,000 रुपए मासिक कमाते हुए चित्रों को लेबल कर रहे हैं, हानिकारक कंटेंट को चिह्नित कर रहे हैं, एआई से मिलने वाले परिणामों की ग्रेडिंग कर रहे हैं, भाषाई संवादों की रिकॉर्डिंग कर रहे हैं, वातावरण, लोगों तथा दस्तावेजों के फोटो लो रहे हैं। वे मशीनों को देखना, बोलना और सोचना सिखा रहे हैं। ऐसा न करने का विकल्प उपलब्ध नहीं है। यह उनका रोजगार है और यही एआई के हित में भी है। लेकिन दुनिया में चल रही ऐसी अनगिनत गतिविधियों का अंतिम नतीजा क्या होगा? यह सवाल आपके लिए।
(लेखक वरिष्ठ आईटी विशेषज्ञ हैं)।



