उमेश चतुर्वेदी ।

पत्रकार और पत्रकारिता की महत्ता को पहली बार समझने का मौका मिला पिछली सदी के सत्तर के दशक के आखिरी दिनों में।


 

शायद 1979 या 1980 की बात है। वाराणसी से सहकारी व्यवस्था के तहत प्रकाशित होता था जनवार्ता। उसके संपादक ईश्वरदेव मिश्र थे। सिर्फ आठ पृष्ठ वाले इस अखबार की उन दिनों बड़ी धाक थी। उसी दौरान वाराणसी के किसी सत्ताधारी नेता की करतूत के बारे में जनवार्ता में समाचार छपा और इस समाचार से क्षुब्ध उस नेता के गुर्गों ने रात के अंधेरे में ईश्वरदेव मिश्र पर हमला कर दिया था। इस हमले ने उस दौर की पूर्वी उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता में भूचाल ला दिया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के छोटे-छोटे कस्बों तक में इस हमले के खिलाफ बैठकें हुईं, प्रदर्शन हुए और हमलावर गिरफ्तार किए गए।

उमेश डोभाल की हत्या

पत्रकारिता की अहमियत को समझाने में इसके कुछ सालों बाद शायद 1989 की घटना ने भूमिका निभाई। उत्तरांचल के पत्रकार उमेश डोभाल की मार्च में स्थानीय लकड़ी और शराब माफिया ने हत्या कर दी। इस हत्या से क्षुब्ध पत्रकारिता ने जैसे अभियान ही छेड़ दिया था। जो उमेश डोभाल को निजी रूप से नहीं जानता था, वह भी इस हत्या के खिलाफ सड़कों पर था। उसे लगता था कि यह हत्या किसी पत्रकार की नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी की हत्या है, जिसका कुछ गुंडे या मवाली अपहरण करने की फिराक में है।

तब आज की तुलना में साक्षरता दर कम थी। जिंदगी में चमक-दमक कम थी। जिंदगी में आर्थिकी का ज्यादा असर नहीं था। लेकिन लोकतंत्र, समाज और उन्हें जिंदा रखने वाले जीवन मूल्यों के प्रति आम लोगों की आस्था कहीं ज्यादा थी। लोकतंत्र के पहरेदार के तौर पर पत्रकारिता की ताकत को स्वीकार किया जा चुका था।

पत्रकारिता में प्रवृत्तिगत बदलाव

इन दो घटनाओं की तुलना में रिपब्लिक भारत के संपादक और प्रोमोटर अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी की घटना को परखेंगे तो अंतर साफ नजर आएगा। अर्णब की गिरफ्तारी को जिस तरह तार्किकता के साथ सही ठहराने की कोशिश खुद पत्रकारिता के अंदर से कोशिश हो रही है, उससे साफ है कि पत्रकारों, पत्रकारिता और आम जन की आर्थिक स्थिति दो-तीन दशक पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर भले ही हो गई है, लेकिन पत्रकारिता को लेकर जहां आमजन की सोच बदली है, वहीं पत्रकारिता के अंदर भी स्पष्ट विभाजन बढ़ा है। राजनीति में पोलिटिकली करेक्ट रहने की प्रवृत्ति तो पहले से ही रही है, लेकिन पत्रकारिता कम से कम इस प्रवृत्ति से दूर रही है। लेकिन पत्रकारिता में भी पोलिटकली करेक्ट दिखने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

पत्रकारिता की दुनिया का यह प्रवृत्तिगत बदलाव ही है कि अर्णब की गिरफ्तारी के खिलाफ खुलकर सामने आने की बजाय पत्रकारिता की हस्तियां अपने-अपने हिसाब से प्रतिक्रिया दे रही हैं। पत्रकारिता, खासकर टेलीविजन पत्रकारिता में एक समूह इन दिनों सक्रिय है, जिसे अर्णब की गिरफ्तारी सही लग रही है। पत्रकारिता राजनीति की दुनिया की करतूतों का खुलासा तो करती रही है, लेकिन आज की पत्रकारिता अब खुद के अंदर का भी स्टिंग कर रही है। वह बताते नहीं थक रही है कि अपनी गिरफ्तारी के दौरान पुलिस दुर्व्यवहार का जो आरोप लगाया था, वह गलत था। जबकि हकीकत यह है कि पुलिस ने उनसे कोई दुर्व्यवहार नहीं किया।

मीडिया का एक वर्ग अर्नब के खिलाफ

जिस दो साल पुराने मामले में अर्णब की गिरफ्तारी की गई है, उसे दोबारा खोलने और उसके जरिए अर्णब को दोषी ठहराने की कोशिश पत्रकारिता के ही अंदर से ही हो रही है। पत्रकारिता का एक वर्ग तार्किक तरीके से यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि चूंकि इंटीरियर डेकोरेटर अन्वय नाइक और उनकी मां की खुदकुशी के जिम्मेदार अर्णब हैं और वे अपराधी हैं, इसलिए उनकी गिरफ्तारी जरूरी है। सच तो यह है कि इस मामले को जांच के बाद पुलिस ने दो साल पहले ही बंद कर दिया था। महाराष्ट्र सरकार के दावे को उद्धृत करते हुए कहा जा रहा है कि चूंकि अन्वय की बेटी ने महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख से मुलाकात की थी, इसके बाद उस मामले को खोला गया। फिर नए सिरे से भारतीय दंडसंहिता की धारा 306 के तहत मामला दर्ज किया गया और अर्णब की गिरफ्तारी हुई। अर्णब की गिरफ्तारी को सही ठहराने के लिए मीडिया का जो वर्ग ज्यादा मुखर है, उनमें ज्यादातर चेहरे ऐसे हैं, जिनका अतीत की सत्ताओं के साथ गलबहियां डालने और उसके जरिए सत्ता सुख हासिल करने के आदी रहे हैं। उनमें ऐसे भी चेहरे हैं, जिन्होंने किसी के इशारे पर अपनी पत्रकारीय ताकत का इस्तेमाल करते हुए कई गुनाहगारों को बेगुनाह, कई बददिमागों को संजीदा, माफिया को सज्जन साबित किया है।

पत्रकारिता की ये नामचीन हस्तियां

कुछ साल पहले एक संस्थान में संपादक रहते वक्त निजी क्षेत्र की एक बड़ी कंपनी के मीडिया प्रबंधन के एक जिम्मेदार व्यक्ति से मुलाकात का मौका मिला था। तब वह अधिकारी अपनी कंपनी के संदर्भ में ऐसा समाचार चलवाना चाहता था, जिससे प्रसारित या प्रकाशित होने के बाद कंपनी को फायदा तो होता, लेकिन लोक हित दांव पर लगता। उस दौरान कंपनी ने बहुत लालच भी दिया और लगे हाथों अपनी एक डायरी के एकाध पृष्ठ साझा किया था। उसमें पत्रकारिता की कई हस्तियों का नाम था, जो उस कंपनी के हाथों उपकृत हो चुकी थी। दुर्भाग्यवश उस दौर की पत्रकारिता की ये नामचीन हस्तियां थीं और आज अर्णब पर सवाल उठाने वालों में उनमें से ज्यादातर नाम है। कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया के टेप तो अब सार्वजनिक हो चुके हैं। उनसे स्पष्ट था कि कारपोरेट लॉबिंग में पत्रकारिता जगत की किस हस्ती ने कैसा फायदा हासिल किया है। बेशक आज अर्णब एक महत्वपूर्ण मीडिया हाउस के प्रमुख हैं, प्रोमोटर भी हैं। लेकिन कम से कम अब तक उन पर ऐसे आरोप नहीं लगे हैं।

कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद के संदर्भ में दिल्ली के खान मार्केट समूह की बात की थी। मीडिया की दुनिया में पत्रकारिता से शुरूआत कर चुके, मालिक और प्रोमोटर बन कर चमक बिखेर रहे कई लोग हैं- लेकिन उन्हें किसी राजसत्ता ने उस तरह प्रताड़ित नहीं किया, जिस तरह अर्णब को निशाना बनाया जा रहा है। इसकी बड़ी वजह यह है कि अर्णब ने यह सफलता अपने दम पर हासिल की है।

अर्णब का अपराध

अर्णब मार्का पत्रकारिता से असहमति हो सकती है। उन्होंने पत्रकारिता को चिखमचिल्ली का मंच बना दिया है। उनके चैनल के कई पत्रकार भी उनकी ही तरह चिल्लाने और उसी स्टाइल में बोलने की कोशिश करते हैं। अर्णब और उनकी टीम की इन आधारों पर स्वस्थ आलोचना की जा सकती है और अर्णब की टीम को भी इसे स्वीकार करना चाहिए। लेकिन अर्णब को निशाना इसलिए नहीं बनाया जा रहा है। अर्णब भारतीय मीडिया में गहरे तक जड़ें जमा चुके छद्म सेकुलरवाद पर चोट पहुंचाई है। मीडिया समेत बौद्धिकी के तमाम मंचों पर यह स्थापित कर दिया गया है कि हिंदुत्व और बहुसंख्यक हिंदू हित की बात करना सांप्रदायिकता की निशानी है और अल्पसंख्यकवाद के नाम अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से होने वाले अनाचार को स्वीकार करना संजीदापन। खासकर पिछली सदी के सत्तर के दशक से पत्रकारिता इसी बौद्धिक मानदंड के तहत काम करती रही है।

अर्णब का अपराध यह है कि उन्होंने पत्रकारिता की इस बौद्धिकी पर चोट पहुंचाई है। बेशक उसका तरीका अलग है। महाराष्ट्र के पालघर में पुलिस के सामने भीड़ के हाथों दो साधुओं की हत्या और उस पर महाराष्ट्र सरकार की चुप्पी पर अर्णब की टीम ने सवाल उठाना क्या शुरू किया, महाराष्ट्र के सत्ताधारी गठबंधन की प्रमुख हिस्सेदार कांग्रेस उनके खिलाफ हो गई। जब अभिनेता सुशांत सिंह ने अपनी मैनेजर दिशा साल्यान की कथित आत्महत्या के ठीक हफ्तेभर बाद कथित तौर पर खुदकुशी कर ली, तो इसके पीछे अर्णब की टीम को षड्यंत्र नजर आने लगा। उनकी टीम को इसके पीछे राजनीतिक तौर पर रसूखदार लोगों के हाथ की भी जानकारी मिली। अर्णब ने उन हाथों को बेनकाब करने का अभियान छेड़ दिया और वे महाराष्ट्र की सत्ता के निशाने पर आ गए। उसके बाद की घटनाएं सबको पता है। उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज होने लगे, टीआरपी घोटाले में उनको जबरिया घसीटा गया, हालांकि बाद में टीआरपी मापने वाली कंपनी बार्क ने इसमे उनका हाथ होने से ही इनकार कर दिया।

Arnab Goswami remanded in judicial custody for 14 days

तब मीडिया समाज आज की तरह बंटा हुआ नहीं था

अर्णब के रिपोर्टरों को पुलिस ने गिरफ्तार करने, प्रताड़ित करने, पूछताछ करने की महाराष्ट्र में कोशिश हुई। अर्णब की टीम ने इस बीच उत्तर प्रदेश के हाथरस की कथित घटना के पीछे की राजनीतिक पटकथा को उजागर करना शुरू कर दिया। अर्णब चुप हो ही नहीं रहे थे। ऐसे में महाराष्ट्र सरकार ने दो साल पुराने उस मामले को खोला, जिसे दुनिया में बेहतर स्थान रखने वाली उसकी मुंबई पुलिस ने बंद कर दिया था और अर्णब को जकड़ लिया गया।

प्रेस पर सेंसरशिप के लिए आपातकाल को याद किया जाता है। लेकिन तब भी किसी पत्रकार को ऐसे गिरफ्तार नहीं किया गया था, जिस तरह अर्णब को किया गया। वैसे 1988 में कांग्रेस की तत्कालीन सरकार और देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बोफोर्स दलाली की खबरें छापने वाले इंडियन एक्सप्रेस को चुप कराने के लिए ऐसी ही कोशिशें की थीं। सौभाग्यवश तब मीडिया समाज आज की तरह बंटा हुआ नहीं था। इसलिए राजीव सफल नहीं हो पाए। अर्णब की गिरफ्तारी को महाराष्ट्र सरकार जरूरी और उनके अपराध को संगीन बताने की कोशिश कर रही है, लेकिन वह मामला कितना संगीन है कि अर्णब की पुलिस रिमांड को अदालत ने खारिज कर दिया। आमतौर पर संगीन मामलों के आरोपी की पुलिस रिमांड स्वीकार करने में भारत की निचली अदालतें देर नहीं लगातीं।

ताकि परिपाटी ना बन सके

अर्णब की गिरफ्तारी सिर्फ उनके खिलाफ शिकंजा नहीं है, बल्कि एक ऐसी परिपाटी की शुरूआत है, जिसका इस्तेमाल आने वाले दिनों में हर वह सत्ता कर सकती है, जिसे अपने खिलाफ उठने वाली महीन सी भी आवाज उसे स्वीकार्य नहीं होगी। पत्रकारीय समाज के उस वर्ग को सोचना चाहिए, जो आज अर्णब की गिरफ्तारी पर या तो चुप है या फिर उसे जायज ठहरा रहा है। कल उनकी सोच के विपरीत छोर की वैचारिकी वाली सरकार होगी तो वह भी उनसे आज की सत्ता की तरह ही सलूक करेगी। इसीलिए अर्णब की गिरफ्तारी का पत्रकारीय विरोध जरूरी है। ताकि परिपाटी ना बन सके और कोई भी राजसत्ता अपने खिलाफ उठने वाली तार्किक आवाज को बंद ना कर सके। लेकिन इसके लिए जरूरी होगा कि पत्रकार समाज भी उसी तरह उठ खड़ा हो, जिस तरह उसने ईश्वरदेव मिश्र पर हमले का प्रतिकार किया था या फिर उमेश डोभाल की हत्या के खिलाफ मोर्चा संभाला था।


पैगंबर तक ही रहो राना साहब, राम का नाम बदनाम न करो