प्रदीप सिंह।
तो पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री मिल गया। चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के नए मुख्यमंत्री हैं। वह पंजाब में दलितों के रविदसिया वर्ग से आते हैं। सिक्ख हैं। पंजाब में पिछले कुछ समय से सिक्ख दलित मुख्यमंत्री की बात हो रही थी। बहुजन समाज पार्टी, अकाली दल, बीजेपी, आम आदमी पार्टी सभी यह बात कर रही थीं। कोई डिप्टी सीएम बनाने की बात कर रहा था, कोई सीएम बनाने की। लेकिन पहल कांग्रेस ने की और सबसे पहले पंजाब में सिख दलित मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन बात इतनी सरल नहीं है। अगर किसी को ऐसा लगता है कि चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से पंजाब में कांग्रेस की समस्याएं खत्म हो गई हैं तो ऐसा नहीं है। बल्कि लग तो ऐसा रहा है कि समस्या और ज्यादा बढ़ गई हैं। कैप्टन अमरिंदर का सिर्फ एक दांव… और पूरा गांधी परिवार व नवजोत सिंह सिद्धू दोनों चारों खाने चित हैं।
बैठक के दो मकसद
यह बात जिस आधार पर कही जा रही है उस पर बात करने से पहले शनिवार, 17 सितम्बर का वह दृश्य याद कर लेते हैं जब पंजाब में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई गई थी। उस बैठक के दो मकसद थे। पहला- कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना और उनको विधायक दल के नेता पद से हटाना था। बैठक में एक दूसरा प्रस्ताव भी आना था जिसमें सिद्धू को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना जाना था। कैप्टन को यह पूरा खेल समझ में आ गया था। सुबह उन्होंने सोनिया गांधी को फोन किया। यह समझ में आने पर कि अब सोनिया गांधी ने हाथ खड़े कर दिए हैं और कांग्रेस में संगठन के और अन्य तमाम फैसले वह नहीं बल्कि उनके पुत्र राहुल गांधी और पुत्री प्रियंका वाड्रा कर रहे हैं… कैप्टन अपना दांव चला। वह राजनीति और फौज दोनों के पुराने योद्धा रहे हैं। शाम पांच बजे से कांग्रेस विधायक दल की बैठक होनी थी। वह चार बजे गवर्नर के पास गए और मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया।
राष्ट्रवाद का कार्ड
कैप्टेन इस्तीफा देकर चुप नहीं बैठ गए। बल्कि इस्तीफा देने के बाद चार पांच न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू भी दिए। इंटरव्यू में कैप्टन ने एक राष्ट्रवादी मुद्दा उठाया। हालांकि कैप्टन पहले से ही राष्ट्रवादी है और उस पर किसी को कभी कोई शक नहीं रहा है। कैप्टन ने इंटरव्यू में कहा कि ‘मैं फौजी हूं और पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर जब दिल्ली प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से मिलने जाता था तो पंजाब की सुरक्षा के लिए। पंजाब की सीमा पाकिस्तान से लगती है ऐसे में सुरक्षा के बहुत सारे सवाल हैं जिन पर भारत सरकार से बात करनी होती है। मैं उससे कोई समझौता नहीं कर सकता। हमारे लोग मारे जा रहे हैं कश्मीर में। पाकिस्तान से आतंकवादी भेजे जा रहे हैं। ड्रोन से हथियार गिराए जा रहे हैं।’ दूसरी महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही कि ‘नवजोत सिंह सिद्धू देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से इनकी दोस्ती है। पाकिस्तान गए तो तब के पाक सेनाध्यक्ष से वहां गले मिले थे। इनके तब से संबंध हैं। ऐसे में मैं सिद्धू को पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करूंगा। उनके अलावा पार्टी को जिसको भी मुख्यमंत्री बनाना हो- वह बनाए।
गुस्से में सिद्धू
कैप्टन ने अपना दांव चल दिया। उसका असर वहां चल रही कांग्रेस विधायक दल की बैठक तक पहुंचा। पार्टी नेतृत्व को लगने लगा के सिद्धू को इसी समय मुख्यमंत्री बनाना बहुत खतरे का काम है। विधायकों की राय ली जाने लगी। इसमें सुखजिंदर सिंह रंधावा सबसे आगे थे। उनको सबसे ज्यादा विधायकों का समर्थन हासिल था। उसके बाद सिद्धू का नंबर था। जब यह बात सिद्धू को बताई गई तो वह गुस्से में बैठक से निकल कर चले गए। सिद्धू को पता चल गया कि पिछले छह महीने से वह गांधी परिवार के इशारे पर मुख्यमंत्री बनने का जो दांव खेल रहे थे वह फेल हो रहा है।
सिद्धू पर रार बढ़ी तो याद आईं अस्सी की अम्बिका
उधर जब पार्टी हाईकमान को लगा कि सिद्धू को मुख्यमंत्री बनाने पर पार्टी में झगड़ा हो सकता है तो उन्होंने अस्सी के पास पहुंच रही अंबिका सोनी को मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया। एक महीने पहले की योजना उसके अनुसार एक हिंदू सुनील जाखड़ को मुख्यमंत्री बनाया जाना था। एक जट सिक्ख सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जा चुका था। ऐसा माना गया कि इससे जट सिक्ख और हिन्दू दोनों समीकरण सध जाएंगे। इस योजना को लागू करने में दिक्कत यह थी कि सुनील जाखड़ विधानसभा के सदस्य नहीं है। मुख्यमंत्री बनने के बाद 6 महीने के भीतर विधानसभा का सदस्य होना जरूरी होता है। पंजाब में एक ही सदन है विधानसभा। वहां विधान परिषद नहीं है। जाखड़ को मुख्यमंत्री बनाने के लिए विधानसभा की एक सीट खाली कराकर उस पर चुनाव कराना पड़ता। कांग्रेस यह जोखिम लेना नहीं चाहती थी। इसलिए सोचा कि इस मामले को थोड़ा टाला जाए। जब विधानसभा का छह महीने से कम समय का कार्यकाल रह जाए तब सुनील जाखड़ को मुख्यमंत्री बनाया जाए। क्योंकि लेकिन चीजें वैसी हुई नहीं। अंबिका सोनी राहुल गांधी के पास गयीं और मुख्यमंत्री बनने से मना कर दिया। अंबिका सोनी को लग गया था कि यह कोई चार-पांच महीने का मामला है और वह भी पक्का नहीं कि मुख्यमंत्री बन पाएंगी या नहीं। उन्हें कुछ पता नहीं था कि कितने लोग समर्थन करेंगे, या विरोध करेंगे।
जो अंदर कहा वह मीडिया को क्यों बताया
अंबिका सोनी ने राहुल गाँधी के पास जाकर मुख्यमंत्री बनने से मना ही नहीं किया बल्कि मीडिया को भी यह जानकारी दी कि उन्हें मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया था जिसे उन्होंने मना कर दिया है। इस तरह साबित हो गया कि जो कांग्रेस पार्टी युवाओं की, युवा चेहरों को सामने लाने और आगे बढ़ाने की बात करती है, वह 78 साल की अंबिका सोनी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ कई आरोपों में एक आरोप यह भी था कि उनकी उम्र ज्यादा हो रही है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस में चल क्या रहा है और किस तरह की सोच है। पूरी अफरा-तफरी है। कोई दिशा नहीं, कोई स्पष्टता नहीं। जब सिद्धू ने सुखजिंदर सिंह रंधावा के नाम पर एतराज किया तो फिर से सुनील जाखड़ का नाम सामने आ गया। सिद्धू ने रंधावा का विरोध इसलिए किया क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि अगर वह खुद मुख्यमंत्री नहीं बन रहे हैं तो कोई अन्य जट सिक्ख मुख्यमंत्री बने। सिद्धू को लगा कि अगर कोई जट सिक्ख मुख्यमंत्री बनेगा तो वह आसानी से उनके लिए जगह खाली नहीं करेगा। उनको यह भी लगा कि कांग्रेस जिसे भी मुख्यमंत्री बनाएगी वह पुराना कांग्रेसी ही होगा जिसकी पार्टी और सरकार पर उनसे ज्यादा पकड़ रहेगी। पंजाब में 2022 के विधानसभा चुनाव में अगर कांग्रेस जीतती है तो उनका मुख्यमंत्री बनना और भी मुश्किल हो जाएगा।
गुलदस्ता लेकर रंधावा के घर गए चन्नी
यह तो अंदर चल रहा था पर बाहर क्या हो रहा था। जब बाहर इस तरह की खबरें गई कि सुखविंदर सिंह रंधावा को सबसे ज्यादा विधायकों का समर्थन हासिल है और वह मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो लोग उनके घर गुलदस्ता लेकर पहुंचने लगे। फिर जब मालूम पड़ा कि ऐसा नहीं है तो लोग सुनील जाखड़ के यहां पहुंचने लगे। इस बीच में फिर से विचार मंथन हुआ और मजे की बात यह है कि चरणजीत सिंह चन्नी खुद गुलदस्ता लेकर सुखविंदर रंधावा के घर के बाहर पहुँच चुके थे। तब उनको पता चला कि मुख्यमंत्री की रेस में उनका नाम आगे हो गया है। फिर मुख्यमंत्री के लिए चन्नी के नाम की घोषणा हो गई।
बागडोर सिर्फ पांच महीने के लिए!
चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने के फैसले के बारे में कहा गया कि पार्टी पहली बार किसी दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बना रही है। इसका अच्छा संदेश पंजाब ही नहीं बल्कि देश के बाकी राज्यों में भी जाएगा। दलित समुदाय प्रभावित होगा। पर हकीकत यह है कि यह सब कुछ होने वाला नहीं है। अगर दूर-दूर तक कहीं इसकी संभावना बनती भी, तो कांग्रेस नेता हरीश रावत के एक बयान से यह सब खत्म हो गया। हरीश रावत ने कहा कि 2022 का विधानसभा चुनाव हम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू के चेहरे को सामने रखकर लड़ेंगे। यानी शपथ हुई नहीं थी और उसके पहले ही यह बता दिया गया कि चरणजीत सिंह चन्नी कुछ समय के लिए काम चलाऊ मुख्यमंत्री होंगे। वह नाममात्र के मुख्यमंत्री हैं जो चुनाव में कांग्रेस के जीतने के बाद हटा दिए जाएंगे। यानी जिस चन्नी के नाम पर कांग्रेस इतना बड़ा दलित कार्ड खेलने का दावा कर रही थी, उसने खुद ही मान लिया कि वह केवल पांच महीने के लिए हैं। यानी सिद्धू की मुख्यमंत्री की सीट कोई और ना लेने पाए इसलिए उसे सुरक्षित रखने के लिए चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया गया है।
कई हिस्सों में बंटे दलित
पंजाब की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि वहां दलित समुदाय कई हिस्सों में बटा हुआ है। उसमें एकता कभी नहीं हो पाई- और हो भी नहीं सकती क्योंकि सब की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं अलग हैं। राजनीतिक और सामाजिक व्यवहार अलग हैं। यही कारण है कि काशीराम जो पंजाब के थे और इतने बड़े दलित नेता थे- और उनके बाद मायावती जो चार बार उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं- पंजाब में कभी अपना कोई जनाधार खड़ा नहीं कर पाए। दलितों का अलग अलग गुटों में बंटा होने की वजह से ही 32 फ़ीसदी आबादी होते हुए भी दलित समुदाय कभी पंजाब में राजनीतिक रूप से अपनी कोई मजबूत उपस्थिति दर्ज नहीं कर पाया। अगर दलित समुदाय ने राजनीतिक रूप से प्रयास किया होता तो पंजाब में दशकों तक एक के बाद एक जट सिख मुख्यमंत्री नहीं बनते, जिनका राज्य की कुल आबादी में हिस्सा लगभग 19 फ़ीसदी है। अब यह तो साफ है कि कांग्रेस के इस एक कदम- यानी चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने से- इसकी उम्मीद नहीं थी कि दलित उसके साथ आ जाएंगे। और अगर कुछ उम्मीद थी भी तो वह कांग्रेस ने खुद ही खत्म कर दी।
भानुमति का कुनबा
हरीश रावत के सिद्धू को विधानसभा चुनाव में पार्टी की चेहरा बनाने संबंधी बयान पर सबसे पहला हमला किया सुनील जाखड़ ने। उन्होंने कहा कि यह तो मुख्यमंत्री की गरिमा घटाने वाला काम है। मुख्यमंत्री के अधिकारों को कम करके दिखाने के लिए हरीश रावत ने यह बयान दिया है। अब सुनील जाखड़ को समझ में आ गया कि उन्होंने कैप्टन के खिलाफ जाकर सिद्धू के साथ जो दोस्ती कर ली थी- उसके बदले सिद्धू ने उनके साथ क्या किया। सुखजिंदर सिंह रंधावा जट सिख के रूप में उप मुख्यमंत्री बन गए और ओपी सोनी को बतौर हिंदू उप मुख्यमंत्री बनाया गया। एक मुख्यमंत्री, दो उप मुख्यमंत्री, एक प्रदेश पार्टी अध्यक्ष, चार कार्यकारी अध्यक्ष- दिलचस्प है कि इस भानुमति के कुनबे के आधार पर कांग्रेस विधानसभा चुनाव जीतना चाहती है।
जट सिक्ख का अपमान
कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पहला कार्ड नेशनलिस्ट खेला। तो दूसरा कार्ड विक्टिम का खेला। उन्होंने कहा कि मुझको अपमानित किया गया। यहां ‘मुझको’ से कैप्टन का आशय एक पूर्व फौजी और जट सिक्ख से था। वह व्यक्ति- जो इस समय पंजाब में जट सिक्खों का सबसे बड़ा और सम्मानित नेता है- उसका अपमान किया गया। यह अपमान किसने किया? तो सिद्धू तो मोहरा है- उनका अपमान किया पार्टी हाईकमान यानी गांधी परिवार ने। कैप्टन बता रहे हैं कि एक जट सिक्ख का अपमान करके कांग्रेस पार्टी जट सिक्खों के वोट लेना चाहती है। कैप्टन की इस अपील का कितना असर होगा- कहा नहीं जा सकता। लेकिन कोई असर नहीं होगा- यह भी नहीं कहा जा सकता।
राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं
अब कैप्टन का तीसरा दांव देखिए। उन्होंने कहा कि मैं कांग्रेस में हूं, लेकिन ऑप्शंस (विकल्प) खुले हुए हैं। एक इंटरव्यू में कैप्टन अमरिंदर से पूछा गया कि आपके सामने दो-तीन विकल्प हैं। पहला विकल्प- आप कांग्रेस पर बने रहें और लड़ाई लड़ें या चुप हो जाएं। दूसरा विकल्प- अपनी पार्टी बनाएं। तीसरा विकल्प- अकाली दल या बीजेपी के साथ समझौता कर लें। इस पर कैप्टन ने कहा कि अभी मैंने कुछ तय नहीं किया है। अपने साथियों के साथ बैठक करके तय करूंगा। हालांकि अकाली दल के बारे में उन्होंने साफ़ कहा कि अकाली दल के साथ जाने का तो कोई सवाल ही नहीं है। बीजेपी के बारे में उन्होंने यह बात नहीं कही। हां, बीजेपी में जाने के बारे में भी कुछ नहीं कहा… लेकिन बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे- यह भी नहीं कहा। कैप्टन और बीजेपी का साथ हो सकता है लेकिन उसमें किसान आंदोलन पर कैप्टन के स्टैंड को लेकर दिक्कत आ गई है। किसान आंदोलन के नाम पर कैप्टन ने जिस तरह से बीजेपी और केंद्र सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख दिखाया, आंदोलन का समर्थन किया और आंदोलन करने वालों को दिल्ली भेजा- उसके बाद इतने कम समय में अपने स्टैंड पर पुनर्विचार करना दोनों ही पक्षों के लिए बहुत मुश्किल काम है। लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। कल के दुश्मन आज दोस्त हो जाते हैं और आज के दोस्त कल दुश्मन हो जाते हैं। ऐसे में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि भविष्य में कैप्टन अमरिंदर सिंह और बीजेपी में कोई तालमेल हो सकता है।
गांधी परिवार का बड़ा दांव
पंजाब की राजनीति में गांधी परिवार ने जो बड़ा दांव चलने की कोशिश की थी वह फिलहाल सफल होता दिख नहीं रहा है। कैप्टन को हटाने के कारणों में कहा गया कि वह अलोकप्रिय हो गए हैं, उनकी सरकार जो वादे करके आई थी उन्हें पूरा नहीं किया, सरकार में भ्रष्टाचार है, कैप्टन किसी से मिलते नहीं, किसी की सुनते नहीं। एक बार मान लिया जाए कि ये सब बातें सही हैं। लेकिन आज से छह महीने पहले चाहे कांग्रेस का समर्थक रहा हो या विरोधी- बुद्धिजीवी रहे हों या पत्रकार- सब इस एक बात पर सहमत है थे कि अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का आना लगभग तय है। कैप्टन में ये सब खामियां तो उस समय भी थीं, तब कैसे कांग्रेस का आना तय माना जा रहा था। और आज अचानक कैसे सर्वे आने लगा और फीडबैक मिलने लगा कि कैप्टन के नेतृत्व में चुनाव नहीं जीता जा सकता। पिछले छह महीने में ऐसा क्या हुआ? छह महीने में केवल एक ही चीज है हुई। गांधी परिवार ने सिद्धू को कैप्टन के पीछे लगा दिया। सिद्धू को कैप्टन के पीछे इसलिए लगाया क्योंकि उनको सिद्धू से ज्यादा अपने से मतलब था। उनको हाईकमान की अथॉरिटी को स्थापित कराना था। उनको यह बताना था कि हाईकमान अभी ताकतवर है और अपने मन मुताबिक फैसले करवा सकता है। पहले कैप्टन को अपमानित करना शुरू किया। सिद्धू से उनके खिलाफ बयान दिलवाते रहे। फिर एक कमेटी बना दी जिसके सामने कैप्टन को दो-दो बार पेश होना पड़ा। उसके बाद कैप्टन को दिल्ली दरबार में हाजिरी देनी पड़ी। फिर सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया। अध्यक्ष बनने के बाद भी सिद्धू का रवैया नहीं बदला और वह कैप्टन सरकार के खिलाफ बयानबाजी करते रहे।
स्ट्रैटेजिक रिट्रीट
जब शनिवार को कैप्टन को बताए बगैर कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई गई तो उन्होंने समझ लिया कि अब मुझको यह लड़ाई दूसरे प्रकार से लड़नी पड़ेगी। कैप्टन फौजी आदमी हैं। फौज में एक रणनीति होती है स्ट्रैटेजिक रिट्रीट। अगर आपका मोर्चा कमजोर पड़ रहा है तो पीछे हट कर अपने पीछे वाले मोर्चे को मजबूत कीजिए और वहां से लड़ाई कीजिए। कैप्टन वही कर रहे हैं। वह सफल होंगे या असफल होंगे- यह किसी को नहीं मालूम, लेकिन पंजाब का चुनाव जो एक समय बिल्कुल कांग्रेस के पक्ष में जाता हुआ लग रहा था, अब वह स्थिति नहीं है।
पारी समाप्त नहीं हुई कैप्टन की
चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा यानी दलित कार्ड खेलने से ऐसा लग रहा था कि फिर से कांग्रेस को चुनाव में बढ़त मिल जाएगी- वह कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े और हाईकमान की गलत नीतियों के कारण फिर से मुश्किल में पड़ गया है। चुनाव पूरी तरह से खुला हुआ है। कांग्रेस पार्टी तो गिर रही है लेकिन अकाली दल उठ नहीं रहा है और आम आदमी पार्टी पर किसी को भरोसा नहीं हो रहा। बीजेपी के स्थिति क्या होगी- अभी कुछ स्पष्ट नहीं है। यह माना जा रहा है कि बीजेपी के भी हाईकमान ने कुछ ना कुछ तो सोच रखा होगा, लेकिन वह क्या है अभी बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं है। कैप्टन मुख्यमंत्री पद से भले हट गए हों लेकिन उनकी पारी समाप्त नहीं हुई है। कम से कम मार्च 2022 तक तो नहीं खत्म होने वाली- उसके बाद का पता नहीं! पंजाब में क्या होगा- राजनीति किस करवट बैठेगी- आने वाले दिनों में इसका कुछ कुछ अंदाजा लगना शुरू होगा। तब तक के लिए इंतजार करते हैं।