अजय विद्युत ।
दीपावली पर हम लक्ष्मी की पूजा करते हैं, दीया बालते हैं। दीयों की कतार से अमावस की रात रोशनी होती है, पर वह कुछ देर ही टिकती है। लेकिन ध्यान का दीया एक बार जल जाए किसी व्यक्ति में, तो हजारों हजार मनुष्यों के जीवन में प्रकाश बन जाता है। भारतीय अध्यात्म आकाश के सशक्त हस्ताक्षर ओशो, जे. कृष्णमूर्ति और श्रीश्री रविशंकर ध्यान से अपनी जिंदगी दिव्य और भव्य बनाने के कुछ सूत्र हमें बताने वाले हैं।
हर तरफ तनाव, असुरक्षा, आपाधापी में फंसा जीवन… ऐसे में एकाएक ‘ध्यान’ की मांग काफी बढ़ गई है। व्यक्ति को अपनी तमाम मुसीबतों की एक कारगर दवा के रूप में वह नजर आने लगा है। इस पृथ्वी पर बुद्ध की विदा होते समय अंतिम संदेश था- अपने दीये खुद बनो। बुद्ध व्यक्ति को जिस दीये की ओर इशारा कर गए हैं, वह ध्यान का दीया है। एक जगह बुद्ध से जब पूछा जाता है कि ध्यान को प्राप्त व्यक्ति के जीवन में क्या क्रांति घटती है, तो बुद्ध कहते हैं- ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में दुख नहीं आता।
अनूठी युक्ति
यह अति महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि हम जैसे जो अभ्यास के पहले अध्याय में हैं, वे भी जानते हैं ध्यान का न तो सुख से कोई मतलब है, न दुख से। ध्यान को आनंद की ऐसी अवस्था माना जाता है जहां न सुख रह जाता है, न दुख। तो फिर बुद्ध ने यह क्यों कहा कि ध्यानी कभी दुखी नहीं हो सकता। दरअसल संसार की यात्रा, दुख की यात्रा है। कमोबेश हर व्यक्ति के जीवन में दुख है। वह उससे निजात पाना चाहता है। अब अगर उसे अपने दुख से उबरने का आश्वासन मिल जाए, तो शायद वह ध्यान को राजी हो सके। चूंकि बुद्ध का तो जीवन ही प्राप्त किए हुए प्रकाश को जन-जन तक फैलाना था, इसलिए उन्होंने इस अनूठी युक्ति का सहारा लिया और कहा कि ध्यान को प्राप्त व्यक्ति कभी दुखी नहीं रहता। यूं देखें तो बुद्ध ने जिस समाज को संबोधित किया था, वह समाज आज का समाज है। हमने-आपने बहुत सुना है ध्यान के बारे में। आजकल हर तरफ तनाव, असुरक्षा, आपाधापी में फंसा जीवन… ऐसे में एकाएक ‘ध्यान’ की मांग काफी बढ़ गई है। व्यक्ति को अपनी तमाम मुसीबतों की एक कारगर दवा के रूप में वह नजर आने लगा है।
लेकिन मुश्किल यह है कि ध्यान के बारे में आपको बताएं कैसे? मौन की, आनंद की कोई क्या व्याख्या करेगा? भक्ति की व्याख्या हो सकती है, प्रेम की व्याख्या हो सकती है, सुख की व्याख्या हो सकती है, दुख की व्याख्या हो सकती है… काफी लम्बी-लम्बी व्याख्याएं हो सकती हैं, तमाम कहानियां सुनाई जा सकती हैं, सिद्धांत दिए जा सकते हैं। लेकिन मौन के संबंध में, ध्यान के संबंध में, आनंद के संबंध में… कैसे कहें। यह परेशानी बुद्ध के लिए भी रही, और ओशो, जे. कृष्णमूर्ति, श्री श्री रविशंकर, सद्गुरु जग्गी वासुदेव के लिए भी।
थोड़ा गलत, थोड़ा सही
पर फिर भी सबको कुछ न कुछ बोलना ही पड़ा। मौन के बारे में बताने के लिए भी शब्दों का सहारा लेना ही पड़ता है। शायद थोड़ा सा रस जग जाए किसी में और वह यात्रा पर निकल सके। अब जैसे किसी ने सोना न देखा हो और उसे सोने के बारे में बताना हो तो किसी ऐसी धातु या वस्तु से उपमा देकर समझाना पड़ेगा जो उसकी देखी-भाली हो। ताकि वह अपना कोई सूत्र उससे जोड़ सके। वह बताना थोड़ा गलत होगा, थोड़ा सही। पूरी की पूरी सटीक व्याख्या तो नहीं होगी, फिर भी बोलना पड़ेगा। सभी संतों ने ध्यान के बारे में भी यही किया है। इसलिए उनमें हमें विरोधाभास भी मिल सकता है। पर यहां विरोधाभासी चीजें जो हमें दिख रही हैं, कहीं गहरे वे भी एक-दूसरे की पूरक हैं।
ध्यान सीधी छलांग
कुछ साल पहले ऋषिकेश में श्रीश्री रविशंकर जी के सान्निध्य में था। उनसे पूछा- गुरुजी, ध्यान करने के लिए क्या करना पड़ेगा।
गुरुजी मुस्कुराए- तुम्हें कुछ भी करना पड़े ऐसा कोई काम मैं तुम्हें बताऊंगा ही नहीं।
मुझे लगा वह टाल रहे हैं- गुरुजी, मैं ध्यान करना चाहता हूं।
‘हां, बैठ जाना। और तीन बातों पर ध्यान देना। 1-मैं कुछ भी नहीं हूं, 2-मैं कुछ भी नहीं करूंगा, और 3-मैं कुछ भी नहीं करना चाहता। बस, इतने से काम हो जाएगा।’ इतना कहकर गुरुजी उठकर चल दिए।
सच में ध्यान की कोई कहानी नहीं है। प्रेम की, भक्ति की कहानी है, यात्रा है और वह भी अंतत: ध्यान तक पहुंचा देती है। लेकिन अंत में। ध्यान सीधी छलांग है। ध्यान बड़ा दुस्साहस मांगता है- अंधेरे में कूद जाने का। जीवन के अंधेरों से लड़ना है तो ध्यान का दीया ही एकमात्र जरिया है आज के दौर में। भक्ति, प्रेम उन सीधे-सच्चे लोगों की सीढ़ी है जिनका हृदय तरल है, जो भोले हैं। लेकिन बुद्धि के इस युग में तो व्यक्ति की बुद्धि के पार ही अमृत कलश मिल सकेगा। और बुद्धि के पार ले जाने का साधन ध्यान ही है। यही जीवन को जगमग कर सकता है। आइए मनीषियों के चरणों में बैठकर जानते हैं कि हम कैसे अपने जीवन को ध्यान के प्रकाश से सदा के लिए प्रकाशित कर सकते हैं।
जो ध्यान बुद्ध ने किया, वही आपको कराता हूं -ओशो
विपस्सना ध्यान की सरलतम विधि है। बुद्ध विपस्सना के द्वारा ही बुद्धत्व को उपलब्ध हुए थे। और विपस्सना द्वारा जितने लोग उपलब्ध हुए हैं, उतने और किसी विधि से नहीं हुए। विपस्सना विधियों की विधि है। और बहुत सी विधियां हैं, लेकिन उनसे बहुत कम लोगों को मदद मिली है। विपस्सना से हजारों लोगों की सहायता हुई है।
यह बहुत सरल विधि है। यह योग की भांति नहीं है। योग कठिन है, दूभर है, जटिल है। तुम्हें कई प्रकार से खुद को सताना पड़ता है। लेकिन योग मन को आकर्षित करता है। विपस्सना इतनी सरल है कि उस ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं जाता। विपस्सना को पहली बार देखोगे तो तुम्हें शक पैदा होगा, इसे ध्यान कहें या नहीं। न कोई आसन है, न प्राणायाम है। बिलकुल सरल घटना—सांस आ रही है, जा रही है, उसे देखना बस इतना ही।
आप विचारों को भी देख सकते हैं
श्वास-उच्छवास बिलकुल सरल हों। उनमें सिर्फ एक तत्व जोड़ना है- होश। होश के प्रविष्ट होते ही सारे चमत्कार घटते हैं। अगर तुम अपनी श्वास को देख सको तो विचारों को भी देख सकते हो। यह भी बुद्ध का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने श्वास और विचार का संबंध खोज लिया। श्वास विचार का शारीरिक हिस्सा है और विचार शरीर का मानसिक हिस्सा है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
विपस्सना ध्यान की तीन विधियां
विपस्सना ध्यान को तीन प्रकार से किया जा सकता है—तुम्हें कौन सी विधि सबसे ठीक बैठती है, इसका तुम चुनाव कर सकते हो।
पहली विधि
अपने कृत्यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने हृदय के प्रति सजगता। चलो, तो होश के साथ चलो, हाथ हिलाओ तो होश से हिलाओ, यह जानते हुए कि तुम हाथ हिला रहे हो। तुम उसे बिना होश के यंत्र की भांति भी हिला सकते हो। तुम सुबह सैर पर निकलते हो, तुम अपने पैरों के प्रति सजग हुए बिना भी चल सकते हो।
अपने शरीर की गतिविधियों के प्रति सजग रहो। खाते समय, उन गतिविधियों के प्रति सजग रहो जो खाने के लिए जरूरी होती हैं। नहाते समय जो शीतलता तुम्हें मिल रही है। जो पानी तुम पर गिर रहा है। और जो अपूर्व आनंद उससे मिल रहा है, उस सब के प्रति सजग रहो—बस सजग हो रहो। यह जागरूकता की दशा में नहीं होना चाहिए।
तुम्हारे मन के परदे पर जो भी विचार गुजरें बस उसके दृष्टा बने रहो। तुम्हारे हृदय के परदे पर से जो भी भाव गुजरें, बस साक्षी बने रहो। उसमें उलझो मत, तादात्म्य मत बनाओ, मूल्यांकन मत करो कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है। वह तुम्हारे ध्यान का अंग नहीं है।
दूसरी विधि
दूसरी विधि है श्वास की। अपनी श्वास के प्रति सजग होना। जैसे ही श्वास भीतर जाती है तुम्हारा पेट ऊपर उठने लगता है, और जब श्वास बाहर जाती है तो पेट फिर से नीचे बैठने लगता है। तो दूसरी विधि है पेट के प्रति, उसके उठने और गिरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के उठने और गिरने का बोध हो। पेट जीवन स्रोत के सबसे निकट है। क्योंकि बच्चा पेट में मां की नाभि से जुड़ा होता है। नाभि के पीछे उसके जीवन को स्रोत है। तो जब तुम्हारा पेट उठता है, तो यह वास्तव में जीवन ऊर्जा है, जीवन की धारा है जो हर श्वास के साथ ऊपर उठ रही है। और नीचे गिर रही है। यह विधि कठिन नहीं है। शायद ज्यादा सरल है क्योंकि यह एक सीधी विधि है।
पहली विधि में तुम्हें अपने शरीर के प्रति सजग होना है, मन के प्रति सजग होना है। अपने भावों, भाव दशाओं के प्रति सजग होना है। तो इसमें तीन चरण हैं। दूसरी विधि में एक ही चरण है। बस पेट ऊपर और नीचे जा रहा है। और परिणाम एक ही है। जैसे-जैसे तुम पेट के प्रति सजग होते जाते हो, मन शांत हो जाता है, हृदय शांत हो जाता है। भाव दशाएं मिट जाती हैं।
तीसरी विधि
जब श्वास भीतर प्रवेश करने लगे, जब श्वास तुम्हारे नासापुटों से भीतर जाने लगे तभी उसके पति सजग हो जाना है।
उस दूसरी अति पर उसे अनुभव करो। पेट से दूसरी अति पर, नासापुट पर श्वास का स्पर्श अनुभव करो। भीतर जाती हई श्वास तुम्हारे नासापुटों को एक प्रकार की शीतलता देती है। फिर श्वास बाहर जाती है… श्वास भीतर आई, श्वास बाहर गई।
ये तीन ढंग हैं। कोई भी एक काम देगा। और यदि तुम दो विधियां एक साथ करना चाहो, तो दो विधियां एक साथ कर सकते हो। फिर प्रयास ओर सघन हो जाएगा। यदि तुम तीनों विधियों को एक साथ करना चाहो, तो तीनों विधियों को एक साथ कर सकते हो। फिर संभावनाएं तीव्रतर होंगी। लेकिन यह सब तुम पर निर्भर करता है—जो भी तुम्हें सरल लगे।
स्मरण रखो- जो सरल है वह सही है।
योग्य-अयोग्य दोनों के लिए जरूरी है ध्यान : श्रीश्री रविशंकर
आपने कभी गौर किया है कि जब आप चलते हैं तो एक पांव जमीन से छूता है और दूसरा आगे बढ़ता है। यदि आपका पांव एक ही जगह जमीन में धंस जाए, तो आप वहीं खड़े रह जाएंगे, प्रगति रुक जाएगी जीवन में। इसी प्रकार रहो संसार में लेकिन इसे मन में उठाकर नहीं रखो। तभी आगे बढ़ पाओगे। इससे मुक्त हो पाओगे।
तीन तरह के आकाश होते हैं, भूताकाश, चित्ताकाश, चिदाकाश। चित्ताकाश में तुम मन में किसी की कल्पना करके बैठोगे तो उस कल्पना की एक दुनिया बना लोगे। किसी मूर्ति या चित्र के बारे में सोच-सोचकर वैसा ही तुम्हारे मन में भी प्रकट होने लगेगा, पर यह बड़ी बात नहीं है। थोड़ी देर के लिए तुम्हारा मन भी शांत हो जायेगा किन्तु उससे तृप्ति नहीं होगी।
सहज है सब
तृप्ति अपनी आत्मा में, अन्तरात्मा की गहराई में उतरने पर ही होगी, जहां सब नाम रूप शांत हो जाते हैं और यह सब ध्यान और मौन से ही संभव है। तुम्हारे अन्दर चेतना में जो एक उत्साह, एक शक्ति जागृत होती है कि जीवन में खाने और सोने के अलावा कुछ और भी है… और यह जो ‘कुछ और’ है, मुझे जीवन में चाहिए। यह इच्छा ही कुंडलिनी शक्ति है. आगे चलकर इसके अलग-अलग रूप होते हैं जो आन्तरिक मौन व शांत भाव में बैठकर ही समझ में आते हैं और यह कठिन नहीं है। मीरा बाई ने गाया है ‘सहज मिले अविनाशी’ यानी सहज है सब।
यह प्रेम से संभव है। जहां प्रेम हो जाएगा, वहीं मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। मान लीजिए, आपको अपने बच्चों की याद आने लगे तो उनके ध्यान में एकाग्रता आ जाती है कि नहीं? किन्तु हम यहां आसक्ति नहीं, प्रेम की बात कह रहे हैं। दूसरी तरफ यदि किसी वस्तु, परिस्थिति या व्यक्ति के साथ आपका प्रेम जुड़ जाता है तो चिन्ता भी साथ आ जाती है। चिन्ता इसकी सूचक है कि आसक्ति सहित मन लगा है। एकाग्रता तो आ गई किन्तु शांति नहीं आयी। श्वास पर ध्यान देने से, प्राणायाम करने से, ध्यान में बैठने से, यह मन अपने आप शांत होने लगता है।
थके-मारे तुम कुछ नहीं कर पाओगे
जो जीवन की आपाधापी से थक गये हैं, उनके लिये मैं कहूँगा कि आप ध्यान करो। तुम आ जाओ। 3-4 दिन के लिए मेरे पास बैठो, मौन में चले जाओ। थके-मारे तुम कुछ भी नहीं कर पाओगे। इसलिए जब थक जाते हो, अन्दर जाओ- अंतमुर्खी सदा सुखी। जो अन्दर झांकता है, थोड़ी देर विश्राम करता है, वह हमेशा सुखी रहता है। इतनी एनर्जी मिलती है, इतनी शक्ति प्राप्त होती है, बल प्राप्त होता है, योग्यता प्राप्त होती है। अयोग्य व्यक्ति के लिए भी ध्यान करना बहुत आवश्यक है ताकि वह योग्य बन जाए और योग्य व्यक्ति को भी ध्यान करना जरूरी है ताकि योग्यता बनी रहे, जो हमारे में क्षमता है वह छूट ना जाए। इसलिए योग्य व्यक्ति को भी रोज ध्यान करना चाहिए। थोड़ी-थोड़ी देर बैठ कर ध्यान करो, मौन हो जाओ। तब अंदरूनी शक्ति बढ़ती है, तबियत ठीक रहती है, स्वास्थ्य ठीक रहता है, मन प्रसन्न होगा, बुद्धि तीक्ष्ण रहेगी, जीवन में खुशी पैदा होगी और जो हम इच्छा करते हैं वो काम सहजता से पूरा होने लगता है। इसलिए हर एक को थोड़ी-थोड़ी देर बैठकर योग और ध्यान का अभ्यास करना जरूरी है। ठीक है ना!
ध्यान क्या होता है : जे. कृष्णमूर्ति
ध्यान के नाम पर दुनियाभर में जो कुछ किया जाता है, वह ध्यान नहीं है। यानी कि कुछ शब्दों को बार-बार दोहराना, किसी विशेष आसन में बैठना, किसी विशेष ढंग से सांस लेना, बार-बार किसी श्लोक या मंत्र को दोहराना। ऐसा करने से मन जड़, मंद बन जाता है।
उस जड़ता के, उस मंदता के कारण मन चुप हो जाता है, और आप समझ लेते हैं कि आपका मौन सिद्ध हो गया है। इस प्रकार का ध्यान आत्म-सम्मोहन मात्र है। वह ध्यान है ही नहीं। ध्यान करने का वह अत्यंत विनाशकारी तरीका है।
सजगता की मांग
पर एक और भी ध्यान होता है जो आपसे सजगता की मांग करता है। इस बात की सजगता कि आप पत्नी से क्या कह रहे हैं, अपने पति से क्या कह रहे हैं, अपने बच्चों से क्या कह रहे हैं, आपके यदि नौकर हैं तो आप उनसे किस तरह बात करते हैं, अपने बॉस से आप किस तरह बात करते हैं- उस क्षण सजग रहिए। मन को एकाग्र मत कीजिए क्योंकि एकाग्रता एक बड़ी ही भद्दी चीज होती है। कोई भी स्कूल जाने वाला बच्चा वह कर सकता है क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे बाध्य किया जाता है। और आप समझ बैठे हैं कि अपने आप पर एकाग्र होने की जबरदस्ती करके आप कुछ शांति प्राप्त कर लेंगे। ऐसा बिल्कुल नहीं होगा।
एकाग्रता एक किस्म का बहिष्करण है। जब आप किसी चीज पर एकाग्र हो जाना चाहते हैं तब आप बहिष्कार कर रहे होते हैं। प्रतिरोध कर रहे होते हैं। अपनी अनचाही चीजों को दरकिनार कर रहे होते हैं। जबकि यदि आप सावधान होते हैं तो आप हर विचार, गतिविधि की ओर देख सकते हैं। फिर वहां व्यवधान नाम की कोई चीज नहीं होती और तभी ध्यान हो सकता है। तब ध्यान बड़ी अद्भुत चीज बन जाती है क्योंकि वह स्पष्टता ले आती है।
मौन से अनुशासन
ध्यान का अभिप्राय ही है स्पष्टता। फिर ध्यान मौन बन जाता है। और यह मौन ही जीवन को अनुशासित करने की प्रक्रिया बनता है। मौन को हासिल करने के लिए अपने आप को अनुशासित करने से कोई लाभ नहीं। जब आप हर शब्द के प्रति, हर इशारे के प्रति, जो कुछ आप कह रहे हैं, महसूस कर रहे हैं, उसके प्रति सावधान होते हैं बिना उसमें सुधार किए, तो उसमें से मौन उत्पन्न होता है। और उस मौन से अनुशासन आ जाता है। फिर उसमें प्रयास नहीं होता, होती है एक ऐसी गतिविधि जो समय के दायरे में नहीं है। और ऐसा व्यक्ति एक आनंदमय व्यक्ति होता है, वह शत्रुता नहीं पैदा करता, वह दुख नहीं ले आता।