-सत्यदेव त्रिपाठी
उस दिन एक पारिवारिक कार्य के सिलसिले में बिल्कुल नये व्यक्ति अमर मिश्र से सम्पर्क हुआ। बात-बात में पता लगा कि उनके पिता श्री मरजाद मिसिर 95 साल के हैं और अभी घर के पशुओं के लिए चारा काटने वाली मशीन में चारा लगाने का हल्का काम अमर को सौंप कर सामने से खींचने का कठिन काम खुद करते हैं। बस, मैं चल पड़ा।
मेरे घर से दसेक किमी. दक्षिण स्थित है गोडहरा बाजार- ज्योली से देवगाँव जाने वाली उस सड़क पर, जो आजमगढ़-इलाहाबाद और आजमगढ़-बनारस की सड़क को जोड़ती है। उसी गाँव के निवासी हैं मरजाद मिसिर। पता लगा कि पास के गाँव में हैं ठाकुर महातिम सिंह, जो 97 साल के हैं। दोनों में उम्र का जोड़ तो है, पर कोई होड़ नहीं। हाँ, पवस्त (इलाके) भर को इंतजार है कि इन दोनों में से उम्र का शतक कौन पूरा करता है, कौन नहीं! वैसे हमारे लोकजीवन में इस तरह के हम-उम्रों के बीच एक दूसरे से पहले न मरने की होड़ें भी चुहल के रूप में होती रही हैं। लेकिन मिसिरजी को देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शतक तो क्या वे एकाध दहाई, या फिर पाँचा और भी चल सकते हैं।
ए बाबू, आवा देखा…
गाँव के प्राय: बीच में स्थित घर के बाहर की उत्तर रुख वाली ओसारी के मध्य भाग में अमर ने हमें बिठाया। वहीं पूरब की तरफ मिसिरजी व उनकी मिसराइन कलावतीजी अपनी-अपनी खाट पर बैठे थे। अमर ने बुलाया- ए बाबू, आवा देखा ई लोग आपसे मिलै आयल हउएं। मिसिरजी तुरत वहाँ से चलकर हमारे पास आ गये- न लाठी-डंडा का सहारा और न ही चलने में लड़खड़ाहट। एक खाट पर पाँव ऊपर रखके पाल्थी मारके बैठ गये। कद के लम्बे और छोटी-छोटी सफेद दाढी-बाल व लम्बोतरे चेहरे वाले प्रसन्नमुख मरजादजी बाँह वाली खरीदी सफेद गंजी (बनियान) और धोती में बैठे काफी जँच रहे थे।
थोड़ी निराशा हुई यह सुनकर कि मिसिरजी सुनते नहीं- सारी इंद्रियों में सिर्फ कान ने ही दगा की है। बाकी तो आँखों ने अभी चश्मे तक का सहारा नहीं लिया है। काफी सारे दाँत भी साबुत हैं- सुर्ती खाने के बावजूद। घुटने-पैर यथावत सक्रिय। अमर ने बताया कि खुराक भी ठीक है- जीवन की गतिशीलता का प्रमाण। रहते फाकेमस्ती में हैं। और इस सेहत की संजीवनी है- दुग्ध-सेवन, जिसे पचा देती उनकी सक्रियता। मशीन में चारा बालने के साथ घर-दुआर के छोटे-मोटे काम कर ही लेते हैं। मिसिरजी के बचपन की पसन्द दूध की भरपूर सुलभता बनाये रखना बेटे अमर के जीवन का एक प्रमुख लक्ष्य है। यूँ दो बेटे उनके और हैं, जो अलग रहते हैं। बड़के वाले दिखे, जो उनसे भी बूढ़े-से लगे और और छोटे वाले मौजूद न थे। चार बेटियां अपने अपने-अपने घर सुखी व आबाद हैं तथा पिता से मिलने कभी-कभार आया करती हैं। मिसिरजी ने अब पिछले 10-12 सालों से आना-जाना बन्द कर दिया है।
यादों की सुई अटकी थी
ज्यों ही मिसिरजी हमारे पास वाली खाट पर आकर बैठे पोती और पोता (अमर के बच्चे) आकर दादा की गोद में समा गये। मिसिरजी उनको सहलाते-दुलराते, उनकी शरारतों पर बीच-बीच में झिड़कते-बरजते… हमसे बतियाते रहे। अब एक ही रास्ता था कि उन्हें सुनके ही जाना जाए, क्योंकि उनके सुनने जितने जोर से चिल्ला कर हम सारी बातें पूछ नहीं सकते थे और इशारे की जो भाषा वे दैनन्दिन की जरूरतों व कार्यों के लिए समझते हैं, उससे हम अनभिज्ञ हैं और उसमें हमारे सवाल व्यक्त हो नहीं सकते थे। शुक्र यह रहा कि कान की कमी जुबान पूरने लगती है- की क्षतिपूर्ति वाली मनोवैज्ञानिक सचाई के अपार धनी निकले मिसिरजी। सो, वे लगातार बोलते रहे- कहे को हाथों से बुझाते रहे, आँखों से अर्थाते रहे और हम कान पार के सुनते हुए महसूस करते रहे और हमसे बात करते हुए गाँव-पूर की व अपनी वर्तमान स्थितियां उनके हाशिए की जद में बिल्कुल नहीं आ रही थीं।
उनकी यादों की सुई अटकी थी अपने देश की गुलामी और उससे आजादी पाने वाले अतीत में। उन दिनों वे 25 साल के गबरू जवान रहे होंगे और मुम्बई की किसी मिल में काम करते थे। किसी मारपीट, खून-खराबा के चलते छोड़ आये। आजादी मिलने के वक़्त अगस्त महीने में वे मुम्बई में थे। वापस जाते हुए अंग्रेजों का बेड़ा शायद देखा या आँखों देखा हाल सुना था। अब उसके लिए उनकी बातूनी मेधा ने एक कथा गढ़ ली है। किंतु उसमें से उनकी मूल चेतना साफ-साफ वैसे ही झाँक भी रही है। इसे मिसिरजी ने बडी खाँटी भोजपुरी में रस ले-लेकर सुनाया- काश, उसी भाषा में लिखने की छूट होती!
हिन्दुस्तान को माटी में मिलाय के छोड़ दिया
‘इहाँ का था? जो पइसा आता अपने देश का, सब उहाँ (हाथ उठाकर पश्चिम की ओर इशारा) चला जाता- विलायत। हिन्दुस्तान को माटी में मिलाय के छोड़ दिया था। जेतना बड़ा अफीसर थे, सब वहीं के- फिरंगी। हमारे लोग तो बस, इधर-उधर के पढ़ावै-ओढ़ावै के काम करते… बस। उहाँ सब कुर्सी पर राजा बैठैं, हिन्दुस्तान के कुर्सी खाली रहे। केहू ना बैठै वह पर। बाघ और बकरी के पानी पियाय के छोड़ दिया गवरमेंट।
अपना राज आया, तो सब कुछ हो गया। बस, उहै पाँच-छह लोग रहे- बड़े-बड़े। वहीं पढ़ने गये थे विलायत में (अन्दाजा लगाइए पढ़ने वालों का)। उहाँ रहते-रहते विलायत के राजा के लड़िकन से बहुत अच्छी पटरी (दोस्ती) हो गयी। तो इन लोगों ने एक दिन कहा- हिन्दुस्तान का राज हमें दे दो। उसने कहा, अभी तो हमसे बड़े लोग हैं। वे मरें, मुझे मिले, तो मैं दे दूँ।
बारिश बीतने तक रहने की मोहलत माँगी
तब ये पांचों लोग एक एतना बड़ा कुछ (अढया जैसा) रोज घिसने लगे। बस, एक मरा, दूसरा मरा, तीसरा मरा। फिर उसको मिल गया हिन्दुस्तान का राज। तब इन लोगों ने कहा- अब दे दो। देने के नाम पर सर पीटने लगा- इतना बड़ा राज कैसे दे दूँ? तो उसकी मेहरिया ने कहा- ‘किस मुँह से वादा किया था? किया… तो अब दे दो।’ बस, तुरंत हुकुम हो गया कि हिन्दुस्तान छोड़कर लौट आओ। बरसात थी (याद करें 15 अगस्त)। बहुत बड़ा जहाज था। बहुत सामान लदा था। लहरें उलटने-पलटने लगीं। उन सबों ने बारिश बीतने तक रहने की मोहलत माँगी, लेकिन नहीं दी उन पढ़वैयों ने। उन्हें जैसे-तैसे जाना पड़ा। तब पण्डितजी को तिलक किया गया- और किसी को नहीं।
अब तक पोता गोद में सो चुका था, पोती चकबक देखे जा रही थी। मुझे रेणुजी के पात्र याद आये, जो मानते हैं कि गांधीजी के सामने अंग्रेजों की सेना और तोपें फेल हो गयीं। अत: उन्हें जाना पड़ा। और अब मिसिरजी की कथा सुनकर मन हुआ कि सत्यनारायण की कथा के बाद की तरह जोर से बोला जाए- सियावर रामचंद्र की- जय, पवन-सुत हनूमान की- जय।
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