सभी पर तिक्का की उद्भावना का रासायनिक असर

सत्यदेव त्रिपाठी ।

दूसरे दिन सामने के घर, जो कल्पनाजी का मायका है, से उनकी बड़ी बहन अर्पिता बच्ची को देखने आयीं। वह भी पशु-पक्षियों की दीवानी है, पर बस खेलने, लाड़ लड़ाने तक ही। खिलाना-पिलाना, देख-भाल करना उनके बस का कतई नहीं। लेकिन बच्ची को गोद में लिये-लिये खेलाते हुए उन्होंने अचानक ही अनोखी उद्भावना की– ‘यह तो कोका है, जो अपने घर में बच्ची बनकर आयी है’।


पुनर्जन्म की बात को विनोद समझा

बात यह थी कि कल्पना के भाई-बहनों में सबसे बड़ी ‘कोकिला बेन’ का थोड़े ही दिनों पहले देहांत हुआ था। अकुल ने बचपन में अपनी उस बड़ी मौसी को ‘कोका मासी’ और इस छोटी मौंसी अर्पिता को उसके निक नेम ‘लतिका’ से ‘तिक्का मासी’ नाम दिया और ये दोनों हम सबके लिए ‘कोका’ व ‘तिक्का’ हो गयीं। हमने तब कोका के इस पुनर्जन्म की बात को तिक्का का विनोद समझा, लेकिन यह उसका विश्वास निकला। उसकी बात से मुझे भी याद आया कि इसी वक़्त मेरी माँ भी तो गयी है। लेकिन तुरत ख्याल बदला- पुनर्जन्म की बात को सच भी मान लिया जाये, तो उसी थियरी के अनुसार भी माँ और कोका में से किसी को भी कोई ब्रह्मा बिल्ली का जन्म देने की हिम्मत नहीं कर सकता। कहीं पढ़ा था- ‘अ मैन इज़ बॉर्न अकॉर्डिंग टु हिज़ पास्ट (पूर्वजन्म) थाट्स ऐण्ड ऐक्शन्स… ऐण्ड हिज़ बॉडी इज़ द पार्ट ऑफ हिज़ कर्म’। और कोका तो दुनिया की प्राणी थी ही नहीं। किसी का बुरा किया क्या, सोचा तक नहीं। उससे तो पैरों तले दबके के जीव-जंतु तक न मरे होंगे। फिर उसे तो मोक्ष मिला ही मिला होगा। और माँ इतनी पगी रही दुनिया में… इतनी सेवा की सबकी… इतना-इतना सिर्फ किया सबके लिए, किसी से कुछ न चाहा, न पाया, न लिया। सो, इहलोक में तो कदापि नहीं आयेगी वह भी। यूँ तो अकुल-कल्पना दोनों अत्यंत ज्योतिषमय हैं, लेकिन पुनर्जन्म वग़ैरह में वैसा विश्वास रखने जितने रूढ़िवादी भी नहीं। और में तो निरंकारी ही हूँ, लेकिन सभी पर तिक्का की इस उद्भावना का रासायनिक असर इतना जरूर हुआ कि बच्ची के लिए सबके मन में जाने-अनजाने एक अतिरिक्त अनुराग जाग उठा। बड़ी होने पर पहले के सभी पालतुओं की तरह बच्ची सामने वाले घर में जाती, तो इसी भाव के कारण तिक्का से अधिक आदर-तवज्जो पाती…। कुछ अच्छा बने घर में, तो हम भले न बुलाये जायें (यह उस वक़्त हमारे प्रति उसके मूड पर निर्भर होता है), हमारे पालतुओं को बुला-बुलाके या भेजके खिलाने की उसकी बड़ी अच्छी आदत है।

गोद में बैठने की जो आदत बनी

लेकिन मुझे तो माँ की भूमिका सचमुच ही निभानी क्या पड़ी, सहज भाव से आन पड़ी मेरे सर पर। उस लुंज-पुंज, कोमल-नाज़ुक को पहली बार की ही तरह गोद में बिठाकर रुई के फाहे से दूध पिलाने वाली प्रक्रिया तो बस, एकाध सप्ताह चली। फिर कटोरी में मुँह डालके पीने लगी, लेकिन गोद में बैठने की जो आदत बनी, वह आजीवन चली। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि उसके जीवन का सर्वाधिक समय मेरी गोद में बीता। मेरे विश्वविद्यालय रहने के समय के अलावा वह गोद में, हाथ पे या कन्धे पर ही रहती। जब शाम को मैं युनिवर्सिटी से आता, तो सड़क के किनारे वाले मुख्य द्वार के ठीक पास की चहारदीवारी पर बैठी इंतज़ार करती मिलती। उसे मेरे आने के सामान्य समय का सन्धान हो गया था। ऐसा होना शुरू होने के बाद जब भी कभी यूनिवर्सिटी के बाद कहीं जाने या फिल्म आदि देखने का कार्यक्रम बनता, मुझे बच्ची याद आ जाती कि वह इंतज़ार करती होगी और मैं प्राय: ऐसे कार्यक्रम टाल देता। लेकिन कभी अटाल्य हो जाता, तो चले जाने पर भी बार-बार याद आती रहती उसकी। और घर आके पता चलता कि अँधेरा हो जाने पर भी चहारदीवारी पर से आ नहीं रही थी- गोद में उठा के जबर्दस्ती लायी गयी है। लेकिन प्राय: तो मैं समय पर आ ही जाता। और ऑटो के रुकने के साथ ही उसकी ‘म्याऊँ-म्याऊँ’ की रट शुरू हो जाती। ज्यों ही ऑटो से निकल के गेट खोलता, कूदके कन्धे पे सवार हो जाती, फिर गोद में आ जाती। उधर म्याऊँ की रट जारी रहती– गोया दिन भर का हिसाब माँग रही हो या दिन भर घर न रहने का उलाहना दे रही हो। बच्ची के घर में ठीक से बसने-बसने तक उषा नामक नयी सेविका का आगमन हुआ और अपनी कर्मठता व व्यवहार-बुद्धि के बल मेरी अनुपस्थिति में बच्ची को खिलाने-पिलाने व देखरेख आदि सब करने का सारा जिम्मा उसने बिना सौंपे ही अनायास ले लिया। बच्ची की म्याऊँ-म्याऊँ का वह अलग ही अर्थ निकालती। इसमें वह अपने खिलाफ शिकायत का स्वर सुनती– ‘ई ओरहन देति हईं अंकल। आज खाति ना रहनी हैं या डब्बा गिराय देहले रहनी हैं, त इन्हैं डँटले रहली है’ (यह उलाहना दे रही है अंकल। आज खा नहीं रही थी या डब्बा गिरा दिया था, तो डाँटा था मैंने)। फिर बच्ची की तरफ तमाचा दिखा के लाड़ से धमकाती– ‘दे लेया ओरहन, बेहने जाये देया अंकल के, त मरबो करब” (दे लो उलाहना। जाने दो कल अंकल को, सचमुच मारूँगी भी)।

उसे मेरे हाथ पे से ही ख़ाना होता

खैर, घर में पहुँचने पर मुझे पानी के साथ जो भी (मीठा-बिस्किट-नमकीन आदि) दिया जाता, सबमें उसका हिस्सा होता… और यूँ नहीं कि खाने के लिए नीचे या उसकी कटोरी में डाल दिया जाये। तब तो वह उधर ताके भी न। उसे मेरे हाथ पे से ही ख़ाना होता। हथेली पर रखता और वह उसी पर से खाती। जिस दिन ‘मेंथी पुरी’ होती, गन्ध पाते ही पगला जाती। लगती कूदने-छरियाने कि कितनी जल्दी मिल जाये। दो-दो, तीन-तीन पुरियां खा जाती। अंत में डाँट के ही रोकना पड़ता। यूँ खाने में बहुत छिबिन (छूज़ी व अनमनी) थी। उसका समय पर ठीक से खा लेना ख़बर बन जाता। बस, दीवानी थी पेडिग्री (कैट फूड) की, जिसे खाने से बच्ची न कभी स्ंतुष्ट हुई, न ऊबी। शायद इसलिए कि ज्यादा देते न थे, क्योंकि वह गरिष्ठ होता। ज्यादा खा लेती, तो अपच्च हो जाता। उल्टियां करने लगती और बीमार हो जाती। एक बार सबको अपनी तरफ से गाफिल पाकर न जाने कैसे पेडिग्री का डब्बा खुला पा गयी या पाके खोल लिया था। इतना खा लिया कि तीन दिनों पेट फूला रहा, दस्त होती रही।

दवा पिलाना महाभारत की जंग लड़ने जैसा

बीमारी के दौरान बच्ची को दवा पिलाना उससे महाभारत की जंग लड़ने जैसा होता! मैं एक हाथ से आगे के दोनों पाँव पकड़ता व दूसरे हाथ से पीछे से गरदन आहिस्ता से दबाये रहता, उधर उषा पीछे के दोनों पाँव पकड़े रहती, तो बेटा ड्रॉप से दवा डालता… लेकिन इतने के बावजूद एक बार पिलाने में दो-तीन ड्रॉपर टूटते ही। हमें काफी खरोंचे लगतीं– खून निकलते, पर दूसरा उपाय न था। बस, यह कि दो बूँद के बदले एक बूँद भी पेट में चली जाती और छह के बदले तीन बार भी हो जाये, तो ठीक हो जाती थी– रोग-निवृत्ति (रिकवरी) की क्षमता अच्छी थी बच्ची की, तो ठीक जल्दी होती और बीमार कम होती। (जारी)


बच्ची : पिछले जनम की मनुहार नहीं तो कौन-1