गोविन्द सिंह।
डॉ सूर्यकान्त बाली (9 नवंबर, 1943 – 7 अप्रैल 2025) के निधन की खबर एक आघात की तरह आई। पिछले कई दिनों से सोच रहा था कि उनसे मिलने जाना है। नवभारत टाइम्स के रविवारीय संपादक राजेश मित्तल भी पीतमपुरा में ही रहते हैं। उनसे बाली जी के हाल चाल पता चलते रहते थे। उन्होंने ही पिछले दिनों बताया कि बाली जी अस्वस्थ हैं। बोले आपको याद करते हैं। इसलिए किसी दिन आइए, मिलने जाएँगे। लेकिन नहीं जा पाये और बाली जी चले गए।
बाली जी का परिवार 1947 में पाकिस्तान के मुलतान से भारत आया था। उनके पिताजी चंद्रकांत बाली हिन्दी-संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। साथ ही ज्योतिष में भी अच्छा-खासा दखल रखते थे। बाली जी का जन्म भी मुलतान में ही हो गया था। शायद वे दो-तीन साल के थे, जब भारत आए थे। उनका परिवार पाकिस्तान में ठीक-ठाक हैसियत वाला था। भारत में उनके परिवार को बहुत बाद में हिसार के पास 46 बीघा जमीन मिली थी। जब उनके पिताजी वहाँ गए तो पता चला कि उस जमीन पर किसी ने कब्जा कर लिया है। लेकिन शिक्षक का परिवार था, इसलिए दिल्ली में बस गया। सूर्यकांत बाली जी की शिक्षा-दीक्षा भारत में ही हुई। उन्होने भी अपने पिता की ही तरह संस्कृत में उच्च शिक्षा ग्रहण की और दिल्ली के रामजस कोलेज में शिक्षक बन गए। लेकिन वे संस्कृत के ही बन कर नहीं रह सके। उनकी हिन्दी बढ़िया थी। अंग्रेजी भी अच्छी लिख-पढ़ और बोल लेते थे। राजनीतिक विषयों पर उनकी गहरी पैठ थी।
राजनीतिक रूप से वे दक्षिणपंथ के करीब थे लेकिन कभी कट्टर नहीं रहे। कॉलेज में रहते वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में थे। लेकिन शायद संघ की शाखा में नहीं गए थे। ऐसा उन्होंने एक बार मुझे बताया था। कॉलेज में रहते हुए उन्होंने 1980 के आसपास अखबारों में लिखना शुरू किया। 1982 में जब नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बनकर राजेंद्र माथुर आए तो बाली जी की लेखनी को पंख लग गए। वे हर हफ्ते राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखने लगे। उनकी लेखनी की धार को देखते हुए ही राजेन्द्र माथुर उन्हें नवभारत टाईम्स में ले आए। शायद 1985 के आसपास। वे दिल्ली विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ कर स्थायी तौर पर नवभारत टाइम्स में सहायक संपादक बन गए। वे बहुत जल्दी अखबार के साँचे में ढल गए। पत्रकारिता में रम गए। आम तौर पर अन्य पेशों से अखबार में आने वाले लोग जल्दी यहाँ के जीवन में नहीं ढल पाते। लेकिन बाली जी को देखकर लगता ही नहीं था कि वे लगभग आधी जिंदगी प्राध्यापकी करके आए हैं। चूंकि उनकी दृष्टि स्पष्ट थी, इसलिए उनके पास विषयों और विचारों की कभी कमी नहीं रही। राष्ट्रीय विषयों पर उनकी कलम जबरदस्त चलती थी। भारत के पौराणिक आख्यानों पर आधारित उनका स्तंभ ‘भारत गाथा’ बहुत चर्चित हुआ। जो अब पुस्तकाकार में भी छप गया है।
मुझे उनके साथ 1990 से 1999 तक काम करने का मौका मिला। वे हमारे संपादक थे। पहले मैं रविवार्ता यानि नवभारत टाइम्स के रविवारीय परिशिष्ट का प्रभारी था। उनका स्तम्भ भारतगाथा मेरे सम्पादन में ही छपना शुरू हुआ। बाद में जब अखबार का कलेवर बदला तो उन्होने बुलाकर कहा, गोविंद जी मुझे मालूम है कि आपका मन रविवार्ता में बहुत लगता है, लेकिन अब जो स्वरूप उसका होने जा रहा है, उसमें आप फिट नहीं बैठेंगे। इसलिए आप संपादकीय पेज पर आ जाइए। मुझे इतवार को छपने वाला फोकस पेज मिल गया। दो साल बाद जब राजकिशोर जी गए तो मुझे संपादकीय पेज का प्रभारी बना दिया गया। इस दौरान उनका खूब स्नेह मिला। उन्होने आगे बढ़ने के बहुत मौके दिये। संपादकीय पेज पर मेरा कॉलम मीडिया प्रकाशित होने लगा।
वे कुछ अरसा टीवी में भी गए, जो उन्हें रास नहीं आया। बाद में वर्ष 2014 में उन्हें राष्ट्रीय शोध प्रोफेसर बनाया गया, जिसके तहत उन्हें सिर्फ पढ़ना और लिखना होता था। पिछले 10 साल वे स्वतंत्र लेखन में ही रत रहे। उनकी अनेक पुस्तकें आई हैं। जो ज़्यादातर भारत, भारतीयता और राष्ट्रीय मुद्दों पर हैं। निश्चय ही उनके निधन से राष्ट्रीय चिंतनधारा को बहुत क्षति पहुंची है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन, नयी दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर हैं)