प्रमोद जोशी।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी को हम सामान्य राजनीति, भ्रष्टाचार, न्याय-व्यवस्था और इससे जुड़े तमाम संदर्भों में देख सकते हैं। मेरी नज़र में यह मसला हमारी अधकचरी राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था की कटु-कथा है। इसमें भारत सरकार की संस्थाएं, सत्तारूढ़ और विरोधी दोनों तरह की पार्टियाँ और काफी हद तक देश की जनता जिम्मेदार है, जो धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय भावनाओं के वशीभूत है और सत्ता की राजनीति के हाथों में खेल रही है। भारत की राजनीति का यह महत्वपूर्ण दौर है, जिसमें खुशी की तुलना में नाखुशी के तत्व ज्यादा हैं।
आज सत्ता पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है, इसलिए आज की परिस्थिति के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार उसे ही मानना चाहिए, पर यह अधूरा दृष्टिकोण है। इस परिस्थिति के लिए हमारी समूची राजनीति जिम्मेदार है। बेशक इसमें शामिल काफी लोग ईमानदार भी हैं, पर वे इस राजनीति के संचालक नहीं हैं।
जाँच एजेंसियों की भूमिका
आज के इंडियन एक्सप्रेस में खबर है कि 2014 के बाद से 25 ऐसे राजनेता, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोपों में केंद्रीय एजेंसियों की जाँच चल रही थी, अपनी पार्टियाँ छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। इनमें दस कांग्रेस से, चार-चार शिवसेना और एनसीपी से, दो तेदेपा से और एक-एक सपा और वाईएसआर कांग्रेस से जुड़े थे। इनमें से 23 के मामलों में नेताओं को राहत मिल गई है। तीन मामले पूरी तरह बंद हो गए हैं और 20 ठप पड़े हैं।
इस सूची में वर्णित छह नेता इसबार के चुनाव के ठीक पहले अपनी पार्टियाँ छोड़कर आए हैं। इसके पहले इंडियन एक्सप्रेस ने 2022 में एक पड़ताल की थी, जिसमें बताया गया था कि 2014 के बाद से केंद्रीय एजेंसियों ने जिन राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई की है, उनमें 95 फीसदी विरोधी दलों से हैं। विरोधी दलों ने अब बीजेपी को ‘वॉशिंग मशीन’ कहना शुरू कर दिया है। इसके पहले 2009 में एक्सप्रेस की एक पड़ताल से पता लगा था कि कांग्रेस-नीत यूपीए के समय में सीबीआई ने किस तरह से बसपा की नेता मायावती और सपा के नेता मुलायम सिंह के खिलाफ जाँच का रुख बदल दिया था।
आज की एक्सप्रेस-कथा से पता यह भी लग रहा है कि ज्यादा बड़ी संख्या में ऐसे मामले महाराष्ट्र से जुड़े हैं। चूंकि यह खबर 2014 के बाद की कहानी कह रही है, इसलिए इससे पूरा परिदृश्य समझ में नहीं आएगा।
भ्रष्टाचार से लड़ाई
भ्रष्टाचार पर प्रहार हो, इससे अच्छी बात क्या होगी? पर जो तरीका इस समय अपनाया जा रहा है, वह पारदर्शी नहीं है और एकतरफा है। राजनीति का इस हद तक अनीति बनना गलत है। कोई भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की बात कहता है, तो अच्छा लगता है, पर यह लड़ाई एकतरफा नहीं हो सकती। दूसरी तरफ केवल बीजेपी को दोष देने से भी काम नहीं चलेगा। राजनीति में कदाचार 1947 के पहले से चल रहाा है। बेशक वह राष्ट्रीय आंदोलन था, पर केवल इसीलिए सब कुछ पवित्र नहीं मान लिया जाना चाहिए।
हमारी राजनीति पर गरीबी और समाजवाद का पानी चढ़ा है, पर पकड़ किसी और तबके की है। अब प्रत्याशी टिकट पाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने लगे हैं। आप गरीब हैं, तो चुनाव लड़ भी नहीं सकते। सन 2013 में समाचार एजेंसियों की खबर थी कि राज्य सभा के एक सदस्य ने कहा था, “…मुझे एक व्यक्ति ने बताया कि राज्य सभा की सीट 100 करोड़ रुपए में मिलती है।” बाद में उन्होंने इस बात को घुमा दिया, पर क्या यह बात पूरी तरह गलत थी?
2014 के लोकसभा चुनाव में चुने गए 543 सदस्यों में से 442 करोड़पति नेता थे। इनमें सबसे अमीर नेता के पास 683 करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति थी। 2019 में करोड़पति सदस्यों की संख्या 475 थी। इनमें 5 करोड़ से अधिक संपत्ति वाले सदस्यों की संख्या 266 थी। बात नेताओं की अमीरी की नहीं है, बल्कि बात यह है कि धीरे-धीरे राजनीति पर अमीरों और कुछ चुनींदा घरानों का कब्जा होता जा रहा है। यह केवल वंशवाद नहीं, यह शुद्ध अमीरवाद है।
राजनीतिक पाखंड
राजनीतिक पाखंड भी आज के नहीं हैं, इनकी पुरानी परंपरा है। स्वतंत्रता से पहले की। उसका विस्तार हुआ है और बेशर्मी को वैधता मिली है। स्वतंत्रता के पहले से लोग जानते थे कि उनके शासन का समय आ रहा है। यशपाल के ‘झूठा-सच’ और नागार्जुन के उपन्यासों में ऐसे तमाम पात्र और परिस्थितियाँ मिलेंगी, जिनसे राष्ट्रीय आंदोलन के पाखंड पर भी रोशनी पड़ती है। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिली, पद्म पुरस्कार भी।
अमीरी का कारखाना
बेशक उनमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी थे और हैं, जो वास्तव में संजीदगी के साथ आंदोलन से जुड़े थे, पर व्यापक रूप से राजनीति क्रमशः एलीटिस्ट होती गई है और नारे जनोन्मुखी। वह अमीरी का कारखाना बन गई है। यह उसका पाखंड है। सन 1952 में बनी पहली संसद के अनेक सदस्य साइकिलों पर चलते थे। केवल सांसद ही नहीं हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज भी साइकिल से चलते थे।
साठ के दशक तक राज्य सरकारों के मंत्री तक रिक्शों पर बैठे नजर आ जाते थे। धीरे-धीरे इस साइकिल ने प्रतीक रूप धारण किया। नब्बे के दशक में जब मुलायम सिंह ने साइकिल का चुनाव चिह्न तय किया, तो उसके पीछे प्रतीकात्मकता थी। सन 2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने अपनी साइकिल रैलियों के मार्फत ही जनता से संवाद किया था। बताते हैं कि उनकी साइकिल मर्सिडीज़ ब्रांड थी, जिसकी कीमत लाखों में होगी।
आम आदमी पार्टी
सन 2013 में आम आदमी पार्टी के गठन के समय इसे लेकर मेरी जो बहुत अच्छी धारणा नहीं थी, पर आज यह उससे भी खराब है। यह धारणा भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के दौरान ही बदलने लगी थी। पार्टी बनने के फौरन बाद तमाम भारतीयों की उम्मीदों को बल मिला। उन्हें ऐसा लगा कि कुछ नया हो सकता है। हालांकि केजरीवाल और उनके साथियों की नाटकीयता पर से मेरा विश्वास हट चुका था, पर लगा कि इनके साथ इतने किस्म के लोग जुड़ रहे हैं, तो संभव है कि किसी व्यवस्थागत परिवर्तन की लहर इनके दबाव में बने। पर ऐसा हुआ नहीं। आम आदमी पार्टी भी वैसी ही एक पार्टी साबित हुई, जैसी तमाम पार्टियाँ हैं।
जिस रात केजरीवाल की गिरफ्तारी हुई है, उसी दिन स्टेट बैंक ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स के पूरे विवरण चुनाव आयोग को सौंपे। शाम होने तक विवरण सामने आने लगे। अब आप केजरीवाल पर लगे आरोपों की रोशनी में बॉन्डों के तथ्यों को पढ़ें। क्या फर्क है दोनों में? राजनीतिक दलों के संचालन के लिए पैसा इस तरह वसूला जाएगा? इस सवाल का जवाब बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस समेत ज्यादातर विरोधी दलों को देना है। केवल कम्युनिस्ट पार्टियाँ कह सकती हैं कि हम इस खेल में शामिल नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने इस व्यवस्था का न केवल औपचारिक रूप से विरोध किया, बल्कि बैंक में ऐसा पैसा लेने के लिए एकाउंट भी नहीं खोले।
राजनीतिक भेदभाव
आम आदमी पार्टी के नेताओं को अन्यायपूर्ण तरीके से सजा नहीं दी जा सकती है, पर ज्यादातर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं इस दृष्टि से व्यक्त की गई हैं कि इस गिरफ्तारी से लोकसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा। जो कांग्रेस पार्टी कुछ समय पहले तक केजरीवाल की इसी मामले को लेकर भर्त्सना करती थी, वह आज उनके साथ खड़ी है। कुछ लोग मानते हैं कि देश में आपातकाल से भी खराब स्थिति है, फासिज्म है वगैरह। यह सब लफ्फाज़ी है।
अनुशासन और वैचारिक समझ के लिहाज से देश की कम्युनिस्ट पार्टियाँ शेष पार्टियों से कई मामलों में बेहतर हैं, पर राजनीतिक मुहावरों का इस्तेमाल करने में वे भी पीछे नहीं हैं। वे देश के बड़े तबके से खुद को जोड़ नहीं पाईं और स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक भ्रम में रहीं कि यह आज़ादी है भी या नहीं। उन्होंने समय के साथ अपने आर्थिक-विचारों को न तो परखा और न उन्हें कोई नया रूप देने की कोशिश की।
वामपंथी पाखंड
मई 2011 में पश्चिम बंगाल से वाममोर्चा की 34 साल पुरानी सरकार की विदाई के बाद से देश में कम्युनिस्ट राजनीति ने दुबारा सिर नहीं उठाया। त्रिपुरा से भी उसकी विदाई हो गई और अब वह केवल केरल में बची है। सन 1964 में सीपीएम जिस दिशा पर जाने के लिए बनी थी वह 1977 के बाद बदल गई। बंगाल में उसपर पूँजी निवेश को बढाने का दबाव था। बंद होते कारखानों को बचाने की चुनौती थी। इसके लिए अपने ही उग्र श्रमिक संगठनों पर लगाम लगाने की ज़रूरत पैदा हुई। मुख्यमंत्री ज्योति बसु को अमेरिका जाकर विश्व बैंक से कर्जा माँगने और बहुराष्ट्रीय पूँजी निवेश में मदद करने की प्रार्थना करनी पड़ी।
2011से पहले बुद्धदेव दासगुप्त की आखिरी सरकार अपने इस प्रयास में विफल रही। 2006 के चुनाव में वाममोर्चा को जबर्दस्त जीत मिली थी। उसके बाद प्रदेश के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण का कार्यक्रम शुरू हुआ। आईटी सेक्टर को हड़तालों से बचाने के लिए उसे ट्रेड यूनियनों से बाहर रखा गया। राज्य के औद्योगिक विकास को रोकने में जिस पार्टी का हाथ था, वही अब ज़बरन औद्योगीकरण का फॉर्मूला लेकर आई थी। सबसे पहले नंदीग्राम में राज्य-प्रायोजित हिंसा का खूनी रूप देखने को मिला। उसके बाद सिंगुर से टाटा की नैनो का कारखाना वापस चला गया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘हिंदुस्तान’ दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं। आलेख उनके ब्लॉग pramathesh.blogspot.com से साभार)