सत्यदेव त्रिपाठी ।
कल (6 फरवरी) सुबह 9 बजे से ही बंसी दा के जाने की खबर से उदासी पसरी थी। फिर आज सुबह से बनारस-पटना-भोपाल आदि के अखबारों की कतरनें आने लगीं…
लेकिन जब प्रातः भ्रमण से वापस आकर 8 बजे नवभारत टाइम्स उठाया और वही खबर खोजने लगा कि देखें लिखा क्या है, तो पूरा अखबार दो-तीन बार पलट डाला; लेकिन खबर नदारद।
आक्रोश उमड़ा कैसे जड़-नालायक पत्रकार हैं
आक्रोश आया कि कला जगत का इतना बड़ा आदमी मरा, जिसे पद्मश्री, कालिदास सम्मान, संगीत नाटक अकादमी सम्मान… आदि कितने तो सम्मान मिले थे। और सम्मान न भी मिलते, तो पूरे देश में घूम-घूम कर जिस आदमी ने इतना काम किया कि हर शहर में उसके सैकड़ों की तादाद में सहकर्मी, शिष्य व मित्र हैं- हजारों की तादाद में चाहने वाले दर्शक हैं, उसकी खबर तो मुख पृष्ठ पर सचित्र बननी ही थी। और तब आक्रोश उमड़ा नभाटा पर कि कैसे जड़-नालायक पत्रकार हैं कि दिन-रात चल रही इतनी गहमागहमी के बावजूद वे इतने बेखबर, आत्ममुग्ध हैं कि कान पर जूं नहीं रेंगी। फिर अपने देखने पर शंका होने लगी, तो दो मित्रों- मयंकजी और देवमणि जी- को फोन लगाया और पुष्ट हुआ कि खबर सचमुच नहीं छपी है।
खबर सब जगह लापता
फिर टाइम्स समूह के अंग्रेजी अखबार की सुध आयी। उसे छान डाला- खबर गायब। शंका हुई कि दिल्ली संस्करण को जांचा जाये, तो दिल्लीवासी भतीजे ब्रजेश से पता किया। वहां भी नभाटा में कुछ नहीं। आक्रोश बेकाबू होकर गुस्से में उमड़ पड़ा और नुक्कड़ से जाके मुम्बई के लगभग सारे सुलभ पत्र खरीद लाया… लेकिन खबर लापता!
एक उम्मीद बची थी, वह भी…
अब गुस्सा चिंता में बदलने लगा…। लेकिन महाराष्ट्र टाइम्स व लोकसत्ता न मिला था, तो उम्मीद बची थी। फिर मराठी के प्रसिद्ध नाटककार शफ़ाअत खान से फोन पर पूछा तो मालूम हुआ उनमें भी कुछ नहीं। यानी पूरे देश के टाइम्स समूह व पूरे मुम्बई पत्रकार जगत में यह समाचार कहीं नहीं!
असह्य ग्लानि
निरुपाय होकर चिंता से ग्रस्त तो क्या, असह्य ग्लानि से भर उठा हूँ… अपने पर, पत्रकारिता से अपनी इस उम्मीद पर अविश्वास होने लगा है… कि ऐसी खबरों की उम्मीद करना ही तो गलत नहीं! क्यों आये ऐसी खबर?
पूरे पृष्ठ की (शायद बिकी हुई (पेड) न्यूज़) तो है ही कि मित्तल परिवार के किसी को मरे 100 साल हो गये हैं!
हम ऐसी खबरों से खुश क्यों नहीं पा रहे!
(सोशल मीडिया से साभार)