Govind Singh, Journalistगोविंद सिंह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोक सभा चुनाव के दौरान कहा था कि उनके तीसरे कार्यकाल में देश बड़े फैसलों का एक नया अध्याय लिखेगा। हालांकि पिछले छह महीनों में सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए हैं, जिनके दीर्घकालिक परिणाम होंगे लेकिन 19 दिसंबर को संसद में प्रस्तुत ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ विधेयक से निश्चय ही इस नए अध्याय की शुरुआत हो चुकी है। यह सही है कि लोकतन्त्र एक महान शासन प्रणाली है, लेकिन यह भी सत्य है कि यह एक अत्यधिक महंगी प्रणाली है। यह सुचारु रूप से चलती रहे, इसके लिए प्रत्येक स्तर पर अनुशासन की मांग करती है। अनुशासन न रहने पर यह और भी महंगी और कभी-कभी उच्छृंखल भी हो जाती है, जिसका खामियाजा हरेक नागरिक को भुगतना पड़ता है। एक समय ऐसा भी आता है, जब लोकतन्त्र पर से लोगों का भरोसा ही उठने लगता है। इसलिए समय-समय पर इसके शोधन की जरूरत पड़ती है ताकि उसमें आ गई विकृतियाँ दूर हो सकें।आज़ादी के इस अमृत काल में हमें देखना है कि हम कैसे अपने लोकतन्त्र को बचाए रख सकते हैं। पिछले 77 वर्ष में अनेक मौके ऐसे आए हैं, जब हमारे लोकतन्त्र की नैया डगमगाती हुई नजर आई है। उसके मूल कारणों की पहचान करके उन्हें दुरुस्त करने की कवायद का पहला कदम है- एक राष्ट्र, एक चुनाव।

आज अमेरिका में 244 साल से लोकतन्त्र फल-फूल रहा है तो इसका एक ही कारण है कि वहाँ के लोगों ने लोकतन्त्र का अनुशासित होकर पालन किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति रहे आइसनहावर ने एक बार कहा था,‘हमारे गणराज्य का भविष्य हमारे मतदाता के हाथ में है’। अर्थात मतदाता ही राष्ट्र का भाग्यविधाता होता है। उसका एक-एक वोट अमूल्य होता है। यदि चुनाव प्रणाली ठीक होती है तो मतदाता को उसके मत की कीमत मिल जाती है, वरना वह चुनाव के बाद खुद को छला हुआ पाता है। लोकतन्त्र और उसकी प्रक्रिया पर नागरिक का विश्वास बना रहे,इसके लिए जरूरी है कि चुनाव प्रणाली दुरुस्त हो। एक राष्ट्र एक चुनाव एक तरह से लोकतन्त्र पर हमारे नागरिक की विश्वास बहाली की दिशा में बढ़ता हुआ कदम है।

आज़ादी के बाद हमारे देश में जिस तरह से चुनाव हो रहे थे, उसमें कोई समस्या नहीं थी। 1952, 57, 62 और 67 में लोकसभा चुनावों के साथ ही विधान सभा के चुनाव भी हो रहे थे। इससे खर्चा भी कम आ रहा था और समय की भी बचत हो रही थी। लेकिन उसके बाद कुछ राज्यों में समय से पहले विधान सभाओं के भंग होने से इस क्रम में व्यवधान आ गया। फिर इन्दिरा गांधी ने भी अपनी सुविधा के लिए चुनाव आगे-पीछे करवाने शुरू कर दिये। चूंकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी जो इस पर रोक लगाती या ऐसे प्रयासों को हतोत्साहित करती और अगले ही चरण में इसे दुरुस्त कर देती, इसलिए यह क्रम निरंतर टूटता ही चला गया। यहाँ तक कि आपातकाल में इन्दिरा गांधी ने संविधान संशोधन करके अपना कार्यकाल बढ़ा कर छह वर्ष कर लिया।यह संविधान का गला घोटने जैसा था। 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने काँग्रेस शासित राज्य सरकारें भंग कर दीं और जब 1980 में काँग्रेस सत्ता में लौटी तो उसने भी जनता पार्टी या उसके घटक दलों की सरकारें या तो बर्खास्त कर दीं  या दलबदल करवा कर सरकार बदलवा दी। इसके बाद तो यह सिलसिला चलता ही चला गया। 1989 के बाद केंद्र में लगातार अस्थिरता बने रहने से न सिर्फ लोकतन्त्र कमजोर हुआ, हम सब भी कमजोर हो गए। हमने देखा है कि केंद्र कमजोर होता है तो तरह-तरह के आंदोलन खड़े हो जाते हैं और राष्ट्र विरोधी ताक़तें भी सक्रिय हो जाती हैं। हमारे संवैधानिक प्रावधानों की उदारता के ही कारण अब साल भर कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। उन्हें जीतने की होड़ में पैसा भी अनाप-शनाप बहाया जाता है। एक अनुमान के अनुसार बीता लोकसभा चुनाव हमें एक लाख 34 हजार करोड़ का पड़ा है। जबकि 2019 के आम चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। विधान सभाओं में होने वाले चुनाव खर्च का कोई हिसाब ही नहीं है। जबकि 1952 में हुए चुनाव में (लोकसभा और विधान सभाएं मिलाकर) कुल 20 करोड़ भी खर्च नहीं हुए थे। आखिर कहाँ से आता है इतना धन? भारतीय करदाताओं का ही तो धन है ये। हमारी चुनाव प्रणाली की यह हालत कोई मामूली विकृति नहीं है।

साल-दर-साल चुनाव होते रहने से संबन्धित राज्य में हमेशा आचार संहिता लगी रहती है। कभी लोक सभा के चुनाव, कभी राज्य विधान सभा के चुनाव तो कभी स्थानीय निकायों के चुनाव। आचार संहिता की वजह से विकास के तमान काम बाधित हो जाते हैं, भर्तियाँ नहीं हो पातीं, सड़कें नहीं बन पातीं और कोई अत्यंत जरूरी काम भी आगे नहीं बढ़ पाता। 2018 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वर्ष 2016-17 में महाराष्ट्र में साल के 365 में से 307 दिनों में आदर्श आचार संहिता लगी रही, जिससे राज्य में विकास कार्य ठप्प पड़े रहे। फिर हमेशा चुनाव होते रहने से सरकारी कर्मचारी अपने काम की बजाय चुनाव के काम में लग जाते हैं, जिससे उनके अपने हिस्से के काम अधूरे पड़े रहते हैं। सरकार के मंत्री, सांसद-विधायक हमेशा चुनावी मुद्रा में रहने से अपने स्थायी महत्व के काम नहीं कर पाते। एक राज्य के मुख्यमंत्री,दूसरे मंत्री और अन्य मशीनरी दूसरे राज्य में अपनी पार्टी के प्रचार के लिए कई-कई हफ्ते अपने मूल राज्य से नदारद रहते हैं। उनके अपने राज्य का काम सफर करता है। पुलिस और अर्ध सैनिक बल भी हमेशा एक राज्य से दूसरे राज्य में भटकते रहते हैं। इससे भी खर्चा बढ़ता है। और सबसे बड़ी बात यह है कि हमेशा चुनाव के मोड में रहने से मतदाता उदासीन होने लगता है। खासकर शहरी मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के लोग मतदान तिथियों को छुट्टी का दिन समझने लगे हैं। यदि शनि और इतवार भी साथ में पड़ गए तो वे मतदान छोडकर छुट्टी बिताने बाहर निकल जाते हैं। मतदाता की यह उदासीनता और चुनाव प्रक्रिया के प्रति नकारात्मक भाव आखिर हमारे लोकतन्त्र को कहाँ ले जाएगा? यह एक गंभीर प्रश्न है।

संसद में रखे जाने पर हमारे विपक्षी दलों ने इस विधेयक का जम कर विरोध किया। उनके तर्क ये हैं:

इससे हमारे संघीय ढांचे को नुकसान होगा। छोटी राजनीतिक पार्टियों को नुकसान होगा, उनका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। क्षेत्रीय दल धीरे-धीरे हाशिये में चले जाएंगे। वे दूसरे राज्यों में अपने कदम नहीं बढ़ा पाएंगे। राष्ट्रीय दलों का दबदबा हो जाएगा। यह हमारे मतदाता के संवैधानिक अधिकारों पर हमला है। जम्हूरियत के लिए खतरा है। आम मतदाता मतदान करते वक्त कनफ्यूज हो सकता है।वह केंद्र और राज्य सरकारों के कार्य-प्रदर्शन को ठीक से परख नहीं पाएगा। यह संविधान के बुनियादी ढांचे के विरुद्ध है। यह विधेयक राज्य सरकारों के कार्यकाल और उनकी शक्तियों को कम करता है। केंद्र सरकार उनके ऊपर हावी हो सकती है। केंद्र की तानाशाही कायम हो सकती है। आश्चर्यजनक दलील यह भी है कि साल भर चुनाव होते रहने से काला धन बाहर आता है, उससे जनता को रोजगार मिलता है और जब काला धन बाहर नहीं आएगा और जनता बेरोजगार हो जाएगी। जब हम लोक सभा चुनाव ही एक साथ नहीं करवा पाते, कई-कई चरणों में चुनाव करवाते हैं तो लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कैसे करवा पाएंगे? फिर उनका तर्क यह भी है कि जब एक साथ चुनाव होते थे, तब देश की आबादी महज 40 करोड़ थी, आज एक अरब 40 करोड़ हो गई है। एक साथ इतना बड़ा चुनाव कैसे हो पाएगा?

एक राष्ट्र, एक चुनाव का विरोध करने वालों की दलीलें वास्तव में राजनीतिक हैं। वे राजनीति के लिए राजनीति कर रहे हैं। जब 1967 तक संघीय ढांचे का हनन नहीं हो रहा था तो अब कैसे हो जाएगा?यदि यह व्यवस्था संविधान के मूल विचार के विरुद्ध होती तो संविधान में ऐसी व्यवस्था ही क्यों रखी जाती? उसकी जगह कोई और व्यवस्था क्यों न होती?किस तरह आज़ादी के बाद चार-चार आम चुनाव इस व्यवस्था के चलते होते?बल्कि उसे और स्पष्ट और सख्त होना चाहिए था ताकि बाद के सत्ताधारी उसका अपने स्वार्थ हेतु हनन करने की हिम्मत न कर पाते।

छोटे या क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को भी घबराने की जरूरत नहीं है। राष्ट्रीय दलों की तुलना में उन्हें अपनी जनता की सेवा का बेहतर मौका मिलता है। वे निरंतर अपने मतदाताओं के सामने रहते हैं। इसलिए यदि वे ईमानदारी के साथ राजनीति को सेवा समझकर काम करें तो लगता नहीं कि उन्हें कोई हानि होगी। जहां तक राष्ट्रीय दलों की मजबूती का प्रश्न है,राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें मजबूत होना भी चाहिए। बल्कि हर दल को मजबूत होना चाहिए। जब-जब राष्ट्रीय दल कमजोर हुए हैं, देश अस्थिर हुआ है और नुकसान पूरे देश को उठाना पड़ा है। 1987-91 का दौर हमने देखा है। जब हम आर्थिक तौर पर इतने दीन-हीन हो गए थे कि देश का सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा था।

ज़्यादातर ताकतवर राष्ट्रों में दो या तीन दल ही चुनावी परिदृश्य में होते हैं। इसलिए उनकी नीतियों में भी एकसारता होती है। और वे तरक्की भी अधिक करते हैं। अमेरिका जैसे देश में तो हर चीज पहले से निश्चित होती है। यहाँ तक कि चुनाव का पूरा कार्यक्रम और राष्ट्रपति के शपथ लेने की तारीख भी। उसे तोड़ने का साहस कोई नहीं करता।

हमारा मतदाता निरंतर परिपक्व हो रहा है। अब वह इतना विवेकवान हो गया है कि अच्छे और बुरे का अंतर समझ सकता है। वह समझ गया है कि राज्य और केंद्र के स्तर पर कौन बेहतर विकल्प है। पाँच साल में चुनाव आएगा तो उसमें उत्साह भी बना रहेगा और वह बढ़-चढ़ कर उसमें हिस्सेदारी भी करेगा। बार-बार के चुनावों की वजह से होने वाली थकान और नकारात्मकता उसमें नहीं होगी। यदि कोई सरकार गिर भी जाती है तो बाकी बचे समय के लिए चुनाव कराये जा सकते हैं, जैसा कि राज्य सभा के चुनाव में होता है। सबसे बड़ी बात ये है कि एक राष्ट्र, एक चुनाव लागू हो जाने से विकास कार्य बाधित नहीं होंगे। काले धन का प्रवाह कम होगा। भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगेगी। और सरकारों के कामकाज में स्थिरता और निरंतरताआएगी। सरकारें, चाहे केंद्र की हो या राज्यों की, अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन पर ध्यान देंगी। देश हित में स्थायी और दूरगामी फैसले लिए जा सकेंगे। वरना लोगों की नजर सिर्फ और सिर्फ चुनावों तक सीमित रहती है। देश एक किस्म के तदर्थवाद का शिकार हो जाता है। फिर एक साथ चुनाव होने से, जो भी मेहनत लगेगी, एक बार ही लगेगी। एक बार के खर्चे में दो चुनाव सम्पन्न हो जाएँगे। इस तरह से जो धन बचेगा, वह देश की तरक्की में लगेगा। जनहितकारी योजनाओं में लगेगा।

निश्चय ही यह एक क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत है। देश के विकास और दीर्घकालिक योजनाओं को साकार करने के लिए ऐसे दूरगामी फैसले देश हित में जरूरी हैं। सोचिए कि यदि ये सरकार मोदी-03 न होती तो क्या इस तरह की पहल की कल्पना की जा सकती थी? कुछ विपक्षी दल कह रहे हैं कि यह मोदी सरकार की असली मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने की चाल है। लेकिन क्या इससे भी कोई बड़ा मुद्दा हो सकता है? कुछ लोगों को यह मुद्दा अचानक से आया हुआ लग सकता है, लेकिन इसकी मांग 1983 से ही हो रही है। और हर दल के संवेदनशील लोग इसे उठाते रहे हैं। चूंकि यह एक दूरगामी फैसला है, इसलिए सरकार भी इसे गंभीरता से लायी है। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि इस पर व्यापक बहस हो। हर तरह के विचार आयें और तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भविष्य की दिशा तय हो। जिस तरह से राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 तैयार हुई है, उसी प्रकार से एक राष्ट्र, एक चुनाव बिधेयक का मसौदा भी बहुत सोच-समझ कर तैयार किया गया है। उम्मीद है कि इससे भविष्य की राजनीति का पथ प्रशस्त होगा और हमारा लोकतन्त्र और मजबूत होगा। (पाञ्चजन्य, 29 दिसंबर 2024 में प्रकाशित आवरण कथा के कुछ अंश)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।