ध्रुव गुप्त।
ग़ज़ल गायिकी की विधा को जिन कुछ फनकारों ने जान, तेवर और हुस्न बख़्शी, उनमें अख्तरी बाई फैजाबादी उर्फ़ बेग़म अख्तर (7 अक्टूबर  1914 – 30 अक्टूबर 1974) सबसे प्रमुख नाम है। एक सबसे अलग अंदाज़, एक सबसे अलग आवाज़। आवाज़ की तासीर ऐसी जैसी आधी रात किसी वीराने से आहिस्ता-आहिस्ता उठती उनींदी-सी कोई पुकार। जैसी मुहब्बत में चोट खाई माशूका की कोई दबी-सी चीख। जैसे फुसफुसा कर बातें करता पलकों का कोई भींगा-सा कोना।


मंचों पर गरिमामयी उपस्थिति

Begum Akhtar: वो गायिका जिसकी आवाज़ इधर उधर नहीं बल्कि सीधे रूह में उतरती है! - Begum Akhtar birthday remembering eminent Begum Akhtar ghazal song and Indian Classical Singer Begum Akhtar life

सदी के तीसरे दशक में जब उन्होंने संगीत की महफ़िलों में शिरक़त शुरू की, वह दो बेहतरीन गायिकाओं – गौहर जान और जानकी बाई छप्पनछुरी के अवसान और रसूलन बाई के उत्कर्ष का दौर था। अपनी बिल्कुल अलग-सी आवाज़, शालीनता और मंचों पर अपनी गरिमामयी उपस्थिति की वज़ह से बहुत कम वक़्त में ही अख़्तरी ग़ज़ल, ठुमरी और दादरा गायन की लोकप्रिय आवाज बन गईं।

आधा दर्जन फिल्मों में अभिनय

Memories of Akhtari

सिर्फ पंद्रह साल की उम्र में ही संगीत कार्यक्रमों से उन्हें देशव्यापी शोहरत मिली तो फिल्मवालों का ध्यान उनकी तरफ गया। उन्होंने अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से 1933 से 1943 तक लगभग आधा दर्जन फिल्मों में अभिनय किया। अपनी फिल्मों में अपने तमाम गाने उन्होंने खुद ही गाए थे। बहुत दिनों तक फिल्मों का माहौल रास नहीं आया तो उन्होंने अभिनय को अलविदा कह खुद को पूरी तरह गायन के प्रति समर्पित कर दिया।

सबसे महत्वपूर्ण मोड़

अख़्तरी बाई के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 1945 में शादी के बाद पारिवारिक परंपराओं के दबाव में उन्हें गायिकी से तौबा करनी पड़ी। अपने स्वभाव और शौक़ के विपरीत जीवन ने उन्हें बीमार कर दिया। बीमारी इस क़दर बढ़ी कि उनके ससुराल वालों को अंततः उन्हें लखनऊ रेडियो स्टेशन में गाने की अनुमति देनी पड़ी। फिर क्या था, बेग़म अख्तर के नाम से उनकी आवाज़ का जो सफ़र दुबारा शुरू हुआ, वह देखते-देखते समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में आंधी की तरह पहुंच गया। उनकी पुरकशिश आवाज़ से गुज़रकर लोगों ने शायद पहली बार जाना कि दर्द को महसूस ही नहीं किया जाता, सुना भी जा सकता है।

कई पीढ़ियों के दर्द और तन्हाई का भरोसेमंद साथी रही वो आवाज

Tribute To Begum Akhtar: The Queen Of Catastrophe

बेगम साहिबा की गाई गज़लें और ठुमरियां हमारी अनमोल संगीत विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 1974 में अपनी मौत तक बेगम अख्तर ने खुद को ग़ज़ल की सबसे ज़रूरी और सबसे मकबूल आवाज़ के रूप में स्थापित कर लिया था। उनकी आवाज़ देश की कई पीढ़ियों के दर्द और तन्हाई का भरोसेमंद साथी रही हैं। वैसे तो उन्होंने कई क्लासिक शायरों की गज़लों को अपनी आवाज़ बख्शी, लेकिन शकील बदायूंनी उनके सबसे प्रिय शायर थे जिनकी ‘ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, ‘मेरे हमनफस मेरे हमनवां मुझे दोस्त बनके दगा न दे’ सहित कई ग़ज़लों ने उनकी आवाज़ में लोकप्रियता का शिखर छुआ। मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर के यौमे पैदाईश पर उन्हें खेराज़-ए-अक़ीदत, मेरे एक शेर के साथ- जब भी कम होंगी उम्मीदें, जब भी घबड़ाएगा दिल/ आपकी आवाज़ के पहलू में सो जाएंगे हम!
(लेखक पूर्व आईपीएस और जाने माने साहित्यकार हैं। आलेख सोशल मीडिया से)