डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी (17 सितम्बर 1892 – 22 मार्च 1971) गीता प्रेस गोरखपुर की हिन्दी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के अगस्त 1926 से अपनी अन्तिम सांस तक अर्थात लगभग 45 वर्ष तक सम्पादक रहे।
अभी हाल में प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जब गीता प्रेस गए थे तो उन्होंने वहां अपने भाषण में श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार की विशेष तौर से प्रशंसा की थी।
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी में ईश्वर प्रदत्त कुछ अद्भुत गुण थे। पोद्दारजी भाईजी के नाम से लोकप्रिय थे। उनके बृहमलीन होने के बाद एक ग्रन्थ छपा – भाईजी: पावन स्मरण। इस ग्रन्थ का द्वितीय संस्करण संवत् 2062 गीता वाटिका प्रकाशन, गोरखपुर ने प्रकाशित किया था।
रियाज अहमद अन्सारी का अनुभव
इसके पृष्ठ संख्या 307 से 310 में श्री रियाज अहमद अन्सारी ने भाईजी के बारे में एक लेख लिखा है। शीर्षक है: भाईजी – आदमी नहीं, फरिश्ता। अपने लेख में अन्सारीजी बताते हैं:
बादशाह बाबर ने अयोध्या में श्री रामजन्मभूमि मन्दिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी। इस्लाम किसी गैर मुस्लिम धर्म के स्थान को तोड़ कर मस्जिद बनाने की इजाजत नहीं देता है। बाबर की इस हरकत ने हिन्दुओं के दिलों में इस्लाम और मुसलमानों से नफरत पैदा कर दी है। इस सिलसिले में मैंने वर्ष 1949 में सरकार से मांग की थी कि वे मन्दिर को हिन्दुओं को वापस दिलाने के लिए कोई ठोस कदम उठाएँ। मेरा यह बयान अखबारों में भी छपा।
नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर प्रदेश और खासकर गोरखपुर के मुसलमान मेरे मुखालिफ हो गए। मैं गोरखपुर का रहने वाला हूँ। मेरे रिश्तेदार और खंडन के लोग भी मुझसे दूर रहने लगे और मुझे तरह की तकलीफ़ें मिलने लगीं। मेरे वालिद साहब (पिताजी) ने मौलिवियों के दबाव में आकर मुझे खुद से अलग कर लिया। अब मेरे पास कारोबार करने के लिए पूंजी नहीं थी। नौकरी आसानी से नहीं मिलती। धीरे-धीरे भुखमरी की नौबत आ गई। मेरे घर में तीन दिन खाना नहीं बना। मेरा शरीर कमजोर हो गया। ऐसे में मुझे अपनी बेटी शहेदा की तकलीफ देखी नहीं जाती थी। तब मैंने फैसला किया कि मैं आज रात आत्महत्या कर लूँगा। मेरे फैसले के दिन अचानक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी (भाईजी) मेरे घर आए। उन्होंने फरमाया, ‘आपने आज रात अपनी ज़िदगी के साथ जो करने का निश्चय किया है, वह ठीक नहीं है।‘ उनकी बात सुन कर मैं आवक रह गया। क्योंकि आत्महत्या करने के इरादे की बात मैंने किसी को बताई नहीं थी। भाईजी ने मुझे एक लिफाफा दिया, जिसमें सौ-सौ के बीस नोट रखे थे। अर्थात दो हजार रुपये थे। उस समय ये दो हजार रुपए मेरे लिए दो लाख नहीं दो करोड़ के बराबर थे। लगभग बीस दिन बाद भाईजी ने मुझे आठ हजार रुपये और दिये। मैंने उनसे अर्ज किया, ‘भाईजी! मैं यह रुपये आपको कैसे वापस करूंगा?’ तो उन्होंने फरमाया, ‘भाई साहब, इन्हें वापस करने की जरूरत नहीं है। मैं कोई कर्ज नहीं दे रहा हूँ। आपकी सेवा कर रहा हूँ।
भाईजी हर मजहब की इज्जत करते थे। वह पूजा की तरह नमाज की भी कद्र करते थे। कई बार मैंने नमाज उनके आफिस के कमरे में पढ़ी। वे नमाज के लिए साफ-सुथरी बिची हुई चटाई पर कोई और साफ सुथरा कपड़ा या कम्बल बिछवा दिया करते थे और वज़ू के लिए पानी का बन्दोबस्त कर देते थे।
भाईजी द्वारा भारत रत्न लेने से इनकार
कुछ दिन पहले इस लेखक ने एक लेख लिखा था – नेहरूजी भी प्रभावित थे गीता प्रेस से यह लेख इस URL पर पढ़ा जा सकता है:
https://apkaakhbar.in/nehruji-was-also-influenced-by-gita-press/
उस लेख में यह जिक्र किया गया था कि किस प्रकार पूर्ण विनम्रता के साथ गीता प्रेस के श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने भारत रत्न लेने से मना कर दिया था।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)